सन १९६० में लाखेरी में ए.सी.सी. (एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी) के मैनेजर श्री पालेकर थे. बताते हैं कि उनसे पूर्व, प्रथम भारतीय मैनेजर श्री आर.एन. जय थे. उससे पहले सभी मैनेजर योरोपीय थे. पालेकर के बाद क्रमश: सर्व श्री महेंद्र सिंह रियल, कृष्णमूर्ति, पाई, राव, दुआ, जे.के. वालिया, पी.डी.ला, पी.एन.माथुर, गोविल, ओ.पी. जागेटिया व एन.एम्.शर्मा थे. मेरे कार्यकाल के आख़िरी सात वर्षों में, यानि १९९३ से श्री प्रेमकुमार काकू फैक्ट्री के जनरल मैनेजर/वाइस प्रेसिडेंट थे.
मैं सर्विस डिपार्टमेंट का कर्मचारी था. फैक्ट्री संचालन व प्रशासन से मेरा कोई वास्ता नहीं था लेकिन जब मैं कर्मचारी यूनियन का नेता बना तो सीधे तौर पर मैनेजमेंट के संपर्क में आने लगा. पर यूनियन प्रतिनिधि के रूप में मेरा चरित्र बिलकुल अलग किस्म का होता था.
बिट्स पिलानी के ग्रेजुएट श्री काकू के विषय में मुझे धुंधली सी याद है कि सन १९७०-७४ के बीच मैंने उनको कर्नाटक के शाहाबाद/वाडी कारखाने में एक नौजवान जूनियर इंजीनियर के रूप में देखा था. बाद में वे अस्सी के दशक में चीफ इंजीनियर बन कर लाखेरी आये. मेरा तब मी उनसे विशेष मेलजोल नहीं था.
यद्यपि फैक्ट्री पुरानी व खटारा स्थिति में थी, श्री काकू पर प्रोडक्शन संबंधी बड़ी जिम्मेदारी थी. कारखाने के लिए वे एक नर्स की तरह थे, जो मरीज की अंदरूनी हालत से पूरी तरह वाकिफ रहता है. कहाँ तार खराब हैं? कहाँ कन्वेयर बेल्ट कमजोर है? और कहाँ कहाँ नट बोल्ट ढीले हैं? सभी कुछ उनकी जानकारी में रहता था. मरीज ज्यादा बीमार हो तो डाक्टर की नींद-चैन कम होना स्वाभाविक है. उन दिनों की स्थिति वही ज्यादा जानते हैं. हम तो केवल अनुमान ही लगा सकते हैं.
उसके बाद उनका स्थानांतरण हो गया. जामुल, गागल, व मदुक्कराई में प्रमुख पदों पर होते हुए १९९३ में वे जनरल मैनेजर बन कर लाखेरी आ गए. तब तक लाखेरी में काफी उधेड़-बुन हो चुकी थी. उस संक्रमण काल में उनके अनुभव व अध्यवसाय का नमूना आज का नया कारखाना सबके सामने है. नए प्लांट को लगाने में वे विश्वकर्मा के भूमिका में थे. जिस तरह से निर्धारित समय में प्लांट तैयार हुआ, यह कहा जा सकता है कि उनका अथक फौलो-अप तथा निगरानी प्रशंशनीय है.
'घोड़ा उड़ सकता है' इस मुहावरे के वे प्रेक्टिकल रूप से साक्षी रहे हैं. उनको मैंने बहुत नजदीक से देखा और समझा है. वे काम के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे इसलिए अपने मातहतों से भी यही अपेक्षा करते थे. कुछ लोगों की धारणा थी कि वे बहुत सख्त आदमी है. यदि सख्ती नहीं होती तो सुखद रिजल्ट कभी नहीं मिलते. सच तो ये है कि वे अन्दर से नरम और दयालु व्यक्ति थे. बीमार कर्मचारियों या उनके आश्रितों को उन्होंने जिस प्रकार मदद की उसकी मिसाल नहीं है. कालोनी के रिहायसी मकानों में उन्होंने बहुत सुधार किये. सुरक्षा के प्रति उनका विशेष ध्यान रहता था. इस बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम चलाये थे.
वे ‘वृक्ष-मित्र’ की उपाधि से नवाजे गए थे क्योंकि पर्यावरण के बारे में उनकी सोच विलक्षण है. उन्होंने लाखेरी में ही नहीं गागल, जामुल, व मदुक्कराई, जहाँ भी रहे, लाखों पेड़ लगवाए. उनका वानकी कार्यक्रम एक जूनून की तरह रहा.
उनके कार्यकाल में सरकारों के तमाम विभागों में लाइजनिंग इतना अच्छा था कि सब तरफ मित्रता के हाथ उठते थे.
पारिवारिक जीवन में, जैसा मैंने देखा, वे सात्विक किस्म के इंसान हैं. मुझे उनके ९०+ आयु के पिता स्वर्गीय एच.के. काकू जी की मेडिकल व्यक्ति के रूप में कई बार सेवा करने का अवसर मिला. वे योग्य पुत्र के संतुष्ट पिता थे. श्रीमती लता काकू एक सरल, सुहृद गृहिणी ही नहीं विदुषी भी हैं. मैं सन २००२ में अपनी बेटी-दामाद और नातिनी से मिलने जब फिलीपींस गया तो मुझे नातिनी हिना के बुकसेल्फ़ में श्रीमती लता काकू की लिखी कहानियां (चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित्) मिली. मैं उनकी इस प्रतिभा से परिचित नहीं था. लाखेरी के सामाजिक कार्य कलापों में भी उनकी पूरी भागीदारी रहती थी. काकू दम्पति की दो बेटियाँ हैं अब दोनों विवाहित हैं अपने अपने परिवारों के साथ सुखी-संपन्न हैं.
एक विशेष बात मैं लिखना नहीं भूलूँगा कि श्री काकू कर्मचारियों के बच्चों की अच्छी शिक्षा के बारे में हमेशा चिंतित रहते थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में लाखेरी कालोनी परिसर में स्थित D.A.V. Public School की काया पलट करवाई. वे स्वयं स्कूल के कार्यकलापों में हिस्सा लेते रहे. भावी पीढ़ी के प्रति उनका ये आदर्शभाव प्रशंशनीय है.
रिटायरमेंट के बाद वे गुलाबी नगरी जयपुर में बस गए हैं और अभी भी अनेक संगठनों से जुड़ कर सक्रिय हैं. मै थोड़े से शब्दों में उनके स्वस्थ व सुखी रिटायर्ड जीवन की कामना करता हूँ.
***
स्वस्थ समृतियाँ
जवाब देंहटाएं