गुरुवार, 27 जून 2013

सैलाब

आस्था के सैलाब की परिणिति दु:खों के सैलाब के रूप में हो गयी है. उत्तराखंड में विशेष रूप से गढ़वाल के दुर्गम पहाड़ों में स्थापित तीर्थ इस बार प्राकृतिक आपदा के शिकार हुए हैं. हजारों की संख्या में जनहानि व कई करोड़ रुपयों की धनहानि हुई है. प्रकृति के इस निष्ठुर रूप की किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

यह सच है कि तीर्थों में लोग अनंतकाल से श्रद्धावश जाते रहे हैं. अभी कुछ वर्ष पहले तक ये अवधारणा आम थी कि जो बुजुर्ग (अकसर केवल बुजुर्ग ही तीर्थों को जाया करते थे) ऐसी यात्राओं में घर से पैदल निकलते थे, उनमें से बहुत कम लोग ही वापस आ पाते थे. तब सड़कें नहीं थी, गाडियों-हेलीकॉप्टर की कल्पनाएँ भी नहीं थी, पर अब ऐसा नहीं है. बहुत से वाहन-साधन हैं, कच्ची मिट्टी वाली पहाड़ियों पर पक्की सड़कें हैं, मुख्य तीर्थों में हैलीपैड हैं. बड़ी बात यह भी है कि आम तीर्थयात्री आर्थिक रूप से विपिन्न भी नहीं है. बसों द्वारा या अपनी लक्जरी कारों द्वारा तीर्थ यात्रा के नाम पर देशाटन या पिकनिक/दृश्यावलोकन के लिए निकल जाते हैं.

यहाँ मानसूनी बारिश जुलाई माह में अपेक्षित रहती थी. वह इस बार मध्य जून में ही घनघोर घटाएं लेकर आई और पश्चिमी विक्षोभ का संयोग मिलने से रौद्ररूप हो गया. बादल फटे, नदियों में हद दर्जे से ज्यादा उफान तथा जमीन-सड़कों के कटान से प्रलय की स्थिति बन आई.

मौसम विभाग की पूर्वसूचना शायद एक दो दिन पहले प्रकाशित हो गयी थी, पर लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि यहाँ ऐसा पहले कभी हुआ नहीं था. इस सैलाब में अनेक परिवार बह गए, अनेक लापता हैं. जिनके स्वजन इसकी चपेट में आ गए हैं, वे बहुत दु;खी हैं. सारे देशवासियों की संवेदनाएं उनके साथ हैं. उनके घाव भरने में बहुत समय लगेगा.

बचाव कार्य में बहुत बाधाएं थी. प्रशासन बेबस देख रहा था क्योंकि यह अनपेक्षित था. ऐसे में हमारी सेना के बहादुर जवानों ने अपना जौहर बताकर हजारों लोगों की जान बचाई है. ऐसी आपदाएं कोई बोल कर नहीं आती हैं, लेकिन आपदा प्रबंधन के कुछ गुर थे, जिन्हें ठन्डे बस्ते में रखा हुआ था. सन २००७ मे बनी प्रदेश की आपदा प्रबंधन समिति की एक भी बैठक गफलत में नहीं की गयी थी.

एक नामधारी-जटाधारी बाबा कह रहे थे कि पापी लोग तीर्थों में आने से ये सब हुआ है. यह अत्यंत हास्यास्पद है.

पर्यावरणविद कहते हैं कि सड़कें, बाँध और पनबिजली योजनाएं बनाकर विकास के नाम पर पहाड़ों से जो छेड़छाड़ की गयी है, ये उसका नतीजा है, पर यह अर्धसत्य है.

भू-वैज्ञानिक डॉ खड्ग सिंह वल्दिया के अनुसार, उत्तराखंड कि त्रासद घटनायें प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक हैं. लेकिन इनसे होने वाला जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित है. उनके अनुसार गलत तरीके से चट्टानों के बजाय भूस्खलन पर बनी सड़कें, एवं फ्लड-वे में बने आवासीय तथा व्यावसायिक परिसरों के कारण यह नुकसान कई गुना अघिक हुआ है.

बहरहाल प्राकृतिक विपदाएं इस धरती पर आती रही  हैं और प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती है. हिमांचल की ऊँची पर्वत श्रंखलाओं में ज्वाला देवी को जाने वाली सड़कों के किनारों पर नदी के पाट वाले गोल घिसे हुए पत्थर देखे जा सकते हैं. जरूर यहाँ हजारों लाखों वर्ष पहले ऊपर की धरती नीचे और नीचे की धरती ऊपर हुई होगी. यानि भौगोलिक तोड़-फोड़ प्रकृति का अपना नियम है. हिमालय की संरचना भी इसी नियम के तहत है. भूगर्भवेत्ता इसकी पुष्टि करते हैं.

अब यहाँ लगभग सैलाब के बाद की स्थिति है. पीड़ितों एवं गुमशुदा लोगों को ढूँढने का और उन्हें राहत प्रदान करने का कार्य जारी है. देश का दुर्भाग्य है कि इस मौत के मंजर पर राजनैतिक दलों के कुछ लोग वोटों की राजनीति कर रहे हैं जो निंदनीय है. देश दुनिया के लोगों ने आपदा पीड़ितों की सहायता के लिए जी-जान से धन तथा सामान जुटा कर भेजा है, अभी भी यह जारी है. जरूरत इस बात की है कि इसका सही उपयोग हो, पीड़ितों तक जल्दी से जल्दी सहायता पहुंचे.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. ये तो आपको मानना ही पड़ेगा कि जिसके लिए आस्‍था लिए लोग तीर्थाटन कर रहे हैं अगर उस धर्माधिकारी ईश्‍वर के आस्‍थामूल नियमों का पालन नहीं होगा तो तबाही ही होगी।

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  2. बिल्कुल सही कहा आपने... जल्दी सहायता मिले और अभी भी जो बचे हैं वे जीवित आ जायं,यही कामना है...

    @मानवता अब तार-तार है

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  3. सबके अपने अपने तर्क हैं, पर गये हुये प्राण वापस कहाँ आयेंगे।

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