बड़े नामी शायर, निदा फाजली साहब, एक टेलीविजन चेनल द्वारा आयोजित गोष्ठी में कह रहे थे, “समय के साथ सब बदलता जाता है. नरेंद्र मोदी जी जो बारह साल पहले थे अब निश्चित तौर पर बदल गए होंगे. उनकी धार्मिक कट्टरता पहले जैसी नहीं रहेगी क्योंकि उनको देश चलाने के लिए आगे लाया जा रहा है.” विधि-विधान या भविष्य के बारे में कौन जानता है? कुछ दिन पहले ही भाजपा में नरेंद्र मोदी जी की जिस तरह नमो: नमो: और ताजपोशी की गयी, उसकी चंद दिनों में ही हवा निकल गयी. पुरानी धारणा है कि किसी व्यक्ति द्वारा किये गए सद्कर्म या दुष्कर्म ताजिन्दगी उसका पीछा करते हैं.
फेसबुक पर मेरे कुछ युवा मित्रों ने गुजरात प्रदेश के चुनावों से पहले से मोदी जी के पक्ष में धुआँधार प्रचार शुरू कर दिया था. उनका मोदीप्रेम इस कदर क्यों हुआ? अवश्य ही उन्हें मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व गहरे भा गया होगा. मुझे यों भी लगता है कि नौजवान पीढ़ी को ‘इन्कलाब’ का जूनून होता है. यह जूनून हमने अन्नाजी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध किये गए आन्दोलन में भी देखा था. अभी फेसबुक के कुछ मित्रों को जेडीयू के द्वारा भाजपा से तलाक होने पर गहरा सदमा भी लगा है.
अभी भी कौन जानता है कि संसद के अगले वर्ष होने वाले चुनावों तक क्या क्या समीकरण बनते बिगड़ते हैं. देश में जिस तरह का राजनैतिक वातावरण है उसमें कुछ भी हो सकता है.
मोदीवादियों को अवश्य अडवानी जी पर रोष होगा कि उन्होंने एक बना बनाया खेल बिगाड़ दिया है, लेकिन सोचिये अडवानी जी भी पुराने खाँटी-अनुभवी राजनैतिक कलाकार हैं. अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ती के लिए उनके पास कौन सा हथियार बचा था? मैं कहता हूँ कि बन्दर भी अगर बूढ़ा हो जाये तो कुलांट मारना और घुड़की देना नहीं भूलता है. ‘कुर्सी पकड़’ के खेल में कोई किसी का सगा नहीं होता है. मुगलों के इतिहास में बाप को जेल में डाल कर बेटा राजगद्दी पर बैठ जाता था. वैसे भी कहावत है कि प्यार में और युद्ध में सब जायज होता है. राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या स्थाई दुश्मन नहीं होता है. नेताओं को पाला बदलते देर नहीं लगती है.
संयुक्त राज्य अमेरिका को भी राजनैतिक परिपक्वता व स्थायित्व आने में पूरे दो सौ वर्षों के दौर से गुजरना पड़ा था. उसके कई तेज-तर्रार तो कोई सीधे सरल स्वभाव वाले राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल आलोचना-समालोचनाओं के बीच पूरा किया. सन १९२८ -१९३२ के बीच रहे राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर (रिपब्लिकन) के बारे में एक मजेदार किस्सा कहा जाता है कि वे किसी को किसी बात पर ‘ना’ नहीं कहते थे. एक पत्रकार ने एक बार उनके पिता से पूछा, “अपने बेटे के विषय में आपके क्या विचार हैं?” तो उन्होंने हाजिर जवाबी के साथ बात में हास्य का पुट देते हुए कहा, “अगर वह एक औरत होता तो अब तक एक दर्जन से ज्यादा बच्चे जना होता.”
यह बात इस संदर्भ में आई है कि हमारे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह जी को ‘मौनमोहन सिंह’ का ठप्पा लगाया जाता है. एक गैर राजनैतिक व्यक्ति का नाम हमारे जनतांत्रिक इतिहास में दस साल तक राज करने के लिए दर्ज हो जाये तो ये उनकी बहुत बड़ी उपलब्द्धि है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस अर्थशास्त्री को ऐसे दौर में देश का नेतृत्व सौंपा गया, जब सारा विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुजर रहा था. इसके अलावा देश की आतंरिक व्यवस्था में बड़े लूट-खसोट व भष्टाचार उजागर हुए. बदनामी तो होनी ही थी.
अब ये एक तरह से संक्रांति काल चल रहा है. वामपन्थी विचारधारा के संगठनों में भी सुगबुगाहट है, लेकिन विभिन्न संगठनों के नेताओं द्वारा कुर्सियों की चाहत में बंटी हुई/उलझी हुई है. उधर वामपन्थी कहे जाने वाले चरमपंथियों को जनतंत्र की मुख्य धारा मे लाने की हिम्मत कोई वामपंथी नेता नहीं कर रहा है. ऐसे में आम देश वासियों का दिल कैसे जीत पायेंगे?
फेसबुक पर ही मेरे एक अन्य एडवोकेट मित्र नित्य मार्क्सवाद की स्तुति व पूंजीवाद की निंदा किया करते हैं. ये माना कि साम्यवाद वैज्ञानिक आधार वाले सिद्धांतों पर खड़ा किया गया था/है, पर वह भारत की धरती पर ठीक से नहीं उग पाया है. खेती तो हल से की जायेगी बन्दूक की नोक से नहीं. राष्ट्रीय दलों की अकर्मण्यता के कारण ही क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की तरह उभर आये हैं और सत्ता की चाबी अपने पास बताने लगे हैं.
अंत में, इस वर्ष मानसून ने जल्दी दस्तक दे दी है; कुछ इलाकों में घनघोर बारिश होने लगी है. चहुं ओर उल्लास व उमंग के साथ निराशा भी है कि प्राकृतिक आपदाएं भी साथ में आई हैं.
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फेसबुक पर मेरे कुछ युवा मित्रों ने गुजरात प्रदेश के चुनावों से पहले से मोदी जी के पक्ष में धुआँधार प्रचार शुरू कर दिया था. उनका मोदीप्रेम इस कदर क्यों हुआ? अवश्य ही उन्हें मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व गहरे भा गया होगा. मुझे यों भी लगता है कि नौजवान पीढ़ी को ‘इन्कलाब’ का जूनून होता है. यह जूनून हमने अन्नाजी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध किये गए आन्दोलन में भी देखा था. अभी फेसबुक के कुछ मित्रों को जेडीयू के द्वारा भाजपा से तलाक होने पर गहरा सदमा भी लगा है.
अभी भी कौन जानता है कि संसद के अगले वर्ष होने वाले चुनावों तक क्या क्या समीकरण बनते बिगड़ते हैं. देश में जिस तरह का राजनैतिक वातावरण है उसमें कुछ भी हो सकता है.
मोदीवादियों को अवश्य अडवानी जी पर रोष होगा कि उन्होंने एक बना बनाया खेल बिगाड़ दिया है, लेकिन सोचिये अडवानी जी भी पुराने खाँटी-अनुभवी राजनैतिक कलाकार हैं. अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ती के लिए उनके पास कौन सा हथियार बचा था? मैं कहता हूँ कि बन्दर भी अगर बूढ़ा हो जाये तो कुलांट मारना और घुड़की देना नहीं भूलता है. ‘कुर्सी पकड़’ के खेल में कोई किसी का सगा नहीं होता है. मुगलों के इतिहास में बाप को जेल में डाल कर बेटा राजगद्दी पर बैठ जाता था. वैसे भी कहावत है कि प्यार में और युद्ध में सब जायज होता है. राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या स्थाई दुश्मन नहीं होता है. नेताओं को पाला बदलते देर नहीं लगती है.
संयुक्त राज्य अमेरिका को भी राजनैतिक परिपक्वता व स्थायित्व आने में पूरे दो सौ वर्षों के दौर से गुजरना पड़ा था. उसके कई तेज-तर्रार तो कोई सीधे सरल स्वभाव वाले राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल आलोचना-समालोचनाओं के बीच पूरा किया. सन १९२८ -१९३२ के बीच रहे राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर (रिपब्लिकन) के बारे में एक मजेदार किस्सा कहा जाता है कि वे किसी को किसी बात पर ‘ना’ नहीं कहते थे. एक पत्रकार ने एक बार उनके पिता से पूछा, “अपने बेटे के विषय में आपके क्या विचार हैं?” तो उन्होंने हाजिर जवाबी के साथ बात में हास्य का पुट देते हुए कहा, “अगर वह एक औरत होता तो अब तक एक दर्जन से ज्यादा बच्चे जना होता.”
यह बात इस संदर्भ में आई है कि हमारे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह जी को ‘मौनमोहन सिंह’ का ठप्पा लगाया जाता है. एक गैर राजनैतिक व्यक्ति का नाम हमारे जनतांत्रिक इतिहास में दस साल तक राज करने के लिए दर्ज हो जाये तो ये उनकी बहुत बड़ी उपलब्द्धि है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस अर्थशास्त्री को ऐसे दौर में देश का नेतृत्व सौंपा गया, जब सारा विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुजर रहा था. इसके अलावा देश की आतंरिक व्यवस्था में बड़े लूट-खसोट व भष्टाचार उजागर हुए. बदनामी तो होनी ही थी.
अब ये एक तरह से संक्रांति काल चल रहा है. वामपन्थी विचारधारा के संगठनों में भी सुगबुगाहट है, लेकिन विभिन्न संगठनों के नेताओं द्वारा कुर्सियों की चाहत में बंटी हुई/उलझी हुई है. उधर वामपन्थी कहे जाने वाले चरमपंथियों को जनतंत्र की मुख्य धारा मे लाने की हिम्मत कोई वामपंथी नेता नहीं कर रहा है. ऐसे में आम देश वासियों का दिल कैसे जीत पायेंगे?
फेसबुक पर ही मेरे एक अन्य एडवोकेट मित्र नित्य मार्क्सवाद की स्तुति व पूंजीवाद की निंदा किया करते हैं. ये माना कि साम्यवाद वैज्ञानिक आधार वाले सिद्धांतों पर खड़ा किया गया था/है, पर वह भारत की धरती पर ठीक से नहीं उग पाया है. खेती तो हल से की जायेगी बन्दूक की नोक से नहीं. राष्ट्रीय दलों की अकर्मण्यता के कारण ही क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की तरह उभर आये हैं और सत्ता की चाबी अपने पास बताने लगे हैं.
अंत में, इस वर्ष मानसून ने जल्दी दस्तक दे दी है; कुछ इलाकों में घनघोर बारिश होने लगी है. चहुं ओर उल्लास व उमंग के साथ निराशा भी है कि प्राकृतिक आपदाएं भी साथ में आई हैं.
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न जाने किस राह बढ़ेगा देश हमारा,
जवाब देंहटाएंन जाने किस चाह चढ़ेगा देश हमारा,
पकते सपने, सब के सब बन जायें अपने,
अपनों के शतयुद्ध लड़ेगा देश हमारा।
@ खेती तो हल से की जायेगी बन्दूक की नोक से नहीं.
जवाब देंहटाएं- हत्यारों के जो गिरोह इतनी सी बात भी समझना नहीं चाहते वे अपने को सत्ता का अधिकारी किस मुंह से कह सकते हैं?
@ इस वर्ष मानसून ने जल्दी दस्तक दे दी है; कुछ इलाकों में घनघोर बारिश होने लगी है. चहुं ओर उल्लास व उमंग के साथ निराशा भी है कि प्राकृतिक आपदाएं भी साथ में आई हैं.
- जी, उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा दुखद है। मेरे संवेदनाएं!