मंगलवार, 26 जुलाई 2011

पुराने किले बन गए हैं झरोखे

जहाँ काल को चूमती हैं उमंगें 
     सर्वस्व अर्पण किये डोलते हैं,
शिखा पर उलझते हुए ये पतंगे 
     हम वहीं पास पर जलाये हुए देखते हैं.

कहने को कहानी नई है मगर
    पुरानी डगर पर पथिक बस नए हैं,
वही धुप-छाहें कौतुक-कोलाहल 
     वृक्ष डाली पत्ते नए हैं.

नए पुष्प-भंवरे गुंजन पुराना
     कलियाँ महकती मदहोशियाँ हैं.
हमें याद आती अपनी बहारें
      वही मुक्त कानन अमराइयां हैं.

करे सूक्ष्म श्रंगार दर्पण मचलते 
       दृष्टिभेदी वसन पर वदन खेलते हैं,
हम सभी कुछ किये अब पुराने पड़े से,
    पहने लबादों के वजन झेलते हैं.

गर्वित उठे से थिरकन पिए से
      काजल से केशों के सुलझन को देखे,
मेरे  हस्त गंजापन नापते हैं
       पुराने किले बन गए हैं झरोखे.
                     ***       

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