गम्भीर सन्नाटा, भयावह अन्धेरा, हवा की फुसफुसाहट भी डरा रही थी. मोटे-मोटे घने पेड़ सड़क के दोनों ओर ऐसे खड़े हुए थे कि कई फर्लांग दूर तक सड़क सुरंग की तरह लग रही थी. आगे बहुत दूर क्षितिज पर एक दीप टिमटिमा रहा था. समय मध्य रात्रि से आगे बढ़ चुका था, वह अंदाजा लगाती है. ना जाने कब से वह भागे चली जा रही है? कितना और चलना होगा ? चिंतातुर तो अवश्य थी.
रात को घर से बाहर जाने में वह डरती थी पर आज इस नि:शब्दता में उसके पैर अपने आप आगे बढे चले जा रहे थे. वह अपने प्रिय का चिंतन भी करती जा रही थी, ‘कितना सुन्दर, सुडौल और प्यारा है उसका आदर्श?’ वह उसी के स्वरुप में खोई हुई है. ‘वह अभी सोया भी नहीं होगा. वह रातों में जागता रहता है. मैं जब अचानक पहुंचूंगी तो वह हैरान हो जाएगा, उसकी आंखों में नशा सा चढ जाएगा. कितना आनंद आ जायेगा हम दोनों को?
उसने धीरे से अपने बालों को पीछे की ओर फेरा, खुले बाल बेहद मुलायम थे, दोनों हथेलियों से अपने गालों को सहलाया तो बहुत ठन्डे-ठन्डे लगे. ‘ये ठंडक उसे भी सांत्वना देगी.’ फिर चलते–चलते उसने अपने हाथों से छाती व कमर को छुआ. उसे अपने ख़ूबसूरती पर भी नाज हो आया. उसकी हथेलियाँ साड़ी तक गयी और फिसल पडी. सोचने लगी, ‘कितनी मोहक लगेगी उसको मेरी साड़ी!’
उसका लक्ष्य दीपक अब ज्यादा दूर नहीं लग रहा था. वह मन ही मन मुस्कुराई, फिर सोचने लगी, ‘मेरा ये छलकता यौवन और मधुमय प्यार उसे मदहोश कर डालेगा. वह मुझ में समा जाएगा. अल्लाह ने हम दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया है.’
एकाएक मक्का और मदीने के दृश्य उसके जहन में आ गए. कुरान शरीफ की आयतें वातावरण में गुनगुनाने की आवाजें जैसी आने लगी. वह अभिभूत होकर सोचने लगी कि 'मैं अल्लाह की मर्जी से जा रही हूँ. वह भी अल्लाह का ही नुमाइंदा है, इसीलिए तो इतनी रात में मुझे इस तरह खींचा चला जा रहा है. इंसानों में ये सब कहा होता है?”
दीपक जब करीब आने लगता है तो वह और भी तेज हो जाती है. उसने अपनी आखें बंद कर ली हैं फिर भी उसे ना जाने कैसे रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है?
उसकी पलकों के अन्दर पुतलियाँ तेजी से घूमती महसूस होने लगी. पुतलियों में बैठा हुआ, वह भी तो घूम रहा था अचानक पुतलियाँ स्थिर हो गयी. उसका महबूब सामने खड़ा था. उज्जवल सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने, आभा मण्डल युक्त चेहरा, गले में मोगरे की माला, लखनवी टोपी, मंद-मंद मुस्कान लिए वह इस दुनिया के परे किसी और लोक का अतिमानव सा लग रहा था फिर एकाएक उसका दूसरा ही रूप उसने देखा कि वह फ़िल्मी अंदाज में गाने लगा. वह सुन कर विभोर हो गयी. वह खुद भी संगीत से बहुत मोह रखती है. बीन के साथ तबले की थाप नेपथ्य में सुनाई देने लगी. कितनी प्यारी सरगम है? शायद राग ___ है.’ उसके पैर भी थिरकने लगते हैं. उसे लगा सैकड़ों घुँघरू एक साथ छ्मकने लगे हैं.
अगले ही क्षण वह देखती है कि वह तो पीली पगड़ी, शेरवानी-चूडीदार पायजामा पहने सामने आ गया. उसका मुँह तो बंद था पर सुहावनी मधुर आवाज उसी की है. ‘वह पीर है तो ऐसे भी तो गा सकता है.’
अब वह उसके पास पहुँच गयी. वह सारी वीरानी व अन्धेरा कुचल आई है. दीपक में तेज प्रकाश तो है पर उसकी आंखें धुन्धला सी गयी है आँखों से दीपक की रोशनी पीने की कोशिश करती है. उसे महसूस हुआ कि वहाँ तो बहुत बड़ी महफ़िल बैठी हुई है, और उसका महबूब सबका सरताज बन कर बैठा है. दीपक उसके आगे है या पीछे ठीक ठीक अंदाज नहीं लगा पा रही है. वह और भी आगे बढ़ी तो उसने पाया कि दीप तो ऊंचे से स्तूप पर सजा है. स्तूप तो मस्जिद का ही है. चलो ये भी अच्छा हुआ कि महबूब मस्जिद में ही मिल गया. लोग ये तो नहीं कहेंगे कि किसी गैर मुसलमान से रिश्ता जोड़ा है.
मस्जिद में चढने के लिए बहुत छोटी-छोटी सीढियां क्यों बनाई होंगी? इनमें तो बच्चों के पैर भी पूरे नहीं आ सकते हैं. अवश्य ये मेरे पैगम्बर के हिसाब से बनाई गयी होंगी.
वह सीढियां चढ गयी. उसे विश्वास हो गया कि मंजिल तक पहुँच गई है. उसने खुदा का लाख लाख शुक्रिया अदा किया. पर ये क्या एक पल में नजारा बदल गया. वह एक गुम्बज के नीचे बैठा था. उसी के बदन से उजाला हो रहा था. क्या ये सब कोई माया है? वह अजब पेशोपेश में पड़ गयी. लेकिन जब वह आया और उसको अपने हाथों से सहारा देकर आसन तक ले गया तो एक स्वर्गीय अनुभूति का एहसास हुआ. उसका स्पर्श बड़ा मोहक था.
उसने कहा, “इतनी रात गए तुम इस तरह अकेली क्यों भटक रही हो?”
“मैं तुम्हें पाने के लिए सब छोड़ कर आ गयी हूँ.”
“देवी, तुम ये क्या कह रही हो? मैं ब्रह्मचारी साधक हूँ. ऐसा पाप कैसे स्वीकार सकता हूँ?”
“पाप-पुण्य की परिभाषा मैं नहीं जानती हूँ. मैं तो तुमको जानती हूँ. तुमको चाहती हूँ. ये मेरी वर्षों की साधना है खुदा के लिए अब मुझे दूर रहने की बात मत करो.”
वह उसके करीब जाने की कोशिश करती है पर वह दूर हट जाता है.
“देवी, तुम भावनाओं में बह रही हो. तुम बी. ए. तक पढ़ी हुई लड़की हो मैं रमता जोगी. दोनों के संस्कार भी अलग-अलग हैं.”
“मैं सब सोच समझ कर ही सभी कुछ छोड़ आई हूँ. अब आपके अलावा मेरा कोई और नहीं है. आप भविष्य मेरे हाथों में दे दो, बस. मैं आपको टालस्टाय, रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरतचन्द्र की तरह आदर्शों में नहीं उलझाना चाहती हूँ, गोर्की और मुंशी प्रेमचंद की तरह सामाजिक विषमताओं में नहीं भटकाना चाहती हूँ, जाँन डी.पासोस की तरह लड़ाई के मैदान में नहीं भेजना चाहूंगी, मैं आपको ज्याँ पाल सार्त्र की तरह विद्रोही नहीं बनाना चाहती हूँ, नाथाली सर्रात की तरह व्यक्तित्व विहीन नहीं रखना चाहती हूँ, आदिल रशीद, कृष्ण चंदर व गुलशन नंदा की तरह फ़िल्मी हीरो या खलनायक बना कर अपराध वृतियों में नहीं फ़साना चाहती हूँ, शिवानी की तरह चरित्र में नहीं उलझाऊंगी और ना गुरुदत्त की तरह ऐतिहासिक पुरुष बनाऊँगी. बाजारू साहित्य में आपका नाम नहीं लिखने दूंगी. मुझे नसीहत नहीं आपकी प्यार भरी स्वीकृति चाहिए. आप कलामय हैं, मुझे आपसे प्यार है.”
“देवी, ये सब नासमझी की बातें हैं. ये दुनिया तुम्हारे जज्बातों को नहीं निगल पायेगी. सुनती नहीं हो ये पत्थर तक हमारे बारे में क्या क्या बातें करने लगे हैं?”
उसने देखा सचमुच सभी पत्थरों के आड़े-टेढ़े मुँह से बन गए हैं. कुछ आवाजें भी आने लगी. शोर बढ़ता गया. देखते ही देखते चेहरों की भीड़ लग गयी. “मारो-मारो, ठीक कर दो, गुंडा गर्दी नहीं चलेगी. हम धर्म नहीं बदलने देंगे.”
वह डर गयी बहुत परेशान हो गयी, बड़े दर्द भरे स्वर में बोली, “चलो हम कहीं और चलें.”
वह उठ कर उससे चिपट गयी. एक बड़ा सा नुकीला पत्थर बह्मचारी के माथे से टकराता हुआ जोर से उसे आ लगा. वह जोरों से चिल्ला पड़ी, “हमको मत मारो.” और भयातुर हो उठ बैठी.
अम्मी सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी, बोली, “तू ये नावल-शावल पढना बंद कर, वरना किसी दिन जरूर पागल हो जायेगी. उठ, हाथ मुँह धो ले, चाय पी ले. आठ बज चुके हैं.”
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