शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

नामगाँव का भोलू

जगदीश हलवाई को नामगाँव के लोग जग्गू सेठ के नाम से ही ज्यादा जानते थे. वह अपनी चौक पर स्थित मिठाई की दूकान पर टाट की बनी चौड़ी गद्दी पर विराजमान रहता था. बिक्री से जो रुपयों के नोट आते थे उनको एक लकड़ी के छोटे से बक्से में और सिक्कों को टाट पलट कर डाल देता था और सिक्कों के ऊपर आसन लगाए रहता था.

नामगाँव में एक बहुत पुराना शिव मन्दिर है और उसके बगल में शिव जी के मित्र कुबेर का मन्दिर भी बना था. मान्यता है कि कुबेर देवताओं के खजांची हैं. दीपावली में लक्ष्मी पूजा के बाद कुबेर की भी आरती उतारी जाती है. उसी उपलक्ष्य में पूजा अर्चना और मेला लगा करता था.

 हर साल की तरह मेला जुटा था. जग्गू सेठ की दूकान पर मिठाइयों की थालें सजी हुई थी. पेड़े, लड्डू, कलाकंद, रसगुल्ले, गुलाब जामुन, बर्फी, गुझिये, खुरमा, बालूशाही, इमरती, जलेबी, आदि तरह तरह की रंगीन मिठाइयाँ चांदी का वर्क चढ़ाकर सीढ़ीनुमा पटलों हरी चादरों पर रखी हुए थी. चमकीली वन्दनवारों की लड़ियाँ हवा में झूलती, घूमती, लहराती अपनी छटा बिखेर रही थी. मधुमक्खियों को भगाने के लिए तीन चार जगह धूप-अगरबत्ती जल रही थी.

बात पुरानी है. तब लोग मिठाइयों में मिलावट की कल्पना भी नहीं करते होंगे. खत्तों से दूध मंगवाकर कारीगर १५ दिन पहले से उसे घोट घोट कर मावा खुद बनाया करते थे. जगदीश और उसका बेटा खुद भी जी-जान से जुटे रहते थे. मेले के ख़त्म होने तक सारा माल बिक भी जाता था. अगर कुछ बच गया तो उसे जग्गू सेठ अपने भंडारे में बाँट दिया करता था. वह हर साल दिवाली मेले के बाद पूरे गाँव को जीमण दिया करता था. जगदीश हलवाई बहुत नम्र और दयावान व्यक्ति था. इसलिए भी सब लोग उसे सम्मान दिया करते थे.

वो सस्ता ज़माना भी था. तब चीनी चार रूपये प्रति सेर और दूध एक रूपये का दो सेर मिला करता था. वनस्पति घी या रिफाइंड तेलों का नाम किसी ने सुना भी नहीं था. सारे पकवान सरसों/मूंगफली के तेल में या शुद्ध घी में बनते थे. मिठाइयाँ भी आठ-दस रुपया प्रति सेर से ज्यादा नहीं हुआ करती थी.

गाँव मे अमीर कम, गरीब लोग ज्यादा रहते थे. आवश्यकताएं आज की तरह असीमित नहीं हुआ करती थी. वार-त्यौहार सभी का मनता था. सबके बच्चे मेले में जाते थे. गुब्बारे, कागज़ की चक्री-फिरकनी, बांसुरी, छोटे-छोटे खिलोने, हाथ में नकली घड़ी, आँखों में पारदर्शी रंगीन कागज़ के चश्मे, चूड़ी, चरेऊ, माला, फुनगे, बिंदी, नेल पालिश, रुमाल आदि आम चाहत की चीजें मेले में होती थी. दूर शहर से भी कुछ व्यापारी खील-खिलौने, बर्तन व कपड़े जैसी आम जरूरत की चीजें लाकर अपने अपने तम्बू तान कर दूकान लगा लेते थे. कुल मिलाकर इन दिनों नामगाँव में बड़ी रौनक हो जाती थी. माता-पिता या दादा दादी अपनी औकात के अनुसार अपने लाड़लों को रुपया पैसा खर्च करने के लिए देते थे. बच्चे बहुत दिनों से मन बनाए रखते थे कि उनको अबके मेले से क्या खरीदना है. बच्चों को सचमुच बहुत कौतुक होता था.

बच्चों की भीड़ से अलग एक लड़का था भोलू. जिसको उसके दादा ने मेला खर्च के लिए इस बार एक रुपया दिया था. उस एक रूपये के विनिमय के बारे में भोलू ने किसी को कुछ नहीं बताया, पर उसके मन में एक तूफानी योजना पल रही थी.

आजकल के बच्चे तो पैदा होने के थोड़े समय बाद ही मोबाईल, लैपटाप, कंप्यूटर, टीवी आदि के संचालन के जानकार हुआ करते हैं और इनका आईक्यू बड़े बड़ों को मात देता है, लेकिन तब ऐसा बिलकुल नहीं था गाँव के अधिकाँश बच्चे दब्बू और बाहरी दुनिया से बेखबर रहते थे. जो बातें अपने घर में सुना करते थे उनको ही अपना आदर्श मानते थे. गरीब आदमी के घर अकसर रूपये-पैसे की बातें होती रहती हैं, भोलू के दादा हमेशा सांसारिक बातों को घुमा-फिरा कर कहा करते थे, “रूपये को रुपया खींचता है.” ये बात भोलू के मन में गहरे बस गयी थी. वह सोचा करता था जब उसके पास रुपया हो जाएगा तो उसका रुपया अन्यत्र से रुपया खींचता रहेगा और मौज हो जायेगी. गरीब का एक ही सपना होता है--अमीर बनना.

आज भोलू बहुत खुश था उसकी जेब में एक पूरा कलदार रुपया था. उसको वह खर्च करने के बजाय अन्यत्र से रुपया खींचने में इस्तेमाल करेगा, ऐसा मन बना कर वह मेला स्थल पर चला गया. उसने अकेले ही सारे मेले का मुआयना किया और अंत में जग्गू सेठ की दूकान पर उसकी गद्दी के नजदीक आकर ठिठक कर खड़ा हो गया. वहाँ मिठाई की दनादन बिक्री और रुपयों-पैसों की आमद देख कर उसके मुँह में कई बार तरल थूक जमा हुआ और वह निगलता रहा. जब तब जग्गू हलवाई बोरी पलटकर रूपये-रेजगारी नीचे डालता था भोलू के मन में खनखनाहट होने लगती थी.

रूपये को रुपया खींचेगा ये इरादा करके उसने अपनी निकर की जेब के रूपये को बड़ी देर से मुट्ठी में भींच रखा था, जिससे हथेली में पसीना हो आया था. उसने मौक़ा देखकर रुपया सहित हाथ बाहर निकाला. सोचा, उसका रुपया चुम्बक की तरह ही सेठ के गल्ले से एक एक करके सिक्के खींचेगा तो मजा आ जायेगा. चूँकि ये चोरी थी इसलिए दिल धक धक भी कर रहा था. जब जब सेठ मिठाई तौलने के लिए हिलता और पीठ गल्ले की तरफ रखता भोलू अपना रुपया गल्ले की तरफ बढ़ाता ताकि वहाँ से रूपये खींचे जा सके, पर ये बालक की गलतफहमी थी, सिक्के तो खिंच कर नहीं आये, उलटे उसका रुपया गल्ले की तरफ गिर पड़ा.

भोलू रोने लगा तो स्वाभाविक रूप से वहाँ उपस्थित लोगों तथा खुद जगदीश हलवाई का ध्यान उस पर गया. रोने का कारण पूछा तो उसने सुबकते हुए अपनी चोरी करने के इरादे की दास्तान सच सच कह दी कि वह रूपये से रुपया खींचना चाहता था क्योंकि उसके दादा जी कहा करते हैं कि "रूपये को रुपया खींचता है."

उसके भोलेपन पर सभी उपस्थित लोग खिलखिलाकर हँस पड़े. एक व्यक्ति बोला, “तेरे दादा ने ठीक ही तो कहा. देख तेरे रूपये को सेठ जी के रुपयों ने खींच लिया है.”

जगदीश हलवाई को बालक के भोलेपन पर बड़ी दया आयी उसने पाँच रूपये भोलू को देते हुए कहा, “ये ले, तेरे रूपये ने ये खींच लिए हैं. खुश रह, पर आइन्दा इस तरह खींचने की कोशिश मत करना.”
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3 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी ही रोचक व भोली कथा, श्रम का क्रम भी समझाना होगा इसके लिये।

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  2. रूपये के दो सेर दूध ... आज की पीठी को तो विश्वास ही नहीं होगा .. उम्दा प्रस्तुति भाई .

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  3. बच्चों को सचमुच बहुत कौतुक होता था..........इसी कौतुक का नतीजा ही तो था जो भोलू अपने दादा के मुंह से सुनी 'पैसे को पैसे खींचता है' जैसी बात पर टिका रहा और इसका प्रयोग करने मेले में गया।

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