शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

ठाटिया से पाँच सितारा तक

जी.आई.सी. अल्मोड़ा में इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के बाद सन १९५६ में अपने साथ के कुछ लड़कों के साथ जाकर मैंने भी एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज में अपना नाम रजिस्टर करवाया था. वहाँ से कुछ ही समय बाद ‘ग्राम सेवक’ के पद के लिए मेरे पास भी कॉल लेटर आ गया था. अल्मोड़ा में उन दिनों खूब ठण्ड पड़ रही थी. मैं अपने गाँव से तिब्बती ऊन की एक गरम पंखी लेकर इन्टरव्यू की पहली शाम को अल्मोड़ा शहर पहुँच गया. किसी रिश्तेदार के घर न जाकर इस बार किसी होटल में ठहरने का इरादा किया था.

माल रोड पर जहाँ गाँधी जी का मूर्ति है, उसके निकट ही सड़क से लगा हुआ एक लकड़ी का बना ठाटिया होटल था. होटल वाला छोटी सी भट्टी बना कर चाय भी बेचता था. उससे बात करके ५ रूपये किराये में मैंने ऊपर वाली मंजिल का कमरा ले लिया. किसी होटल में ठहरने का ये मेरा पहला अनुभव था. होटल वाले ने बिस्तर के लिए पूछा तो मैंने मना कर दिया क्योंकि मेरे पास पंखी थी. कमरे में एक निवाड़ से बुनी हुई चारपाई के अलावा कोई सामान नहीं था. मुझे एक ही रात काटनी थी. मन में बहुत उत्साह था, पर नीद नहीं आ रही थी. ज्यों ज्यों रात गहराती गयी सर्दी भी बढ़ती गयी. जब कंपकंपी छूटने लगी तो मैंने स्वेटर सहित पूरे कपड़े पहने और पंखी ओढ़ कर उकडू बैठ गया. एक २५ वाट का बिजली का बल्ब था, जो कमरे को प्रकाश व गर्मी तथा मुझे तसल्ली दे रहा था. लकड़ी के तख्तों वाले उस फर्श पर चूहों की धमाचौकड़ी देखने को नहीं होती तो मेरा तब रात काटना मुश्किल जरूर होता.

बहरहाल, सुबह चार बजे बाहर चायवाली भट्टी में लकडियाँ जलने लगी थी. मैं आग सेकने वहां चला गया. बाद में अपनी ड्राईक्लीनिंग करके एम्प्लायमेंट एक्सचेंज चला गया. वहां सब ठीक ठाक हो रहा था, पर मेरे सर्टिफिकेट के अनुसार मेरी उम्र तब पूरे अठारह वर्ष होने में कुछ महीने बाकी थी अत: मेरा चयन नहीं हुआ. अन्यथा मैं भी अपने अन्य साथियों के साथ ग्राम सेवक बन गया होता और आज एडीओ/बीडियो बनकर रिटायर हुआ होता.

दाना-पानी आदमी को कहाँ से कहाँ ले जाता है इसका किसी को पता  नहीं रहता है.
कालान्तर में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय होता हुआ ए सी सी सीमेंट कम्पनी में नौकरी करते हुए  कर्मचारी युनियन का महामंत्री/ अध्यक्ष बनाया गया तो अपने जीवन की पथरीली राहों पर चलते हुए कई बार जयपुर रेलवे स्टेशन के बाहर सस्ते होटलों में, कभी दिल्ली का काम पड़ने पर फतेहपुरी के पुराने होटलों में, या पहाड़गंज की व्यस्त गलियों के होटलों की कोठरियों में तो कभी मुम्बई जाने पर ग्रांट रोड के गुजराती लॉज या होटलों में ठहरता था. एक बार एक सेमिनार में भाग लेने मैं खंडाला और एक बार मैनेजमेंट द्वारा आयोजित लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम में देवलाली तीन सितारा होटल में ठहने का अनुभव हुआ. इसके अलावा ऑल इंडिया सीमेंट एण्ड अलाइड वर्कर्स फेडरेशन (जिसका मैं वर्षों उपाध्यक्ष रहा हूँ) की विशेष सभा में त्रिचनापल्ली गया. वहाँ दक्षिण भारत की व्यवस्था वाले तीन सितारा होटल का अनुभव भी हुआ, पर ऐसा संयोग रहा कि मेरा  कभी भी पांच सितारा होटल के अन्दर तब तक नहीं जाना हुआ.

मुझे गांधीवादी ट्रेड युनियन लीडर थिरू जी रामानुजम जी के साथ पूरे देश के सीमेंट कर्मचारियों के लिए नियुक्त वेतन मण्डल की बैठकों में काम करने का अवसर कई बार मिला है. सन १९८५ में रामानुजम जी ने सी.एम.ए.(सीमेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन) के पदाधिकारियों से कहा कि “इस बार की मीटिंग किसी फाइव स्टार होटल में रखी जाये ताकि मजदूरों के प्रतिनिधि भी वहाँ के वैभव को देख सकें”.

खुद सादगी से रहने वाले रामानुजम जी राष्ट्रीय मजदूर कॉग्रेस के वर्षों तक बेताज अध्यक्ष रहे. वे जीवन के अन्तिम प्रहर में, नरसिंहराव जी के प्रधानमंत्रित्व काल में, ओडीसा और आंध्रा के राज्यपाल भी रहे. सी.एम.ए. उनको बहुत सम्मान देता था क्योंकि उनकी हर बात में सच्चाई और वजन होता था. रामानुजम जी द्वारा दिये गए आर्बिट्रेशन अवार्ड्स को सी.एम.ए. ने हमेशा बिना किसी हीलहुज्जत के लागू कराया.

सी.एम.ए. ने वह मीटिंग मुम्बई के नरीमन पॉइंट स्थित ओबेरॉय शेरेटन होटल में करना तय किया. निश्चित तिथि पर, हम देश के दूर दराज कस्बों/कैम्पसों से आये हुए यूनियन प्रतिनिधि गण वहाँ पहुंचे. वहाँ के अकल्पनीय वैभव, ठाट-बाट, नफासत, सजावट, तौर-तरीके देख कर स्तम्भित रह गए. ये अपने देश के अन्दर की अलग ही दुनिया है.

सत्रहवीं मंजिल यानि टैरेस पर भी मीटिंग का एक सेशन रखा गया था. वहां पर से पुरानी मुम्बई का विहंगम दृश्य देखा. पूरी चौपाटी नजर आ रही थी और पश्चिम में अगाध नीला अरब सागर बहुत विराट था. सच कहूँ अकल्पनीय था.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (19-10-2013) "शरदपूर्णिमा आ गयी" (चर्चा मंचःअंक-1403) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ठाटिया से पाँच सितारा तकका सफर बिंदास संस्मरण ही नहीं जीवन की भोगी हुई तस्वीर भी है।कच्चे पक्के रंगों वाली। ऐसा संस्मरण बे -लॉस पांडे पुरुषोत्तम ही लिख सकते हैं। अब तो दो वाक्य पढ़ते ही पता चल जाता है यह अपने पुरुषोत्तम जी ही हैं।

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  3. waah gliyaun 2 wa mahalau ke khatte meethe bahut sare anubhaw liy baithhe hai.

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  4. जीवन के रहस्यभरे मोड़ होते हैं, न जाने कब कहाँ क्या मिल जाये।

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