रिन्कू नाम है उसका. उसको अपनी जाति का पता नहीं है. उसकी माँ ने केवल यह बताया था कि उसका बाप उसके पैदा होने से पहले कहीं गायब हो गया था.
कहानी की शुरुआत यों होती है कि बाईस साल पहले आगरा के मोहनपुरा इलाके में एक मजदूर जोड़ा, बाबू और उसकी पत्नी नट्टी, कहीं राजस्थान के देहात से आकर झोपड़ी बना कर रहने लगे. इधर उधर खुली मजदूरी करके पेट् पालते थे. बाबू को नशे की लत थी. एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन पड़ोस के एक छोकरे द्वारा चिढ़ाये जाने पर बाबू ने उसे एक जोरदार थप्पड़ दे मारा. होनहार कि वह छोकरा वहीं पर मर गया. किसी ने देखा नहीं फिर भी डर के मारे बाबू भाग खड़ा हुआ. बाद में जब लाश को लोगों ने देखा तो हो हल्ला हो गया, हुजूम इकट्ठा हो गया, पुलिस आई शक में नट्टी को पकड़ कर ले गयी. वह बेचारी ये नहीं बता सकी कि लड़के को उसने नहीं उसके पति ने थप्पड़ मारा था. सारा इल्जाम उस पर आ गया. उसे जेल भेज दिया गया. बाबू तो उसे तलाशने भी नहीं आया.
नट्टी तब सात महीने के गर्भ से थी. कुपोषण की शिकार भी थी. जब उसे अदालत मे पेश किया गया तो उसने हां या ना कुछ कहे बिना केवल सर हिलाकर अपना गुनाह कबूल कर लिया. नट्टी के लिए ये सब नया अनुभव था उसने पहली बार जाना वकील, जज और अदालत क्या होता है. उसको मन ही मन खुशी थी कि बाबू पुलिस की मार से बच गया था.
उसकी गर्भावस्था और रुग्णता को देख कर पीठासीन महिला जज महज ५००० रुपयों के जमानत-मुचलके पर छोड़ देना चाहती थी, पर जमानत देने वाला कोई नहीं था, उसे जेल भेज दिया गया. बहुत दिनों तक तक वह बाबू का इन्तजार करती रही पर वह नहीं आया ना ही उसकी कोई खोज खबर आई. लाता भी कौन? उसका इस शहर में कोई अपना नहीं था. चूँकि वह गर्भवती थी, जेल के डॉक्टर ने उसको आवश्यक दवाएं व विटामिन दिये जो शायद बाहर रहने पर उसे उपलब्ध नहीं होते.
जेल में उसकी बैरक में बहुत सी सजायाफ्ता औरतें थी. नट्टी ने जब एक हमदर्द औरत को बताया कि कुसूर तो उसके पति से हुआ था, उसे बचाने के लिए जेल में आना पड़ा तो ये बात सब तरफ फ़ैल गयी. सभी महिलाओं की हमदर्दी उसको मिलने लगी. कुछ तेज तर्रार औरतें तो उस पर दबाव बनाने लगी कि सच सच बोल कर खुद आजाद हो जाये, पर नहीं, वह सोचती है कि आज या कल उसे जेल से छोड़ दिया जाएगा वह अपने बाबू को फिर से ढूंढ लेगी. उसे ज्यादा चिंता ये लगी रहती थी कि बाबू किस हालत में होगा, अपने खाने का क्या जुगाड़ करता होगा. नट्टी बाबू को याद कर कर के रोती थी.
जेल के अस्पताल में ही नट्टी ने बेटे को जन्म दिया. जाने-अनजाने सबने उसको नाम दे डाला ‘‘रिन्कू’. और रिन्कू अपनी माँ के दुर्भाग्य के साथ बंधा ही रहा. तीन साल की उम्र होने तक वह बैरक की महिलाओं के बीच पलता रहा, उसके बाद उसे समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित अनाथालय में भेज दिया गया.
माँ का प्यार, माँ का आँचल, और माँ की गोद मे हर बच्चे की अपनी अनोखी दुनिया होती है. रिन्कू आम बच्चों से अलग छुटपन में ही सयाना हो गया. वह लोगों की बातें गौर से सुनता था और नित्य बेक़सूर माँ को जेल से बाहर लाने के सपने देखा करता था.
अपने एक अध्यापक को उसने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई. उन्होंने उसे बहुत सी सांसारिक और अदालती बातें बताई. उन्होंने कहा कि “रूपये पास में हो तो सारे काम सरल हो जाते हैं. तुम कुछ काम करो, रूपये कमाओ, और किसी वकील के मार्फ़त अदालत में अपील करो.” गुरुमंत्र मिलने के बाद रिन्कू काम की तलाश में रहा और उसे एक हाउसिंग प्रोजेक्ट में काम मिल भी गया. उसकी जमा पूंजी दो हजार होते ही वह शहर के एक नामी वकील कुमार साहब के पास गया. उसने एक ही वाक्य में वकील साहब का दिल छू लिया, “आप मेरी बेक़सूर माँ को जेल से छुड़वा दीजिए, हम दोनों माँ-बेटा जिंदगी भर आपकी सेवा करते रहेंगे.”
वकील कुमार साहब ने अपनी माँ बचपन में खो दी थी, और वे हमेशा अपनी माँ को श्रद्धापूर्वक याद किया करते थे. इस लड़के की अपनी माँ के प्रति आसक्ति देखकर वे द्रवित हो गए. जब रिन्कू ने अपनी पूरी जमापूंजी २००० रूपये वकील साहब के चरणों मे रख दी तो कुमार साहब ने गंभीरता से सोचा कि रूपये तो जिंदगी भर कमाता रहा हूँ, यह पुण्य कमाने का अवसर इस प्रकार पहली बार मिला है. वे बोले, "ठीक है, मैं तुम्हारी माँ को रिहा करवाने की पूरी कोशिश करूँगा, पर ये रूपये तुम अपने पास ही रखो, मेरी तरफ से मदद समझ लो.”
अदालत में इस केस को दुबारा खोलने व नए सिरे से बहस करके परिणाम तक पहुँचाने मे ६ महीने लगा गए, और नट्टी रिहा हो गयी. रिन्कू ने मातृऋण चुका दिया. वकील साहब को अनेक प्रकार से धन्यवाद दिये क्योंकि उन्होंने इस केस की पैरवी करने लिए कोई फीस नहीं ली और न कोई अपेक्षा इन माँ-बेटे से की.
२२ बर्षों के बाद नट्टी अपने बेटे रिन्कू के साथ ईदगाह स्टेशन पर राजस्थान की ओर जाने वाली रेल गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठी है. उसकी नजरें फिर भी बाबू की तलाश में इधर उधर भटक रही हैं, कि क्या पता वह यहीं कहीं घूम रहा हो!
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जबर्दस्त, बहुत ही प्रेरणादायी कहानी। पढ़ते-पढ़ते सोच रहा था कि महिला जज तो बहुत पढ़ी लिखी थी तो तब क्यूं वो अपनी अनुभवी आंखों से नादान,बेकसूर नट्टी को पहचानने नहीं पाई कि वह निर्दोष है।
जवाब देंहटाएं*पहचान
हटाएंदुखद! पढ़लिख कर भी लोग इंसान पहचानने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर पाते बल्कि कई स्थितियों मे शिक्षा और भी अक्षम कर देती है।
हटाएंअजब, जीवट मन की लगन, न मुक्त, न रिक्त।
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