शनिवार, 29 जून 2013

धूलि-अर्घ

मेरी लिखी एक कहानी ‘दिल की लगी’ (१५-४-२०१३) में विवाह के सन्दर्भ में एक शब्द आया है ‘धूलि-अर्घ’. एक पाठक ने इसके बारे में जानकारी चाही है कि ‘धूलि-अर्घ’ क्या होता है.

हिन्दू धर्मावलंबियों में देश काल के अंतर के आधार पर विवाह करने की अनेक अलग अलग परम्पराएं हैं. पर एक बात सबमें मान्य है कि विवाह दो व्यक्तियों और दो परिवारों के बीच पवित्र बंधन होता है.

हमारे उत्तराखंडी समाज में वैदिक रीति से जो परम्परागत तरीके से विवाह होते हैं, उनमें अभी भी वैदिक कालीन विधियों का पालन किया जाता है, यद्यपि अब बहुत सी बातें अप्रासंगिक भी लगने लगी हैं.

अरेन्ज्ड मैरेज में वर तथा वधू पक्ष वाले आपस में सीधे सीधे अथवा किसी मध्यस्थ के मार्फ़त रिश्ता तय करते हैं. जन्म-लग्न चिन्ह मिलाने का विधान है, राशियों एवँ ग्रहों-गुणों का मिलान पुरोहित/पण्डित देखते हैं, और जब दोनों पक्षों का मन मेल भी हो जाता है तो विवाह का दिन-लग्न/मुहूर्त तय  किया जाता है. पर आजकल देखने में आता है कि ये सब खानापूर्तियाँ सुविधानुसार कर दी जाती हैं. लड़का-लड़की की पसन्द का और उनकी शैक्षिक योग्यता पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है. अंतर्जातीय विवाह भी खूब होने लग गए हैं.

नियम-कायदा तो यह है कि बारात ‘गो-धूलि बेला’ (सूर्यास्त से पहले) कन्या पक्ष के दरवाजे पर पहुँच जानी चाहिए. उस वक्त सूर्य भगवान को जल का अर्घ दिया जाता है क्योंकि सारी श्रृष्टि सूर्य के प्रताप से चलायमान होती है. यह व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक होती थी कि रात में गाँव/बस्तियों में प्रकाश की यथोचित व्यवस्था नहीं होती थी.

जब बारात कन्या पक्ष के घर पहुँचती है तो शास्त्रीय विधि-विधान से उसका स्वागत होता है. एक साफ़-सुथरी लिपीपुती जगह/मंडप के नीचे दोनों पक्षों के पुरोहित संस्कृत (जिसे देव भाषा भी कहा जाता है) के श्लोकों द्वारा एक दूसरे पक्षों का परिचय पूछते हैं. (यद्यपि सबको ये पहले से मालूम होता है.) वर का नाम क्या है? उसके पिता का नाम क्या है? किस गोत्रोत्पन्न है? किस प्रवर के किस शाखा से है? किस वेद का अध्यायी है? आदि आदि. दूसरे पक्ष वाला उसी तरह उत्तर देकर समाधान करता है. वेदाध्याई पूछे जाने पर ब्राह्मण को यजुर्वेदाध्यायी बताया जाता है. चाहे वर ने वेद को कभी देखा भी ना हो. पर परम्परा चली आ रही है. कन्या पक्ष के पुरोहित उसी तरह श्लोकों में कुल गोत्रादि का परिचय देते हैं. तत्पश्चात कन्या का पिता वर के पदप्रक्षालन +पूजन करता है और पुरोहित आचार्य का भी पूजन करता है. वर को उपहार (कपड़ा, घड़ी, जूता) और स्वर्ण अंगूठी प्रदान करता है. साथ ही पुरोहित को भी उसी तरह उपहार व अंगूठी से नवाजा जाता है. सूर्य को अर्घ दिया जाता है.

इस समारोह नाम ’धूलि-अर्घ’ है. यह एक तरह का परिचय+स्वागत करने का विधिवत वैदिक परिपाटी है.

आजकल शहरों में ही नहीं गावों में भी विवाह के कार्यक्रम का फिल्मीकरण हो गया है. जहां एक ओर ‘धूलि-अर्घ’ के मंत्रोच्चार होते हैं, वहीँ कानफोड़ संगीत के रिकार्ड बजते हैं. विडम्बना यह भी है कि बारात रात को ग्यारह, बारह या एक बजे लाई जाती है. तब धूलि अर्घ के कोई मायने नहीं रहते हैं. विवाहोत्सव में दिखावा बहुत हो गया है और समारोह में शराब छलकती है. इस पवित्र बंधन में जो पवित्रता होनी चाहिए वह लुप्त होती जा रही है.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आपनें सही कहा है आज केवल रस्म अदायगी भर रह गया है !!

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  2. इसे शायद बटहरी भी कहा जाता है ना

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  3. दुख है कि आज धूलिअर्घ जैसी वैवाहिक रीतियों के स्‍थान पर दिखावा अधिक हो गया है।

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  4. पुरानी परम्पराओं को छोड़, फिल्मी हो गया सब..

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