सोमवार, 17 जून 2013

बिल्व फल

प्रकृति ने हमें अनेक औषधीय गुणों वाले फलों से नवाज़ा है. इनमें से बिल्व फल भी एक है. यह संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसे साधारण बोलचाल में ‘बेल’ कहा जाता है. अंग्रेजी में इसे wood apple कहते हैं. बेल प्राय: दक्षिणी एशिया के सभी समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में पाया जाता है. भारत के सभी क्षेत्रों में, विशेषकर तराई में समुद्र की सतह से ४००० फीट तक की ऊंचाई पर इसके पेड़ पाए जाते हैं.

हिन्दू धर्मावलम्बियों में बेल के वृक्ष को धार्मिक आस्थाओं के साथ भी जोड़ा जाता है. कहते हैं कि कल्याणकारी आदिदेव महादेव इस वृक्ष की जड़ों में वास करते है. अत: समूचे पेड़ की पूजा की जाती है. पार्थिव पूजा/शिवार्चन में अक्षत बेलपत्रों को लाखों की संख्या में अर्पित किया जाता है. इसकी त्रिपत्रक पत्तियों को सावन माह में शिवलिंगों पर गंगाजल और दूध के साथ चढ़ाया जाता है.

बेल के पेड़ १०-१५ फीट ऊँचे होते हैं जिनमें गर्मियों में हरे गोल फल लटकते दिखने लगते हैं. पकने पर ये हल्के पीले रंग के हो जाते हैं. फल बाहर से बहुत कठोर लकड़ी के समान होते हैं, जिसे तोड़ने पर अन्दर हल्के गुलाबी रंग का बीज युक्त सुगन्धित गूदा मिलता है. बेल के गूदे को बीजरहित करके सुखाकर चूर्ण के रूप में सुरक्षित रखा जाता है. इसके अलावा इसका मुरब्बा बना कर भी खाया जाता है.

बेल का गूदा आँतों की बीमारी की रामबाण औषधि होती है. प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थ, चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता, में इसके बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है. अतिसार (डायरिया), पेचिस (डीसेनटरी) तथा अमीबियोसिस में ये तुरन्त लाभकारी होता है. गूदे में से बीज छान कर अलग करके इसका पेय (शर्बत) प्रात: खाली पेट लेने का नियम बताया गया है. इसकी तासीर ठण्डी होती है इसलिए गर्मियों में लू लग जाने पर इसे पिलाया जाये तो बहुत राहत मिलती है.

बेल की मज्जा में कई विशिष्ट अल्कलाईड यौगिक व खनिज लवण होते हैं, जो भूख व ऊर्जा दोनों को बढ़ाते हैं तथा रोग प्रतिरोधात्मक शक्तियों को बल देते हैं

पुराने जमाने में जब आज की तरह सीमेंट नहीं बनता था तो मकानों को मजबूती देने व जलरोधी बनने के लिए बेल के गूदे को चूने में मिलाकर भी लगाया जाता था.

बेल के बीजों से नए पौधे भी तैयार किये जा सकते हैं. इसके लिए बढ़िया किस्म के बड़े आकार के फलों से बीज लेने चाहिए. प्राय: बिल्व फल बाजारों में उपलब्ध रहते हैं
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