बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

चुहुल - ६१

(१)
एक व्यक्ति अपनी थुलथुल बदसूरत पत्नी के साथ सड़क पर घूमने निकला. रास्ते में काला चश्मा पहने एक फ़कीर मिला. उसने सलाम करने के बाद मैडम की तरफ मुखातिब होकर कहा, “ऐ हुस्न की मलिका, दस रूपये देती जाओ.”
पति ने उसे गौर से देखा फिर पत्नी से बोला, “दे दो, बेचारा सचमुच अन्धा है.”

(२)
एक मसखरा चरवाहा दो गायों को चरा रहा था. एक गाय सफ़ेद थी और दूसरी काली. एक राहगीर ने उससे पूछा, “तुम्हारी गाय कितना दूध देती है?”
चरवाहा: आप किस गाय के बारे में पूछ रहे हैं-- सफ़ेद या काली?
राहगीर: सफ़ेद गाय के बारे में.
चरवाहा: दो किलो.
राहगीर: और ये काली कितना दूध देती है?
चरवाहा: ये भी दो किलो दूध देती है.
राहगीर: जब दोनों ही दो दो किलो दूध देती हैं, तो अलग अलग क्यों बता रहा है?
चरवाहा: दरअसल, ये सफ़ेद गाय मेरी है.
राहगीर: और काली वाली किसकी है?
चरवाहा: काली भी मेरी है.

(३)
ऑफिस में एक कर्मचारी से कुछ ना कुछ गलती होती रहती थी. उसका बॉस अकसर उससे चिढ़ कर बात करता था. आज फिर गलती हुई तो उसे बुलाकर बॉस गुस्से में बोला, “तुमने कभी उल्लू देखा है?”
कर्मचारी कुछ नहीं बोला. सर झुकाकर खड़ा रहा. इस पर बॉस फिर बोला, “बेवकूफ नीचे क्या देख रहा है, इधर मेरी तरफ देख.”

(४)
एक पत्रकार महंगाई के बारे में लोगों की राय पूछ रहा था. सड़क के किनारे खड़े एक भिखारी बाबा से भी उसने पूछ लिया, “बाबा आटा महँगा हो गया है, इस बारे में तुम क्या कहते हो.”
बाबा ने उत्सुकता से पूछा, “कब से हुआ आटा महँगा?”
जब उसको बताया गया कि पिछले तीन महीनों में आटे का भाव दोगुना हो गया है तो वह उद्विग्नता से बोला, “इसका मतलब राशन की दूकान वाला मुझे लूट रहा है, अभी भी पुराने भाव से आटे का पैसा दे रहा है.”

(५)
ऑपरेशन के बाद होश में आने पर मरीज बोला, “डॉक्टर साहब, क्या मैं रोगमुक्त हो गया हूँ?”
उत्तर मिला, “बेटा, तेरा डॉक्टर तो नीचे धरती पर ही रह गया है. मैं चित्रगुप्त हूँ. तू रोग के साथ साथ सँसार के कष्टों से भी मुक्त हो चुका है.”
***

सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

कड़ुवा चौथ

कैंसर का रोग कोई एक दिन में पैदा नहीं होता है, और ना ही ये संक्रमण से फैलता है. इसके होने के बहुत से कारण अभी भी ठीक से मालूम नहीं हैं, पर अनेक संभावित कारण जरूर मालूम हो चुके हैं. मुँह, गला, फेफड़ा, या आमाशय के कैंसर के लिए सीधे तौर पर तम्बाकू को जिम्मेदार ठहराया जाता है. सर्वे के आँकड़े इसे सिद्ध करते हैं. इसीलिये इस विषय में दुनियाभर के सभी देश व स्वास्थ्य संगठन अपने नागरिकों को जोर देकर चेतावनी देते रहते हैं कि ‘तम्बाकू सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकर होता है.’ लेकिन जिन लोगों को तम्बाकू की लत लग जाती है, उन पर चेतावनियां तब तक बेअसर रहती हैं, जब तक वे बीमारी की जकड़ में नहीं आते हैं.

बाबूलाल यादव की अच्छी भली गृहस्थी चल रही थी. नौकरी से रिटायरमेंट भी ज्यादा दूर नहीं था. बेटा-बेटी दोनों सयाने हो गए, पढ़ाई पूरी कर ली, तथा उपयुक्त नौकरी की तलाश कर रहे थे. सुलक्षणी पत्नी विद्याधरी बच्चों की नौकरी व शादी-ब्याह के सपने संजोये हुए आम भारतीय मध्यवर्गीय गृहिणी की तरह पूरी तरह पति पर आश्रित थी.

बाबूलाल यादव तम्बाकू-खुशबूदार किमाम लगे पान खाने का शौक़ीन था. दिनभर में दो पान तो जरूरी होते थे. घर के नजदीक पनवाड़ी का खोमचा था, सो उपलब्द्धता भी आसान थी. कहते हैं कि ‘जैसी हो होतव्यता, तैसी आवै बुद्धि’. ऐसा ही हुआ. तम्बाकू सेवन के खतरनाक परिणाम जानते/सुनते हुए भी उसने चेतावनियों को कभी गंभीरता से नहीं लिया. परिणामस्वरूप गला खराब रहने लगा. खारिश से शुरू हुई तकलीफ खाँसी, बुखार, गला दर्द तक जब बढ़ गया, तब डॉक्टर की शरण ली. डॉक्टर होशियार था. अलामात देखते ही बाबूलाल को ई.एन.टी. स्पेशलिस्ट के पास भेज दिया, जिसने तुरन्त बायोप्सी करवाने की सलाह दी.

बायोप्सी में मैलिंग्नैन्सी की पॉजिटिव रिपोर्ट आने पर पति-पत्नी दोनों के हाथ पाँव फूल गए क्योंकि कई कैंसर से पीड़ित लोगों की हालत उन्होंने देखी थी. अब जाकर बाबूलाल को तम्बाकू के विरुद्ध चल रहे अभियान का महत्व समझ में आ रहा था. उसको ये भी मालूम हो रहा था कि अन्जाम क्या होने वाला था. जीने की उम्मीद में आदमी आख़िरी साँस तक ईलाज कराता है. उसे रुग्णावस्था में मध्यप्रदेश के ग्वालियर स्थित कैंसर अस्पताल में ले जाया गया. बड़ी सिफारिशें लगाकर वहाँ भर्ती कर दिया गया. चूँकि भोजन नली चोक होने लगी थी इसलिए नाक में एक रबर नाली डालकर सिरिंज द्वारा तरल भोजन डाला जाने लगा. कीमोथेरेपी के सेक दिये जाने लगे, जिससे सारे बाल झड़ गए तथा बेहद कमजोरी हो गयी. डॉक्टर बता रहे थे कि लिम्फ सेल और प्लेटलेट्स की मात्राएँ खतरनाक स्थिति तक पहुँची हुई हैं.

इधर नौकरी से रिटायरमेंट की तारीख आ गयी इसलिए अस्पताल से छुट्टी लेकर बीमारी हालत में ही एक दिन के लिए ड्यूटी जॉइन करके ऑफिस सम्बन्धी बहुत सी कागजी कार्यवाही पूरी करनी पड़ी. पुन: अस्पताल जाने से पहले बाबूलाल ने विद्याधरी से कहा, “देख, अब आगे ईलाज मत करवा. ये बीमारी ठीक होने से तो रही और तू खर्चा करते करते सड़क पर आ जायेगी.”

विद्याधरी के पास जवाब में आंसुओं के सिवाय कुछ भी नहीं था. वह बोली, “ईलाज कैसे बन्द कर सकते हैं. आप खर्चों की बिलकुल चिंता न करें. आपका ही कमाया हुआ रुपया है. रूपये आपकी जान से बड़े थोड़े ही हैं.” इस तरह दम दिलासा देते हुए पुन: अस्पताल की शरण में आ गए. पर बाबूलाल की हालत दिन पर दिन खराब होती गयी. उसका पूरा पाचन तन्त्र बिगड़ गया था. साँस लेने में तकलीफ होने लगी तो श्वसन नली में छेद करके गर्दन में से अलग नली लगा दी गयी. एक दिन डॉक्टर ने विद्याधरी को अलग से बुलाकर कह दिया, “तुम इसे घर ले जाकर जितनी सेवा कर सको करो. यहाँ अब कोई सुधार होने वाला नहीं है. तुम्हारा बिल यों ही बढ़ता जा रहा है.”

इस प्रकार तीन महीने अस्पताल में रख कर बाबूलाल को बुरी हालत में घर वापस लेकर आ गए. दवाओं व अस्पताल के खर्चे का भुगतान करने में उसकी ग्रेच्युटी व प्रोविडेंट फंड का सारा रुपया लग गया. घर में सब तरफ उदासी थी. मित्र तथा रिश्तेदार मातमपुर्सी के लिए आने लगे. ऐसा दिन भगवान किसी को न दिखाए, पर जीवन-मृत्यु तो इंसानों के वश में नहीं होता है. बाबूलाल की हालत बद से बदतर होती गयी. मुँह से दुर्गन्ध आने लगी. बेचारी विद्याधरी उसकी हर कराह पर जागती और शरीर को सहलाती रहती थी. शारिरिक कष्ट तो मरीज को खुद सहना पड़ता है, उसे कोई बाँट नहीं सकता.

इस बीच नवरात्र आये, दशहरा आया, विद्याधरी सभी देवी-देवताओं से अपने पति की सलामती की गुहार लगाती रही, पर उसके पति की वेदना घटने का नाम नहीं ले रही थी. वह कई बार चेतनाशून्य रहने लगा. बिस्तर खराब तो वह बहुत दिनों से करने लगा था. मरीज से ज्यादा तीमारदार की हालत खराब होती है. कभी कभी तो बाबूलाल की तड़प को देखकर वह सोचने लग गयी कि ‘परमेश्वर अब उसको मुक्ति दे दे तो अच्छा होता’.

आज करवाचौथ है. सभी सुहागिनें सजी-संवरी हाथों में मेहंदी लगाए हुए अपने अपने पतियों की लम्बी उम्र की दुआएं माँग रही हैं. गत वर्ष इस दिन विद्याधरी भी उल्लासपूर्ण थी, पर इस बार मृत्युशय्या पर पड़े पति को देखकर आँखें भर आ रही हैं. कुछ दिनों पहले जब बाबूलाल होश में था और खिसिया खिसिया कर कुछ बोल ले रहा था तो उसने विद्याधरी से कहा था, “मैं मरने लगूं तो एक तम्बाकूवाला पान जरूर मेरे मुँह में डाल देना.” पता नहीं उसने ये बात किस तुफैल में कही थी, विद्याधरी को लगा कि उसको तम्बाकू की तलब बाकी थी. अन्तिम इच्छा समझ कर वह डरी डरी सी पनवाड़ी के खोमचे तक गयी और उससे एक तम्बाकू वाला पान लगाने को कहा. पनवाड़ी को क्या मालूम था कि ये बाबूलाल की अन्तिम इच्छा. उसने तो खुश होकर तम्बाकू-किमाम का पान लगाया, और विद्याधरी से बोला, “बाबू जी को हमारी याद आ ही गयी.”

ठीक उसी समय जब बाहर चन्द्रदर्शन हो रहे थे तो विद्याधरी ने अपने पति के मुँह में पान डाल दिया और अपने फर्ज से मुक्त हो गयी.
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शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

नामगाँव का भोलू

जगदीश हलवाई को नामगाँव के लोग जग्गू सेठ के नाम से ही ज्यादा जानते थे. वह अपनी चौक पर स्थित मिठाई की दूकान पर टाट की बनी चौड़ी गद्दी पर विराजमान रहता था. बिक्री से जो रुपयों के नोट आते थे उनको एक लकड़ी के छोटे से बक्से में और सिक्कों को टाट पलट कर डाल देता था और सिक्कों के ऊपर आसन लगाए रहता था.

नामगाँव में एक बहुत पुराना शिव मन्दिर है और उसके बगल में शिव जी के मित्र कुबेर का मन्दिर भी बना था. मान्यता है कि कुबेर देवताओं के खजांची हैं. दीपावली में लक्ष्मी पूजा के बाद कुबेर की भी आरती उतारी जाती है. उसी उपलक्ष्य में पूजा अर्चना और मेला लगा करता था.

 हर साल की तरह मेला जुटा था. जग्गू सेठ की दूकान पर मिठाइयों की थालें सजी हुई थी. पेड़े, लड्डू, कलाकंद, रसगुल्ले, गुलाब जामुन, बर्फी, गुझिये, खुरमा, बालूशाही, इमरती, जलेबी, आदि तरह तरह की रंगीन मिठाइयाँ चांदी का वर्क चढ़ाकर सीढ़ीनुमा पटलों हरी चादरों पर रखी हुए थी. चमकीली वन्दनवारों की लड़ियाँ हवा में झूलती, घूमती, लहराती अपनी छटा बिखेर रही थी. मधुमक्खियों को भगाने के लिए तीन चार जगह धूप-अगरबत्ती जल रही थी.

बात पुरानी है. तब लोग मिठाइयों में मिलावट की कल्पना भी नहीं करते होंगे. खत्तों से दूध मंगवाकर कारीगर १५ दिन पहले से उसे घोट घोट कर मावा खुद बनाया करते थे. जगदीश और उसका बेटा खुद भी जी-जान से जुटे रहते थे. मेले के ख़त्म होने तक सारा माल बिक भी जाता था. अगर कुछ बच गया तो उसे जग्गू सेठ अपने भंडारे में बाँट दिया करता था. वह हर साल दिवाली मेले के बाद पूरे गाँव को जीमण दिया करता था. जगदीश हलवाई बहुत नम्र और दयावान व्यक्ति था. इसलिए भी सब लोग उसे सम्मान दिया करते थे.

वो सस्ता ज़माना भी था. तब चीनी चार रूपये प्रति सेर और दूध एक रूपये का दो सेर मिला करता था. वनस्पति घी या रिफाइंड तेलों का नाम किसी ने सुना भी नहीं था. सारे पकवान सरसों/मूंगफली के तेल में या शुद्ध घी में बनते थे. मिठाइयाँ भी आठ-दस रुपया प्रति सेर से ज्यादा नहीं हुआ करती थी.

गाँव मे अमीर कम, गरीब लोग ज्यादा रहते थे. आवश्यकताएं आज की तरह असीमित नहीं हुआ करती थी. वार-त्यौहार सभी का मनता था. सबके बच्चे मेले में जाते थे. गुब्बारे, कागज़ की चक्री-फिरकनी, बांसुरी, छोटे-छोटे खिलोने, हाथ में नकली घड़ी, आँखों में पारदर्शी रंगीन कागज़ के चश्मे, चूड़ी, चरेऊ, माला, फुनगे, बिंदी, नेल पालिश, रुमाल आदि आम चाहत की चीजें मेले में होती थी. दूर शहर से भी कुछ व्यापारी खील-खिलौने, बर्तन व कपड़े जैसी आम जरूरत की चीजें लाकर अपने अपने तम्बू तान कर दूकान लगा लेते थे. कुल मिलाकर इन दिनों नामगाँव में बड़ी रौनक हो जाती थी. माता-पिता या दादा दादी अपनी औकात के अनुसार अपने लाड़लों को रुपया पैसा खर्च करने के लिए देते थे. बच्चे बहुत दिनों से मन बनाए रखते थे कि उनको अबके मेले से क्या खरीदना है. बच्चों को सचमुच बहुत कौतुक होता था.

बच्चों की भीड़ से अलग एक लड़का था भोलू. जिसको उसके दादा ने मेला खर्च के लिए इस बार एक रुपया दिया था. उस एक रूपये के विनिमय के बारे में भोलू ने किसी को कुछ नहीं बताया, पर उसके मन में एक तूफानी योजना पल रही थी.

आजकल के बच्चे तो पैदा होने के थोड़े समय बाद ही मोबाईल, लैपटाप, कंप्यूटर, टीवी आदि के संचालन के जानकार हुआ करते हैं और इनका आईक्यू बड़े बड़ों को मात देता है, लेकिन तब ऐसा बिलकुल नहीं था गाँव के अधिकाँश बच्चे दब्बू और बाहरी दुनिया से बेखबर रहते थे. जो बातें अपने घर में सुना करते थे उनको ही अपना आदर्श मानते थे. गरीब आदमी के घर अकसर रूपये-पैसे की बातें होती रहती हैं, भोलू के दादा हमेशा सांसारिक बातों को घुमा-फिरा कर कहा करते थे, “रूपये को रुपया खींचता है.” ये बात भोलू के मन में गहरे बस गयी थी. वह सोचा करता था जब उसके पास रुपया हो जाएगा तो उसका रुपया अन्यत्र से रुपया खींचता रहेगा और मौज हो जायेगी. गरीब का एक ही सपना होता है--अमीर बनना.

आज भोलू बहुत खुश था उसकी जेब में एक पूरा कलदार रुपया था. उसको वह खर्च करने के बजाय अन्यत्र से रुपया खींचने में इस्तेमाल करेगा, ऐसा मन बना कर वह मेला स्थल पर चला गया. उसने अकेले ही सारे मेले का मुआयना किया और अंत में जग्गू सेठ की दूकान पर उसकी गद्दी के नजदीक आकर ठिठक कर खड़ा हो गया. वहाँ मिठाई की दनादन बिक्री और रुपयों-पैसों की आमद देख कर उसके मुँह में कई बार तरल थूक जमा हुआ और वह निगलता रहा. जब तब जग्गू हलवाई बोरी पलटकर रूपये-रेजगारी नीचे डालता था भोलू के मन में खनखनाहट होने लगती थी.

रूपये को रुपया खींचेगा ये इरादा करके उसने अपनी निकर की जेब के रूपये को बड़ी देर से मुट्ठी में भींच रखा था, जिससे हथेली में पसीना हो आया था. उसने मौक़ा देखकर रुपया सहित हाथ बाहर निकाला. सोचा, उसका रुपया चुम्बक की तरह ही सेठ के गल्ले से एक एक करके सिक्के खींचेगा तो मजा आ जायेगा. चूँकि ये चोरी थी इसलिए दिल धक धक भी कर रहा था. जब जब सेठ मिठाई तौलने के लिए हिलता और पीठ गल्ले की तरफ रखता भोलू अपना रुपया गल्ले की तरफ बढ़ाता ताकि वहाँ से रूपये खींचे जा सके, पर ये बालक की गलतफहमी थी, सिक्के तो खिंच कर नहीं आये, उलटे उसका रुपया गल्ले की तरफ गिर पड़ा.

भोलू रोने लगा तो स्वाभाविक रूप से वहाँ उपस्थित लोगों तथा खुद जगदीश हलवाई का ध्यान उस पर गया. रोने का कारण पूछा तो उसने सुबकते हुए अपनी चोरी करने के इरादे की दास्तान सच सच कह दी कि वह रूपये से रुपया खींचना चाहता था क्योंकि उसके दादा जी कहा करते हैं कि "रूपये को रुपया खींचता है."

उसके भोलेपन पर सभी उपस्थित लोग खिलखिलाकर हँस पड़े. एक व्यक्ति बोला, “तेरे दादा ने ठीक ही तो कहा. देख तेरे रूपये को सेठ जी के रुपयों ने खींच लिया है.”

जगदीश हलवाई को बालक के भोलेपन पर बड़ी दया आयी उसने पाँच रूपये भोलू को देते हुए कहा, “ये ले, तेरे रूपये ने ये खींच लिए हैं. खुश रह, पर आइन्दा इस तरह खींचने की कोशिश मत करना.”
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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

जिंदगी के साथ भी और...

भारतीय जीवन बीमा निगम का एक आकर्षक विज्ञापन है, ‘जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी’. बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के कार्य काल में सन १९६९ में हुआ था. इससे पहले बहुत सी बीमा कंपनिया देश में अपना कारोबार स्वतंत्र रूप से किया करती थी, पर उनकी इतनी विश्वसनीयता नहीं थी क्योंकि कई बार क्लेम्स के भुगतान के समय चूंकि, चुनांचे, या पर लगाकर कुन्नटबाजी होती थी, फिर भी प्रबुद्ध लोग अपने परिवारों को आर्थिक सुरक्षा-छत्र देने के लिए रिस्क कवर के नाम से जीवन बीमा कराते थे. इसे अनिवार्य बचत के रूप में भी मानते थे. यद्यपि बचत के रूप में जब रकम का गुणा-भाग किया जाता है तो ये बहुत घाटे का सौदा होता है. इसमें रूपये का अवमूल्यन बड़ा फैक्टर है. कहने को ये भी कहा जाता है कि बीमा में नियोजित राशि पर इनकम टैक्स में छूट मिलती है, पर ये नगण्य होती है. यदि कोई बीमित व्यक्ति असमय मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उसके आश्रितों को अवश्य करार के अनुसार पूरी रकम मिल जाती है.

सन १९६१ में नौकरी पर कनफर्म होते ही बीमा के एजेंट मेरे पीछे भी पड़ गए और पहला बीमा पाँच हजार रुपयों का तीस साल के लम्बे करार पर करा लिया. तब पाँच हजार रूपये आज के पचास हजार से ज्यादा मायने रखते थे. १५० रूपये वेतन में से १३ रूपये ४५ पैसे मासिक देना सहज नहीं लगता था, लेकिन जब गाड़ी चल पड़ी तो सैलरी सेविंग स्कीम के तहत यह रकम वेतन में से कट कर सीधे जमा होती होने लगी. उसके बाद के वर्षों में ज्यों ज्यों वेतन बढ़ा, मैंने फिर से तीन छोटी छोटी पॉलिसीस लेकर कुल १५ हजार का जीवन बीमा करा लिया. ये सभी पॉलिसीस सेलरी सेविंग स्कीम के तहत ही ली गयी. नई पॉलिसीस इस बात को ध्यान में रख कर ली कि बच्चों की पढ़ाई के वक्त काम आये.

सन १९७० में मेरा स्थानांतरण लाखेरी (राजस्थान) से कर्नाटक राज्य के शाहाबाद (गुलबर्गा) को हुआ, जहाँ मैं ठीक चार साल तक रहा फिर लौट कर वापस लाखेरी आ गया. शाहाबाद में भी मेरी चारों पॉलिसीस की किश्तें नियमित हर महीने वेतन में से कटती रही. बीमा सम्बन्धी खाते-कागजात भी राजस्थान के अजमेर डिविजन से हैदराबाद डिविजन में जाकर चार साल बाद वापस अजमेर आ गये. सब सामान्य चला. तीन छोटी पॉलिसियों के मैच्योर होने पर उनकी पूरी रकम बोनस सहित मुझे मिल भी गयी. लेकिन बाद में सन १९९० में जब ५००० रुपयों वाली पहली पॉलिसी मैच्योर हुई तो उसके पेमेंट में अडंगा लग गया कि सन १९७०से १९७४ के बीच जब मैं शाहाबाद रहा मेरी इस पॉलिसी की रकम खातों में नहीं दर्शाई गयी थी यानि जमा नहीं हुई बताई गयी.

सन १९९० तक जीवन बीमा निगम सागर से महासागर बन चुका था, लेकिन कार्यालय आज की तरह कम्प्यूटराइज्ड नहीं थे. हमारा क्षेत्रीय कार्यालय बूंदी आ गया था. बहुत लिखा पढ़ी करने के बावजूद भी मिसिंग किश्तों को नहीं जोड़ा जा सका. मैंने अपनी शाहाबाद वाली पे-स्लिप प्रमाणस्वरूप दी, पर निगम द्वारा उनका कन्फर्मेशन नहीं कराया जा सका क्योंकि तब तक शाहाबाद का हमारा कारखाना किसी अन्य पार्टी को बेचा जा चुका था.

जीवन बीमा निगम के स्थानीय डेवलपमेंट ऑफिसर स्वर्गीय त्रिवेदी ने आश्वासन दिया कि वे अजमेर कार्यालय से इसका सैटलमेंट करवा लेंगे, पर उसी बीच उनका स्थानातरण अन्यत्र हो गया. मामला टलता देख कर मैंने जीवन बीमा निगम के विरुद्ध जिला उपभोक्ता संरक्षण कमेटी को न्यायार्थ पेश कर दिया, लेकिन पूरे एक साल तक उस कमेटी की कोई मीटिंग नहीं हुई. इसी बीच बूंदी की जीवन बीमा निगम की शाखा प्रबंधक के रूप में मेरे एक परिचित-हितैषी व्यक्ति बाबूलाल पारेख (जो लाखेरी के ही रहने वाले हैं) आ गए. उन्होंने मेरे केस में अपनी रूचि दिखाई. मेरी मूल फ़ाइल ले ली और मुझसे उपभोक्ता संरक्षण से अपनी शिकायत वापस लेने को कहा तथा अटकी हुई राशि का भुगतान करने का पूर्ण आश्वासन दे दिया. तदनुसार मैंने केस वापस लेकर भुगतान के लिए इन्तजार किया, पर अफ़सोस तब हुआ जब केस की मेरी फ़ाइल कहीं गायब हो गयी. पुन: उपभोक्ता संरक्षण में वाद ज़िंदा करना चाहा, पर तब तक वह टाइमबार हो चुका था.

इस प्रकार मुझे अधूरे पेमेंट पर सन्तोष करना पड़ा. ये सारी कार्यवाही जीवन बीमा निगम के प्रति जिंदगी के साथ एक कड़वाहट मन में छोड़ गयी, जिंदगी के बाद की क्या बात की जाये?
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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

बेचारगी

गोविन्दराम को भगवान ने शक्ल तो रईसों जैसी दी है, पर किस्मत गरीबों वाली दी है. वह एक देहात में रहता है. ताबड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता है. उसकी पत्नी रज्जो उसे उलाहना देती रहती है कि उसके पास कभी भी एकमुश्त ५०० रुपयों का पीला नोट जमा नहीं हो सकता है, पर मजबूरी है, वह चोरी नहीं करना चाहता और कोई चमत्कार भी होने वाला नहीं है. मास्टर जी से उसने दो-तीन बार शहर से लॉटरी के टिकट मंगवाए. बाद में उसे ये मालूम हुआ कि लॉटरी में भी फर्जीवाडा चलता है. सोचता है कि जब किस्मत में ही नहीं है तो व्यर्थ इस तरह क्यों सोचा जाये, लेकिन मन तो मन है, उड़ान भरता ही रहता है.

इस बार जब ग्राम प्रधान ठा. जयपालसिंह ने उसको अपने नए मकान की नींव खोदने का ठेका दिया तो उसको लगा कि अब वह रज्जो को ५०० के नोट देकर उसका मुँह बन्द कर देगा. उस रात वह सपने में भी पीला नोट देखता रहा और सुबह जाकर जयपालसिंह से पेशगी में ५०० रुपयों का एक नोट ले ही आया. खुशी खुशी रज्जो से बोला, “ये ले, अब मत कहना कि पीला नोट अपने पास नहीं आ सकता है.”

रज्जो बहुत खुश हो गयी और उसने उत्साहित होकर नोट ले लिया. गोविन्द ने कहा, “अरे पगली, अब तो बड़ा काम मिल गया है. ऐसे नोट आते ही रहेंगे. देखना एक दिन हजार का लाल नोट तेरे खीसे में डाल दूंगा.” रज्जो भी बड़े सपने देखने लगी कुछ सोच कर बोली, “आप इस नोट को शहर जाकर बैंक में जमा कर आओ. कहते हैं कि बैंक में रुपयों पर ब्याज जुड़कर रकम बढ़ती जाती है.”

गोविन्दराम ने इस तरह कभी सोचा भी नहीं था. रज्जो के कारोबारी दिमाग की बात उसको भीज गयी. ‘दौलत तो ऐसे ही बढ़ती है,’ यह सोचकर उसने खुदाई का काम शुरू करने से पहले बैंक जाने का कार्यक्रम बना डाला. चचेरे भाई हरिराम से साइकिल मांगकर सीधे पाँच किलोमीटर दूर शहर में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की शाखा में पहुँच गया. वह इससे पहले कभी बैक में नहीं गया था, या यों कहिये उसको कभी बैंक की जरूरत नहीं पड़ी थी. वह बैंक के तौर तरीकों के से भी परिचित नहीं था. उसको ताक-झाँक करते देखकर बैंक के चौकीदार ने उससे पूछा, “क्या बात है, क्या चाहिए?” तो गोविन्द ने बताया कि वह बैंक में रूपये जमा करना चाहता है. चौकीदार ने गाइड की तरह उसको समझाते हुए बताया कि पहले अपना खाता खोलना पड़ेगा. खाता खोलने के लिए फोटो परिचय पत्र होना चाहिए, राशनकार्ड लाना होगा, इसके अलावा कोई पहचान वाला व्यक्ति भी होना चाहिए, जो पहले से बैंक का खातेदार भी हो. ये सब सुनकर गोविन्दराम सकते में आ गया. सोचने लगा ये सब तो बड़ी आपदा वाली बात है. उनकी आपसी वार्ता सुन रहे बैंक के एक बाबू ने कहा, “तू अपना राशन कार्ड ले आ, यहाँ की सब कागजी कार्यवाही हम कर देंगे।” उसकी बात से उत्साहित होकर गोविन्दराम ने साइकिल से फिर एक फेरा अपने गाँव का लगाया और अपना राशन कार्ड लेकर बाबू के पास पँहुच गया. बाबू बोला, “तू अपनी दो पासपोर्ट साइज की फोटो खींच कर ले आ और राशन कार्ड की फोटोस्टेट भी करा ला.” गोविन्दराम जितना आसान समझ रहा था ये सब प्रक्रिया उतनी आसान थी नहीं. आखिर जब खाता खोलने की ठान ही ली तो ५०० का नोट तुडवा कर पचास रुपयों में तीन फोटो खिंचवाई और चार रुपयों में राशन कार्ड की फोटोस्टेट कराई, तब जाकर बाबू ने ४४५ रुपयों से उसका बचत खाता खोल दिया. बैंक के मैनेजर ने उसको ये भी समझाया कि खाते में हमेशा कम से कम २०० रुपयों का बैलेंस रहना अनिवार्य है. ये सुनकर गोविन्दराम पुन: पेशोपेश में पड़ गया, लेकिन अब रूपये तो जमा हो चुके थे. उसके ५०० रुपयों के पीले नोट का ब्याज सहित जो नक्शा मन में बना था वह ध्वस्त हो गया.

बैंक के काउंटर पर ग्राहकों की भीड़ बढ़ रही थी. हजारों लाखों रुपयों का लेनदेन गोविन्दराम अपनी आँखों से देख रहा था. वह सोचने लगा कि थोड़े से ब्याज के लालच में वह यहाँ आ फंसा है. वह अपने मन को तसल्ली देने लगा कि रूपये तो और भी कमाते रहेगा. अब जब सब काम हो गया और उसकी पासबुक उसको थमा दी तो अचानक उसके मन मे आया कि घर लौटते समय उसे रज्जो की चाहत की मिठाई जलेबी तथा अपने लिए एक रम का पव्वा ले जाना चाहिये. किन्तु अब जेब में केवल एक रूपये का सिक्का बचा था. उसने बहुत सोचा फिर बाबू से धीरे से पूछा, “क्या मैं अभी अपने रुपयों में से कुछ निकाल सकता हूँ?” बाबू उसकी बात सुनकर मुस्कुराया और अपनी बगल में बैठे हुए दूसरे बाबू को बताने लगा, “इस आदमी ने अभी अभी बचत खाता खोला है और अब रूपये निकालने की बात कर रहा है.” सुनने वाले बाबू ने कुटिल हँसी के साथ शरारत भरी नजरों से गोविन्दराम को देखा और बोला, “पूरे ही क्यों नहीं निकाल लेता है?”

गोविन्द को उसका कटाक्ष अन्दर तक घायल कर गया. उसने बाबू से फिर कि कहा रूपये निकालने की स्लिप भर दें.

बाबू ने बेरुखी से जवाब दिया, “स्लिप भरना भी नहीं आता है तो क्यों बैंक के चक्कर में पड़ा है?” गोविन्दराम ने अन्दर ही अन्दर अपमानित महसूस किया और बोला, “बाबू जी, आप ठीक कहते हैं. इस चक्कर में मेरी आज की ध्याड़ी भी खराब हो गयी है. आप मेरा खाता बन्द करके रूपये लौटा दीजिए.”

बाबू बड़ी हिकारत से बड़बड़ाया, “आ जाते है खाता खोलने, यों ही फालतू काम बढ़ा दिया है.” जल्दी जल्दी एक अर्जी लिखकर हस्ताक्षर करवाए. मैनेजर से स्वीकृति ली और २० रूपये काट कर ४२५ रूपये कैशियर ने वापस कर दिये. इस बीच बैंक के पूरे स्टाफ को गोविन्दराम का किस्सा मालूम हो गया. वे सब चटखारे के साथ उसका मजा ले रहे थे. गोविन्दराम हँसी का पात्र बन कर रह गया था.

चौकीदार से नजरें चुराते हुए गोविन्दराम बैंक से बाहर निकल आया तब जाकर उसने राहत की साँस ली. बाजार की तरफ जाकर हलवाई की दूकान से पाव भर जलेबी और शराब की दूकान से एक पव्वा रम का लेकर आजाद पंछी की तरह साइकिल पर पैडल मारते हुए थका हारा जब घर पहुँचा तो रज्जो ने व्यग्रता से पूछा, “हो गया बैंक का काम?”

वह बोला, “हाँ, हो गया. ये ले, जलेबी खा.”

उसके बाद उसने रज्जो को सारी रामकहानी कह सुनाई. बचे हुए ३२० रूपये दिये और अपना ताजा फोटो भी दिखाया. वे दोनों जलेबी खाते हुए एक दूसरे का मुख देखते रहे और फिर से पीले नोट के ख्वाब देखने लगे.
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रविवार, 20 अक्टूबर 2013

ये सूखी झील सी आँखें

आँखें बहुत बड़ी नियामत होती हैं. इनके महत्व को वे ज्यादा अच्छी तरह महसूस करते हैं जो दृष्टिहीन होते हैं या दृष्टिहीन हो जाते हैं. यदि हम केवल दस मिनट तक ही दोनों आँखें पूरी तरह बन्द करके इस त्रासदी के बारे में सोचें/देखें जिसे दृष्टिहीन लोग जीवन भर भोगते हैं, तो भय लगता है.

कुछ लोग जन्मजात नेत्रहीन होते हैं और बहुत से लोग दुर्घटना या रोगग्रस्त होकर अपनी दृष्टि खो देते हैं. ये दुर्भाग्य अनादिकाल से इस धरती पर विद्यमान रहता आया है. अब जब मनुष्य जागरूक हुए हैं तो इसके निवारण के विषय बहुविध सोचने को बाध्य हुये हैं. ऐसा लगता है कि दृष्टिहीनता को कोई अभिशाप कहना भी उचित नहीं है. दृष्टिहीन लोगों की एक छठी इन्द्रिय अपने आप जागृत हो जाती है, जो वैकल्पित ज्ञान की संवेदनाएं प्रदान करने लगती हैं.

होमर, मिल्टन व सूरदास नैसर्गिक प्रतिभा के महान कवि हुए हैं. इसी तरह अनेक दृष्टिहीन संगीतकार व आध्यात्म के पण्डित भी हुए हैं, जिन्होंने अपनी कला व विद्वता से समाज को दिशा देने के प्रयास किये हैं.

सत्रहवीं शताब्दी में इटली के जेसूट फ्रांसिस्को ने नेत्रहीनों के लिए पढ़ने-लिखने की विधि निकालने की कोशिश की. बाद में फ्रांस के एक दृष्टिहीन व्यक्ति लुई ब्रेल (१८२१-१८५२) के पिता घोड़ों की जीन बनाने का काम करते थे. बालक लुई महज पाँच साल की उम्र में उसके साथ काम करते हुए या लकड़ी से खेलते हुए अपनी एक आँख को चोटिल कर गया. सही ईलाज नहीं मिलने से आँख में संक्रमण हो गया और वह खराब हो गयी. तीन साल के अन्दर धीरे धीरे दूसरी आँख की रोशनी भी चली गयी. बाद में लुई ब्रेल को एक अन्ध विद्यालय में पढ़ने पेरिस भेज दिया गया, जहाँ वह कालान्तर में सहायक अध्यापक भी रहा..

ब्रेल प्रतिभावान था. उसने दृष्टिहीनों के पढ़ने लिखने के लिए एक नई लिपि को जन्म दिया, जिसमें अँगुलियों के पोरों से अक्षरों के लिए कोड के रूप में उभार बिंदु बनाए गए हैं. आजकल हर भाषा उसी आधार पर अपने अल्फाबेट्स/ स्वर-व्यंजनों के कोड बन गए हैं. इस लिपि को ‘ब्रेल लिपि’ कहा जाता है. अन्ध विद्यालयों के बच्चे थोड़ा सा अभ्यास करके ब्रेल लिपि में पढ़ना लिखना बखूबी सीख लेते हैं. ब्रेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दी गयी है. भारत में सन २००९ में ब्रेल के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था.

कई नेत्रहीन व्यक्तियों को नेत्र प्रतिरोपण से भी दृष्टि प्राप्त हो जाती है. इसके लिए कई दृष्टिवान लोग मरणोपरांत अपने नेत्रदान करते हैं.

आज के इस वैज्ञानिक युग में इलैक्ट्रोनिक्स के बहुत चमत्कारिक प्रयोग किये जा रहे हैं. एडवांस मेडीकल साइंस में सेंसर लगी हुई इलैक्ट्रोनिक आँखों को दिमाग से जोड़ने का सद्प्रयास चल रहा है. वह दिन दूर नहीं जब नेत्रहीन व्यक्ति दृष्टिहीन नहीं रहेंगे.
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शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

ठाटिया से पाँच सितारा तक

जी.आई.सी. अल्मोड़ा में इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के बाद सन १९५६ में अपने साथ के कुछ लड़कों के साथ जाकर मैंने भी एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज में अपना नाम रजिस्टर करवाया था. वहाँ से कुछ ही समय बाद ‘ग्राम सेवक’ के पद के लिए मेरे पास भी कॉल लेटर आ गया था. अल्मोड़ा में उन दिनों खूब ठण्ड पड़ रही थी. मैं अपने गाँव से तिब्बती ऊन की एक गरम पंखी लेकर इन्टरव्यू की पहली शाम को अल्मोड़ा शहर पहुँच गया. किसी रिश्तेदार के घर न जाकर इस बार किसी होटल में ठहरने का इरादा किया था.

माल रोड पर जहाँ गाँधी जी का मूर्ति है, उसके निकट ही सड़क से लगा हुआ एक लकड़ी का बना ठाटिया होटल था. होटल वाला छोटी सी भट्टी बना कर चाय भी बेचता था. उससे बात करके ५ रूपये किराये में मैंने ऊपर वाली मंजिल का कमरा ले लिया. किसी होटल में ठहरने का ये मेरा पहला अनुभव था. होटल वाले ने बिस्तर के लिए पूछा तो मैंने मना कर दिया क्योंकि मेरे पास पंखी थी. कमरे में एक निवाड़ से बुनी हुई चारपाई के अलावा कोई सामान नहीं था. मुझे एक ही रात काटनी थी. मन में बहुत उत्साह था, पर नीद नहीं आ रही थी. ज्यों ज्यों रात गहराती गयी सर्दी भी बढ़ती गयी. जब कंपकंपी छूटने लगी तो मैंने स्वेटर सहित पूरे कपड़े पहने और पंखी ओढ़ कर उकडू बैठ गया. एक २५ वाट का बिजली का बल्ब था, जो कमरे को प्रकाश व गर्मी तथा मुझे तसल्ली दे रहा था. लकड़ी के तख्तों वाले उस फर्श पर चूहों की धमाचौकड़ी देखने को नहीं होती तो मेरा तब रात काटना मुश्किल जरूर होता.

बहरहाल, सुबह चार बजे बाहर चायवाली भट्टी में लकडियाँ जलने लगी थी. मैं आग सेकने वहां चला गया. बाद में अपनी ड्राईक्लीनिंग करके एम्प्लायमेंट एक्सचेंज चला गया. वहां सब ठीक ठाक हो रहा था, पर मेरे सर्टिफिकेट के अनुसार मेरी उम्र तब पूरे अठारह वर्ष होने में कुछ महीने बाकी थी अत: मेरा चयन नहीं हुआ. अन्यथा मैं भी अपने अन्य साथियों के साथ ग्राम सेवक बन गया होता और आज एडीओ/बीडियो बनकर रिटायर हुआ होता.

दाना-पानी आदमी को कहाँ से कहाँ ले जाता है इसका किसी को पता  नहीं रहता है.
कालान्तर में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय होता हुआ ए सी सी सीमेंट कम्पनी में नौकरी करते हुए  कर्मचारी युनियन का महामंत्री/ अध्यक्ष बनाया गया तो अपने जीवन की पथरीली राहों पर चलते हुए कई बार जयपुर रेलवे स्टेशन के बाहर सस्ते होटलों में, कभी दिल्ली का काम पड़ने पर फतेहपुरी के पुराने होटलों में, या पहाड़गंज की व्यस्त गलियों के होटलों की कोठरियों में तो कभी मुम्बई जाने पर ग्रांट रोड के गुजराती लॉज या होटलों में ठहरता था. एक बार एक सेमिनार में भाग लेने मैं खंडाला और एक बार मैनेजमेंट द्वारा आयोजित लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम में देवलाली तीन सितारा होटल में ठहने का अनुभव हुआ. इसके अलावा ऑल इंडिया सीमेंट एण्ड अलाइड वर्कर्स फेडरेशन (जिसका मैं वर्षों उपाध्यक्ष रहा हूँ) की विशेष सभा में त्रिचनापल्ली गया. वहाँ दक्षिण भारत की व्यवस्था वाले तीन सितारा होटल का अनुभव भी हुआ, पर ऐसा संयोग रहा कि मेरा  कभी भी पांच सितारा होटल के अन्दर तब तक नहीं जाना हुआ.

मुझे गांधीवादी ट्रेड युनियन लीडर थिरू जी रामानुजम जी के साथ पूरे देश के सीमेंट कर्मचारियों के लिए नियुक्त वेतन मण्डल की बैठकों में काम करने का अवसर कई बार मिला है. सन १९८५ में रामानुजम जी ने सी.एम.ए.(सीमेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन) के पदाधिकारियों से कहा कि “इस बार की मीटिंग किसी फाइव स्टार होटल में रखी जाये ताकि मजदूरों के प्रतिनिधि भी वहाँ के वैभव को देख सकें”.

खुद सादगी से रहने वाले रामानुजम जी राष्ट्रीय मजदूर कॉग्रेस के वर्षों तक बेताज अध्यक्ष रहे. वे जीवन के अन्तिम प्रहर में, नरसिंहराव जी के प्रधानमंत्रित्व काल में, ओडीसा और आंध्रा के राज्यपाल भी रहे. सी.एम.ए. उनको बहुत सम्मान देता था क्योंकि उनकी हर बात में सच्चाई और वजन होता था. रामानुजम जी द्वारा दिये गए आर्बिट्रेशन अवार्ड्स को सी.एम.ए. ने हमेशा बिना किसी हीलहुज्जत के लागू कराया.

सी.एम.ए. ने वह मीटिंग मुम्बई के नरीमन पॉइंट स्थित ओबेरॉय शेरेटन होटल में करना तय किया. निश्चित तिथि पर, हम देश के दूर दराज कस्बों/कैम्पसों से आये हुए यूनियन प्रतिनिधि गण वहाँ पहुंचे. वहाँ के अकल्पनीय वैभव, ठाट-बाट, नफासत, सजावट, तौर-तरीके देख कर स्तम्भित रह गए. ये अपने देश के अन्दर की अलग ही दुनिया है.

सत्रहवीं मंजिल यानि टैरेस पर भी मीटिंग का एक सेशन रखा गया था. वहां पर से पुरानी मुम्बई का विहंगम दृश्य देखा. पूरी चौपाटी नजर आ रही थी और पश्चिम में अगाध नीला अरब सागर बहुत विराट था. सच कहूँ अकल्पनीय था.
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बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

चुहुल - २३

(१)
वह फटेहाल था, भीख माँग रहा था. एक साहब के पूछने पर उसने बताया कि वह बीड़ी-सिगरेट नहीं पीता है, दारू भी नहीं पीता है, और न ही जुआ खेलता है.
साहब ने उससे कहा, “मेरे साथ मेरे घर तक चल, मैं तुझे १०० रूपये दूंगा.”
भिखारी बोला, “घर तक क्यों, यहीं दे दो.”
इस पर साहब ने कहा, “अरे, मैं अपनी बीवी को दिखाना चाहता हूँ कि जिस आदमी में कोई ऐब नहीं होता है उसका क्या हाल होता है.

(२)
पत्नी – शादी से पहले आपने बताया नहीं कि आपकी रानी नाम की पहले से एक घरवाली है?
पति – मैंने तो तुमको साफ़ साफ़ बताया था कि तुमको मै रानी की तरह ही रखूंगा.

(३)
रात को पत्नी ने देखा कि पति अपने बिस्तर से गायब है. वह उसे घर में चारों ओर ढूँढने लगी तो पाया कि वह रसोई में एक कुर्सी लगा कर बैठा था और कॉफी पी रहा था. साथ ही ये भी देखा कि आँखों से आँसू टपका रहा था.
पत्नी ने उसे इस तरह उदास देख कर हड़काते हुए पूछा, “क्यों क्या हो गया?”
पति – तुम्हें याद है आज से ठीक दस साल पहले जब तुम्हारी-मेरी शादी नहीं हुई थी हम लोग चुपके चुपके मिला करते थे?
पत्नी – हाँ, याद है पर अब क्या हो गया?
पति – तुम्हारे बाप ने हम दोनों को मेरी कार की पिछली सीट पर छुपा देख कर मेरी गर्दन पकड़ ली थी, मैं बहुत डर गया था.
पत्नी – हाँ, तो?
उसने कहा था, “या तो तू मेरी बेटी से शादी कर अन्यथा मैं तुझे दस साल की जेल करवा दूंगा.”
पत्नी – हाँ, कहा था.
पति – आज उस बात को पूरे दस साल हो गए हैं. मैं सोच रहा हूँ कि अगर मैं शादी नहीं करता तो आज जेल से छूट कर आजाद हो गया होता.

(४)
एक शायर के बेटे में शायरी करने का पैदाइशी गुण जागृत हो गया. जब उसे स्कूल भेजा जाने लगा तो एक दिन अध्यापक ने उससे पूछा, “ह्वाट इज नाउन?”
लड़के ने झट उत्तर दिया,
“अर्ज करता हूँ : कुत्ता भी होता है अपनी गली का किंग,
नाउन इज द नेम आफ ए पर्सन, प्लेस, और थिंग.”

(५)
अध्यापिका बच्चों को हिन्दी सिखा रही थी, "क से कबूतर, ख से खरगोश, ग से गमला..."
बच्चे बहुत धीमी आवाज में बोल रहे थे.
अध्यापिका ने कहा, “जोर से बोलो.”
बच्चे एक साथ जोर से बोले, “जय माता दी.”
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सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

क्लेप्टोमेनिया

मोहनप्रसाद सक्सेना बड़े बातूनी और खुशमिजाज इन्सान हैं. वे खुद को बहुत भाग्यशाली बताते रहे हैं. उनके छ: बेटे हैं: जय, विजय, संजय, अजय, धनञ्जय और सबसे छोटा पराजय. पराजय को बाद में स्कूल दाखिला के समय परंतप कर दिया गया. कोई जब उनसे पराजय नाम रखने की सार्थकता पूछता है तो वे बताते हैं कि ये आख़िरी बेटा उनकी नसबंदी के बाद पैदा हुआ इसलिए वे इसे अपनी और डॉक्टरों की पराजय के रूप में मानते हैं.

मोहनप्रसाद सक्सेना अपने कायस्थ होने पर बहुत गर्व करते हैं. वे बताते हैं कि वे ब्रह्मापुत्र चित्रगुप्त के वंशज हैं, कुलीन हैं. एक समय था जब उत्तर में कश्मीर से धुर दक्षिण तक वर्धन, परिहार और चालुक्य राजवंशों का साम्राज्य था और ये सभी कायस्थ थे. स्वामी विवेकानंद, वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस, पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद, पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, हरिवंशराय बच्चन और काका हाथरसी आदि सभी कायस्थ थे. सहस्राब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन को तो वे अपना आदर्श बताते हैं. मधुशाला में बच्चन जी ने कायस्थों व सुरा का जो सम्बन्ध वर्णित किया है, उसको वे हर एक बोतल खोलते समय अवश्य दोहराते हैं. अपने खानदान को ठेठ मुग़ल साम्राज्य के कोषाध्यक्षों व लेखाकारों से जोड़ते हैं.

मोहनप्रसाद सक्सेना रेलवे के कारखाने में बाबू से बड़े बाबू बने और लम्बे अरसे तक प्रशासन को अपने ढाँचे से चलाते रहे. उन्होंने तरकीब से पाँच बेटों को रेलवे में ही नौकरी पर लगवा दिया. उनके रिटायरमेंट के समय परंतप बी.ए. के लिए पढ़ रहा था इसलिए उसके लिए नौकरी की व्यवस्था बाद में करनी पड़ी. संयोग से यहाँ की बड़ी फार्मस्यूटिकल कम्पनी में हृदयनारायण माथुर जनरल मैनेजर बन कर आ गए तो मोहनप्रसाद ने दूर की रिश्तेदारी निकालते हुए उनके बंगले में आना जाना और कुछ न कुछ भेंट पहुंचाना शुरू कर दिया. लगभग सभी इन्सान चाटुकारीप्रिय होते हैं. उसने माथुर साहब का दिल जीत लिया और एक दिन परंतप को बतौर क्लर्क उनकी फैक्ट्री में चिपका दिया.

परंतप काम में और व्यवहार में अपने पिता से दो कदम आगे ही था लेकिन जिस बड़े हॉल में परंतप का कार्यालय था उसमें बहुत सी केबिन छोटे अफसरों व बाबुओं के लिए बने हुए थे. कुछ समय पश्चात जब परंतप माथुर साहब का आदमी होने के विशेषाधिकारों के साथ टाइम बेटाइम आफिस में घूमने लगा तो लोगों की छोटी मोटी वस्तुएं जैसे कैलकुलेटर, पेन्सिल, चश्मे, डायरियाँ, लैटर पैड, यहां तक कि मोबाइल फोन गायब होने लगे. सभी लोगों में बेचैनी फ़ैल गयी क्योंकि पहले ऐसा कभी नहीं होता था. सेक्यूरिटी डिपार्टमेंट के लिए ये चिंता और शोध का विषय हो गया.

चोर को पकड़ना आसान नहीं था इसलिए चुपके से दो जगह सीसी टीवी कैमरे फिट कर दिये गए. परिणामस्वरूप परंतप सक्सेना को लोगों की दराजें खोलकर चीजें निकालते हुए साफ़ साफ़ देख लिया गया. उसे प्रशासन ने तुरन्त निलंबित कर दिया, और चार्जशीट दे दी गयी. पहले तो वह ना नुकुर करता रहा, पर जब उसे साक्ष्य के रूप में वीडियो दिखाया गया तो वह टूट गया और सेक्युरिटी स्टाफ के सामने सच सच उगलते हुए अपने क्वार्टर के उस कमरे में ले गया जहाँ उसने ये सब सामान जमा कर रखा था.

सेक्युरिटी आफीसर ने जब इतना सारा तरह तरह का सामान देखा तो दंग रह गया. परंतप ने बताया कि उसे अपने आफिस के अलावा भी अन्यत्र कहीं कोई सामान पड़ा दिखता है तो वह उसे उठा कर ले आता है. उसको ये मालूम रहता है कि इसमें बहुत सा सामान उसके लिए अनुपयोगी होता है तथा पकड़े जाने का अन्जाम क्या होगा. वह रोते हुए बोलता है कि उसके अन्दर कोई शैतान बैठा है जो उससे ये सब करवाता है. वह सामान उठाने से खुद को रोक नहीं पाता है.

डिपार्टमेंटल इन्क्वारी की रिपोर्ट में परंतप का कनफेशन होने की वजह से उसका नौकरी से निकाला जाना निश्चित माना जा रहा था क्योंकि ये मॉरल टरपीट्यूड का मामला था, जिसे सुप्रीम कोर्ट तक ने अक्षम्य माना है. कर्मचारी युनियन ने परंतप को बचाने का कोई आश्वासन नहीं दिया क्योंकि युनियन के कई सदस्य परंतप के कारनामों के शिकार थे. पर युनियन के अध्यक्ष नरोत्तम को थोड़ी सी व्यक्तिगत हमदर्दी उसके व उसके दो छोटे छोटे बच्चों के साथ थी. उसने कहीं मेडीकल बुलेटिन में पढ़ा था कि क्लेप्टोमेनिया एक मानसिक बीमारी होती है, जिसमें रोगी बिना कोई आर्थिक लाभ सोचते हुए भी उठाईगिरी कर लेता है. उसको ये भी ज्ञात था कि उनकी कम्पनी के मैनेजिंग डाइरेक्टर टी. बनर्जी की पत्नी भी इसी रोग की शिकार है और कुछ समय पहले उसने मुम्बई के किसी फाइव स्टार होटल से २५ नैपकिन-तौलिए चुरा लिए थे और पकड़ी गयी थी. बाद में मि. बनर्जी ने होटल मैनेजमेंट को असलियत बताते हुए माफी माँगी तब जाकर मामला रफा दफा हुआ था.

इन दिनों मोहनप्रसाद सक्सेना अपनी सारी चपलता, बड़प्पन, और बड़बोलापन, सब भूल गए थे. "दूसरों को उपदेश देने वाले का बेटा चोर निकला," ये जग जाहिर होने से वे शर्मिन्दा भी थे, पर बाप का दिल है, हाथ जोड़ते हुए सभी दर ढोकने पड़े. जिसका मुंख नहीं देखना चाहते थे, उसका पिछवाड़ा देखना पड़ रहा था. युनियन के अध्यक्ष नरोत्तम ने उसको सलाह दी कि ‘मैनेजमेंट को मर्सी पेटीशन दायर करे, जिसमें क्लेप्टोमेनिया का हवाला देकर एक एडवांस प्रति सीधे मैनेजिंग डाइरेक्टर बनर्जी साहब के नाम रजिस्टर्ड डाक से भेज दें. क्योंकि यही इस मामले में आख़िरी विकल्प बचता था. जब मर्सी पेटीशन मि. बनर्जी के टेबल पर गयी तो उन्होंने उसे गौर से पढ़ा और मुस्कुराए बिना नहीं रह सके. उन्होंने आदेश दिया कि परंतप को इस बार सख्त हिदायत देते हुए माफीनामा लिखवा लिया जाये तथा नौकरी पर बहाल कर दिया जाये.
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Posted by पुरुषोत्तम पाण्डेय at 7:50 am

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

पद्म भूषण मोहनसिंह ओबेरॉय

अविभाजित भारत के पश्चिमी क्षेत्र के एक छोटे से गाँव, भौंन (पेशावर), में पैदा होने वाले स्व.मोहनसिंह ओबेरॉय का जीवन अध्यवसायिक चमत्कारों से भरा रहा. उनका जन्म सन १८९८ में और देहांत सन २००२ में हुआ. इस प्रकार यह महान व्यक्ति तीन सदियों में जिया और बहुत बड़ी विरासत छोड़कर गया. उनके पिता एक छोटे ठेकेदार थे, जो उनके होश सँभालने से पहले ही चल बसे थे. प्रारंभिक शिक्षा गाँव के नजदीक पाकर, वे ग्रेजुएशन के लिए रावलपिंडी होते हुए लाहौर आ गए थे, जहाँ उन्होंने नौकरी के निमित्त टाइप राइटिंग व शॉर्टहैंड सीखी. उस इलाके में प्लेग की दहशत होने पर वे वहाँ से पलायन करके शिमला आ गए.

कहा जाता है कि नौजवान मोहनसिंह जब Hotel Clarke के अंग्रेज मालिक मिस्टर क्लार्क के दफ्तर में रोजगार की तलाश में दाखिल हुआ तो उसने उसे बिना इजाजत अन्दर आने पर नाराजी के साथ बाहर जाने के लिए कहा. बाहर जाने से पहले मोहनसिंह ने जब फर्श पर एक आलपिन पड़ी देखी तो उठा कर मि. क्लार्क की टेबल पर रख दी. मोहनसिंह की इस आदर्शपूर्ण किफायती भावना से प्रभावित होकर मि. क्लार्क ने उसे सादर अपने होटल में बतौर लिपिक नौकरी पर रख लिया तथा धीरे धीरे जिम्मेदारियां बढ़ा दी. बाद में जब अंग्रेज लोग भारत छोड़ कर जाने लगे तो मि.क्लार्क ने होटल मोहनसिंह को बेच गया. इसके लिए धन जुटाने में मोहनसिंह को अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े.

मोहनसिंह ओबेरॉय बहुत मेहनती थे साथ ही दूरदर्शी भी थे. वे कभी खाली नहीं बैठते थे. धीरे धीरे उन्होंने अन्य शहरों में भी होटल खरीदने या बनाने का काम शुरू कर दिया, जिसमें उस समय का कोलकता का Grand Hotel प्रमुख है. उन्होंने अपने होटल्स और रिसोर्ट्स को पाँच सितारा सुविधाओं के साथ विस्तार दिया तथा देश में इसे उद्योग के रूप में पहचान दी. ओबेरॉय ग्रुप के आज विश्व के सात देशों में ३७ होटल हैं, जिनका अपना अपना अलग अलग इतिहास है. भारत, नेपाल, इजिप्ट, आस्ट्रेलिया, हंग्री, व मारीशस में ओबेरॉय ग्रुप का बड़ा नाम है. इन होटलों में हजारों कार्यकुशल स्टाफ तैनात है. भारत में होटल उद्योग में सर्वप्रथम महिलाओं को भी कर्मचारियों के रूप में नियुक्ति देने का श्रेय ओबेरॉय जी को जाता है.

मोहनसिंह ओबेरॉय ने सन १९३६ में अपने संस्थाओं को ‘ग्रुप आफ ओबेरॉय’ नाम दिया, जिसके वे संस्थापक चेयरमैन रहे और लम्बे समय तक पद पर रहते हुए कारोबार को बढ़ाते रहे. अब उनके पुत्र ८२ वर्षीय पृथ्वीराजसिंह ओबेरॉय इसके चेयरमैन हैं.

श्री मोहनसिंह ओबेरॉय स्वतंत्र भारत की राजनीति में भी सक्रिय रहे. वे दो बार राज्य सभा के तथा एक बार लोकसभा के भी सदस्य चुने गए. ब्रिटिश राज में उनको राय बहादुर की उपाधि से नवाजा गया था और जीवन के अन्तिम प्रहर सन २००१ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया.

स्व. एम.एस. ओबेरॉय अनूठे व्यक्तित्व वाले कर्मठ व्यक्ति थे जिनका जीवन अध्यवसायी लोगों के लिए एक दीपस्तंभ की तरह है.
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गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

ये क्या हो रहा है?

ये हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया को क्या हो गया है? सुबह से शाम आसाराम-तमाशाराम की गन्दी कहानी को बेचा जा रहा है. अब लगभग एक महीना होने को आया गया है. मीडिया ट्रायल बंद हो जाना चाहिए था. अदालत/क़ानून को अपना काम करने देना चाहिए. चेनल्स की प्रतिस्पर्धाओं में इन्होने अब उन घटनाओं का नाट्य रूपांतरण करके भी दिखाना शुरू कर दिया है. इन गन्दी कहानियों का दुष्प्रभाव समाज पर विशेष कर मासूम बच्चों पर क्या पड़ रहा है, इस बात की चिंता किसी सामाजिक संस्था या सरकार को कतई भी नहीं है. देश-दुनिया में अच्छे लोग भी हैं. बहुत सी सुखद, उपदेशात्मक बातें/घटनाएं भी होती हैं, पर मीडिया ने केवल गन्दगी बिखेरना अपना धर्म बना लिया है क्योंकि इससे इनके विज्ञापन खूब बिक रहे हैं.

इसी तरह मनोरंजन करने वाली लगभग सभी चेनल्स फूहड़ता व द्विअर्थी अश्लील संवादों के जरिये क्या स्थापित करना चाहते हैं, ये समझ से परे है. ऐसा लगता है कि इन पर कोई लगाम नहीं है. कायदे से ये सब सेंसर होने चाहिए. अन्यथा ये सब हमारी भावी पीढ़ियों को पूरी तरह विकृत मानसिकता वाली बना कर छोड़ेंगी.

समाज को दिशा देने में सिनेमा का रोल भी बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन हमारे देश में हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में जो चलचित्र दिखाए जा रहे हैं, उनमें एक से बढ़ कर एक भोंडापन व अश्लीलता का खुला प्रदर्शन हो रहा है. राष्ट्रीय चरित्र के सत्यानाश करने में इन व्यावसायिक मानसिकता वाले चलचित्रों का योगदान कम नहीं है. ये जो आज खुलेआम बलात्कार, दुराचार व लूट-डकैती हो रही है, इसकी बड़ी शिक्षा देने के लिए इन्हीं को जिम्मेदार ठहराया जाये तो सही होगा.

इस सम्पूर्ण विषय में एक गंभीर राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए. राजनैतिक दलों को लैपटाप, साडियाँ या साइकिलें बांटने के वादों के बजाय इस मिशन को अपने मैनिफेस्टो में प्रमुखता से जगह देनी चाहिए और अमल भी करना चाहिए. अन्यथा भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी जिसके लिए हम अपने आप को माफ नहीं कर पायेंगे.
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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

खिचड़ी

अगर आप हिदुस्तानी हैं तो आपने अपनी रसोई में बनी स्वादिष्ट खिचड़ी जरूर खाई होगी. खिचड़ी कई तरह से बनती है, उसमें दाल, चावल, सब्जी, खड़े मसाले आदि एक साथ डाल कर पकाया जाता है. पश्चिमी राजस्थान में और गुजरात में बाजरे की खिचड़ी बहुत स्वाद के साथ खाई जाती है. चूकि खिचड़ी पकाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती है और जल्दी में कम ही बर्तन लगाने की अपेक्षा रहती है इसलिए लोग वक्त बेवक्त खिचड़ी बनाया करते हैं. खिचड़ी सुपाच्य होती है इसलिए बहुधा बीमारों को परोसी जाती है. मेथी दाने की खिचड़ी बहुत गुणकारी बताई जाती है. वैसे भोजन का स्वाद बदलने के लिए सप्ताह में एक बार खिचड़ी का आनन्द ले लेना चाहिए. एक लोकोक्ति मे कहा गया है कि :

खिचड़ी के चार यार, दही-मूली-घी-अचार

अगर इन खिचड़ी के यारों के साथ वह खाई जाये तो वास्तव में बहुत बढ़िया लगती है. खिचड़ी के बारे में अनुमान है कि ये प्री-वैदिक काल से ही लोगों के मुँह लगी होगी
. वैसे इतिहास के पन्नों में लाने का श्रेय राजा बीरबल को जाता है. जिसने बादशाह अकबर को सबक देने के लिए एक लम्बे बाँस पर खिचड़ी की हंडिया लटकाई थी.

आपने बचपन में खिचड़ी आधारित ये कहानी भी अवश्य सुनी होगी कि एक भोला ग्रामीण आदमी अपने ससुराल गया था, जहाँ उसकी सासू माँ ने उसे खिचड़ी खिलाई थी. उसने पहले कभी भी खिचड़ी नहीं खाई थी, उसे खिचड़ी का स्वाद इतना पसन्द आया कि वापसी की राह में वह ‘खिचड़ी’ शब्द भूल न जाये इसलिए ‘खिचड़ी, खिचड़ी’ बोलता आया पर प्यास लगने पर कुएँ पर पानी पीने के बाद वह खिचड़ी के बजाय भूल से ‘खाचिड़ी’ बोलने लगा. रास्ते में एक खेत की तैयार फसल को चिड़ियों का झुण्ड खा रहा था. खेत के मालिक ने जब जब भोले को ‘खाचिड़ी’ बोलते हुए सुना तो मारपीट पर उतारू हो गया. भोले को उसने कहा कि ‘उड़-चिड़ी’ बोले. भोले अब ‘उड़ चिड़ी’ बोलने लगा. आगे राह में एक बहेलिया जो चिड़ियों को पकड़ने के जुगाड़ में था, उससे लड़ने आ गया. इस प्रकार जब भोला अपनी पत्नी के पास पहुँचा तो पूरी तरह कनफ्यूज हो चुका था, पर खिचड़ी खाने की इच्छा अभी भी बलवती थी. उसने अपनी पत्नी से कहा कि वही भोजन बनाओ जो सासू माँ ने बना कर खिलाया था. लेकिन क्या बनाना है, यह नहीं बता सका, और अनमना होकर रसोई में रखे अनाज के डिब्बों को इधर उधर पटकने लगा. परिणामस्वरूप दाल, चावल व मसाले एक साथ बिखर पड़े. ये देख कर उसकी पत्नी के मुँह से अनायास निकला, “सब खिचड़ी कर दिया है.” भोला तुरन्त संभल कर बोला, “हाँ, यही तो मैं कहना चाहता हूँ कि खिचड़ी पकाओ
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खिचड़ी का धार्मिक महत्त्व भी हिन्दू धर्मावलम्बी खूब मानते हैं. मकर संक्राति पर खिचड़ी दान की जाती है. उस दिन खिचड़ी खाना भी शुभ होता है.

आजकल खिचड़ी शब्द का प्रयोग राजनैतिक दलीय समीकरणों के लिए भी किया जाने लगा है. गठबंधन की सरकारों को खिचड़ी सरकार कहा जाता है पर इनका स्वाद अधिकतर कटु पाया जा रहा है.

अनुभव व परिपक्वता की निशानी के रूप में कहा जाता है कि ‘अब दाढ़ी-मूछों और सर के बाल खिचड़ी होने लगे हैं’, लेकिन लोग तो काली मेहंदी या कोई हेयर डाई लगा कर खिचड़ी को छुपाने की कोशिश करते रहते हैं.

बहरहाल खुशी की बात ये है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का देश के कुछ प्रान्तों में जो घोर विरोध होता था वह अब गायब होता जा रहा है और भाषायी खिचड़ी बनती जा रही है, जिसका नाम है ‘हिन्दुस्तानी’.
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रविवार, 6 अक्टूबर 2013

एक था राजकुमार

हम मनुष्यों का जीवन-सँसार समय के साथ साथ बदलता रहता है. आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं और नए नए आविष्कारों का लाभ ले रहे हैं, पर जीवन हमेशा ऐसा नहीं था. जब कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था तो इतिहास, साहित्य-व्याकरण या कोई भी मानवोपयोगी शास्त्र लिखित में कैसे हो सकता था? तब सारी ज्ञान की बातें पीढ़ी दर पीढ़ी बोल कर/सुन कर आगे बढ़ती रही. इसीलिये हमारे समृद्ध वेदों को श्रुतियाँ कहा जाता है.

यों बहुत पीछे न जाकर अपने बचपन में सुनी हुई अनेक दन्त कथाओं/नीति कथाओं का का जिक्र करें जिनका व्यापक प्रभाव हमारे जीवन में पड़ता रहा है तो इनमें बहुत सी बातें आज अविश्वसनीय व बेढब जरूर लगती हैं, पर इनसे एक लीक बनती थी, जिससे समाज को आनुशासन मिला करता था. अब राजा-रानी-राजकुमारों की कहानियाँ कोई नहीं लिखता है और कोई सुनना भी नहीं चाहता है. स्मृतियों को धरोहर के रूप में दोहराने में आनन्द अवश्य मिलता है:

एक राजा था. उसकी एक रूपवती-गुणवती रानी थी और एक नौजवान बेटा (राजकुमार) था. पड़ोस के राज्य की राजकुमारी से उसका विवाह कर दिया गया. लेकिन रीति रिवाजों के चलते उनका गौना नहीं हुआ था इसलिए वह मायके में ही रहा करती थी. राजकुमार की एक बहन भी थी. अन्यत्र राज्य के किसी राजकुमार से उसका विवाह हो गया था. राजकुमार का एक बचपन का जिगरी दोस्त भी था जो कहीं दूर अन्य राज्य में रहता था. राज्य में सब व्यवस्थाएं सामान्य चल रही थी. एक दिन राजा का मन तीर्थाटन का हुआ तो वह तो वह अपने सैन्य बल के साथ चल पड़ा. जाने से पहले राजकुमार को अस्थाई रूप से गद्दी पर बैठा गया और खजाने की चाबी भी सौंप गया. खजाने में कुल एक लाख सिक्के थे जो उस समय के अनुसार बड़ी राशि होती थी.

राजकुमार के शासनकाल में एक साधू  दरबार में आया और उसने कहा कि उसके पास एक ज्ञान का ताम्र पट्ट है, जिसमें जीवन की सच्चाइयां लिखी हुई हैं. साधु ने उसकी कीमत एक लाख सिक्के बताई. राजकुमार जिज्ञासु था, उसकी उत्कंठा बढ़ी तो उसने वह ताम्र पट्ट खरीद लिया. इस कारण पूरा खजाना खाली हो गया. ताम्र पट्ट में आठ बातें नीति सम्बन्धी लिखी थी:

होते का बाप, अनहोते की माँ, आस की बहन, निराश का दोस्त,    
दृष्टि की जोरू, मुष्टि का धन, जो सोवे सो खोवे, जो जागे सो पावे.

राजा ने अपनी वापसी पर जब खजाना अनावश्यक कारणों से खाली देखा तो बहुत गुस्से में आ गया और सजा के रूप में राजकुमार को ‘देश निकाला’ दे दिया. तब राजकुमार की समझ में आया कि अगर वह धन खर्च करने के बजाय कमा कर बाप को देता तो उसको ये सजा नहीं मिलती.

राजा का आदेश पत्थर की लकीर की तरह थी. राजकुमार को देश से बाहर जाना ही पड़ा. जाने से पहले वह अपनी माँ से मिलने गया तो माँ को अपनी सजा पर बहुत दुखी पाया. अश्रुपूर्ण विदाई देते देते समय उसने पाँच स्वर्ण अशर्फियाँ राजकुमार के चोगे में छुपा कर सिल दिये और बेटे से कहा कि “ये धन मुसीबत में तुम्हारे काम आएगा.” ताम्र पट्ट में लिखी हुई ये दूसरी बात थी कि कुछ नहीं होने पर पर भी माँ स्नेहमयी  व ममतामयी होती है.

उन दिनों रेलगाड़ी या मोटरवाहन तो थे नहीं, सड़कें भी कच्ची, ऊबड़खाबड़ रही होंगी. कई दिनों तक पैदल चलकर राजकुमार अपनी बहन के ससुराल पहुंचा, पर उसको फटेहाल मैला-कुचैला देख कर द्वारपाल ने उसे अन्दर नहीं जाने दिया. संदेशा बहन के पास भेजा गया, पर उसने बड़ी बेरुखी से कह दिया कि मेरा भाई भिखारी के रूप में आ ही नहीं सकता है. राजकुमार भूखा भी था उसने भोजन देने का सन्देश भेजा तो महल में से नौकर रूखी-सूखी बासी रोटियां दे गया, जो राजकुमार से खाई नहीं गयी. उसे पट्ट  तीसरी बात भी समझ में आ गयी कि बहनें भाई से बहुत सी अपेक्षाएं रखती हैं. वहाँ से मायूस होने के बाद उसने अपने एक मित्र के पास जाने का निश्चय किया और वह चलते चलते जब उसके घर पहुंचा तो थक कर बेहाल हो चुका था. मित्र ने उसको पहचान कर हृदय से स्वागत किया, अच्छा खाना खिलाया, नए वस्त्र पहनाए. मित्र को उसके जीवन में घटी इस घटना पर बहुत दुःख हुआ और कहा कि “अब उसके पास ही रहे और किसी प्रकार की चिंता न करे.” एक सच्चे मित्र की यही पहचान होती है कि अपने दोस्त से कोई लाभ पाने की अपेक्षा नहीं करता है और उसके परेशानियों के समय हर सम्भव मदद करने को उद्यत रहता है. राजकुमार अपने मित्र के पास आराम से रहने लगा था. लेकिन जब बुरा समय होता है तो अच्छाइयों में भी कांटे उग आते हैं. एक दिन राजकुमार जब कमरे में अकेला था तो उसके देखते ही देखते एक कौवा खूंटे पर टंगा हुआ उसके मित्र की पत्नी का कीमती हार ले उड़ा. राजकुमार इस अनहोनी से घबरा गया कि हार की चोरी का इल्जाम अब उस पर आने वाला था. यदि वह ये कहे कि ‘एक कौवा उठा कर ले गया तो उसका उपहास किया जाएगा’ ये सोचते सोचते परेशान होकर वह वहाँ से चुपके से निकल लिया.

कई दिनों तक चलते हुए वह अपने ससुराल पहुचा तो उस राज्य के दरबानों ने उसे दुश्मन राज्य का गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया. उसने अपना परिचय दिया लेकिन कोई उसे मानने को तैयार नहीं हुआ. इसमें उसकी पत्नी का रोल बहुत बुरा रहा. वहाँ के राजा ने उसे मृत्यु दंड की सजा सुना दी. जब सैनिक उसे मारने के लिए जंगल की तरफ ले गए तो उसने माँ द्वारा दी गयी पाँच स्वर्ण अशर्फियाँ उनको रिश्वत देकर अपनी जान बचाई.

ताम्र पट्ट की एक एक बात सही होती जा रही थी राजकुमार किसी अन्य अनजाने राज्य की राजधानी में पहुँच गया, जहाँ राजकीय खजाने में रातों में चोरियां हो रही थी, पर चोर-डाकू पकड़ में नहीं आ रहे थे. राजा ने ऐलान कराया था कि जो भी व्यक्ति चोरों को पकड़वायेगा उसे मुँह माँगा इनाम दिया जाएगा. राजकुमार ने हिम्मत करके अपना भाग्य अजमाने की ठानी. वह एक दुधारी तलवार लेकर रातों में चोरों के संभावित रास्ते में छुपकर बैठ गया. एक रात उसे सफलता मिल गयी. उसने एक चोर को बुरी तरह जख्मी कर दिया उसे बाद में पकड़ लिया गया. चोरों की पूरी गैंग का पर्दाफ़ाश हो गया. अगर राजकुमार अन्य चौकीदारों की तरह रात को सो जाता तो वे चोर पकड़े नहीं जाते. राजकुमार ने ताम्र पट्ट की आख़िरी बात, ‘जो सोवे सो खोवे, जो जागे सो पावे’ वाली बात याद रखी. यहाँ के राजा ने जब राजकुमार की असलियत जानी तो उसे अपना दामाद बना लिया और आधा राज्य भी दे दिया.

कुछ समय के बाद जब वह अपने सैनिक व गाजेबाजे के साथ उसी रास्ते से सब से मिलने वापस चला तो तिरस्कार करने वाली पूर्व पत्नी, मृत्युदंड देने वाले पूर्व ससुर को दण्डित करते हुए, जब अपने दोस्त के पास पँहुचा तो उसने उसी गर्मजोशी से स्वागत किया. ‘हार’ की बात बताने पर, उसके मित्र ने अफ़सोस जताते हुए बताया कि ‘हार’ तो छत पर पड़ा मिल गया था.

इस बार उसे बहन को सन्देश भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ी वह बाजे-घाजे की आवाज सुन कर ही दौड़ी दौड़ी अपने महल से बाहर आ गयी. राजकुमार ने उसको उसके द्वारा किये गए व्यवहार की याद दिलाई. अंत में जब वह अपने पिता के राज्य में पहुँचा तो पहले अपनी माँ से मिला जिसने हमेशा की तरह उसको स्नेह पूर्वक गले लगा लिया. राजा यानि पिता को अपने बेटे के यशश्वी बन कर कर लौटने पर बहुत खुशी हो रही थी, लेकिन राजकुमार को अपने ‘देश निकाले’ के दंश अभी भी आहत किये हुए था. इसलिए वह अपने राज्य को लौट गया.
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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

घुटनों का बल

घुटना प्रत्यारोपण का एक्स रे
(via Wikimedia Commons)
हमारे सनातन धर्म में गृहस्थ जीवन के लिए बहुत से नैतिक बंधनों की व्यवस्था है. वैवाहिक कार्यक्रम में सात फेरों में इस बात पर विशेष रूप से प्रकाश डाला जाता है कि पति पत्नी एक दूसरे के प्रति ईमानदार रहें, और एक दुसरे का हर तरह से खयाल रखें.

कुछ अन्य धर्मों में विवाह को एक सहज समझौते के रूप में भी निरूपित किया जाता है. यहाँ मैं किसी प्रकार की तुलना अथवा अच्छे-बुरे की बात नहीं करता हूँ क्योंकि ये सब सभ्यताओं के देश-काल व परिस्थितियों के आधार पर विकसित हुए नियम-धर्म हैं. धर्म का अर्थ धारण करना होता है. हम जिस लीक पर चलते हैं, या विश्वास करते हैं वही हमारा धर्म होता है.

अंग्रेजी वालों ने पत्नी को wife, spouse, my lady या better half जैसे शब्दों से नवाजा है. हमारे यहाँ पत्नी को सहधर्मिणी कहा गया है और अर्धांगिनी भी. आधे अंग में दुःख हो, व्यथा हो, परेशानी हो तो पूरे अंग का प्रभावित होना स्वाभाविक होता है.

मैं अपनी बात करता हूँ कि मेरी पत्नी समय समय पर नेत्र रोग, मधुमेह, हृदय रोग आदि गंभीर कही जाने वाली बीमारियों की शिकार रही है और वक्त जरूरत यथोचित चिकित्सा भी करवाता आ रहा हूँ. इन बीमारियों के परिपेक्ष्य में घुटनों पर संधिवात के प्रकोप को गौण समझते रहे हैं. पत्नी इसके कष्ट को उम्र से जोड़ते हुए सहती आ रही थी. जब सैचुरेशन पॉइंट आ गया और पेनकिलर्स ने भी काम करना बन्द कर दिया तब ऑर्थोपीडिक डॉक्टर ने कहा कि अब एकमात्र विकल्प घुटना प्रतिरोपण है. जो कि आजकल आम हो गया है. हमारे परिचितों में कुछ लोग घुटना प्रतिरोपित करवा भी चुके थे. उनकी बातें सुनकर हम अनिश्चय की स्थिति में थे क्योंकि कुछ के घुटने आपरेशन के बाद स्टिफ हो गए हैं.

इस मामले में हमारे कनिष्ट पुत्र प्रद्युम्न ने हमको बहुत हौसला दिया. वह दिल्ली में है. उसकी ही व्यवस्था के अनुसार एक उच्च कोटि के अस्थि संस्थान, ‘इन्डियन स्पाइनल इंजरी सेंटर, वसन्त कुञ्ज, नई दिल्ली’ में १७ सितम्बर २०१३ को दोनों घुटनों का आपरेशन करके प्रत्यारोपण कर दिया गया है. पोस्ट ऑपरेटिव परेशानियां थोड़ी बहुत होती ही हैं, पर एक सप्ताह के अन्दर वॉकर या लाठी की सहायता से धीरे धीरे चलने लगी है. पहले घुटनों के रगड़ से उसे जो दर्द होता था, वह अब गायब है. तेज पेनकिलर्स व एंटीबायोटिक्स की वजह से इस बीच कभी कभी बेचैनी व बदहजमी जरूर हुई है, पर ये सब चिकित्सा का आवश्यक अंग है, जिनकी लाक्षणिक चिकित्सा करनी पड़ती है.

अब सत्तर वर्षीय कमजोर शरीर को सामान्य होने में थोड़े दिन जरूर लगेंगे. ईश्वरीय कृपा तथा हमारे अनेक मित्रों की शुभकामनाएं हैं, जो हमें इस मुकाम पर नया उत्साह दे रही हैं.

बड़े प्राइवेट अस्पतालों में ईलाज/आपरेशन कराना अब साधारण बात नहीं रही है. वैसे कहा जाता है कि पैसा भगवान तो नहीं पर भगवान से कम भी नहीं होता है, जो सही है. बहुत से मित्रों ने ये जानना चाहा है कि दोनों घुटनों के प्रत्यारोपण पर इन्डियन स्पाइनल इंजरी सेंटर में कुल कितना खर्चा आया है? मैं बताना चाहता हूँ कि हमें चार लाख रुपयों का भुगतान करना पड़ा है. जान है तो जहान है, रुपया तो आता जाता रहता है के सिद्धांत पर अटूट विश्वास है. इस मामले में हमें ये कहते हुए गर्व हो रहा है कि अपने बेटे प्रद्युम्न व बहू पुष्पा के जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार और देखभाल, और पोते-पोती सिद्धांत व संजना की आत्मयीयता  ने बहुत बड़ी शक्ति दी है. मेरी श्रीमती जो कभी महिला संगीत जैसे कायक्रमों में ठुमका लगाती थी, फिर से उन दिनों में लौट पायेगी, ये सोच कर मन होलोरें ले रहा है.
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