सोमवार, 14 नवंबर 2011

सरयू की गोद में


चीड की लकडियों से बनी चिता धू-धू कर जल रही थी. देवदत्त अपलक उन लपटों को देख रहा था मुर्दिये इधर-उधर समूहों में बैठ कर बतिया रहे थे. देवदत्त के मन-मस्तिस्क में पिता के साथ बिताये दिनों की समस्त यादें सिनेमा की रील की तरह घूम रही थी. रह-रह कर गला भर आता था और आँखों में पानी छलछला कर बाहर आ रहा था.

काशी के मणिकर्णिका घाट की तरह ही यह बागेश्वर का बागनाथ संगम घाट वैकुण्ठ धाम का द्वार समझा जाता है. उत्तराखंड की पहाडियों के बीच यह गहरी घाटी सरयू व छोटी गोमती का संगम स्थल है. पिण्डारी ग्लेशियर से निकल कर आने वाली इस सरयू का जल विशुद्ध गंगा-जल के ही समान रहता है. अनादि काल से लाखों करोड़ों लोगों को इस घाट पर सदगति मिलती आई है. आज देवदत्त के लिए अत्यंत विषादपूर्ण दिन था. उसके जनक, गुरू, अत्यंत स्नेहिल पिता की अंतेष्टि हो रही थी. वह अपने पिता से भावनात्मक रूप से भी बहुत गहरे तक जुड़ा हुआ था अत: वैराग्य भाव से पूरी तरह ग्रस्त हो रहा था.

यह बागनाथ घाट उसके लिए कुछ अति विशिष्ठ भी था. अबोध उम्र में देवदत्त ने अपने पूर्व जन्म की स्मृतियों को उजागर करके अपने माता-पिता को ही नहीं, बल्कि सारे इलाके को उत्कंठा व आश्चर्य में डुबो दिया था. नन्हा देवदत्त जब बोलने लायक हुआ तब वह अपने पूर्व जन्म की अनेक बातें बताने लगा. बागेश्वर स्थित बागनाथ मंदिर जाने की जिद करने लगा. उसका कहना था कि वह पुजारी परिवार का सदस्य था और भादों की संक्रांति पर्व पर सूर्यकुंड से तुम्बी बाँध कर अन्य तैराकों के साथ सरयू में कूदा था पर उसे सरयू ने अपने गोद में समा लिया था.

बहुत दिनों तक घर वाले इस बात को छुपाते रहे, लेकिन बात फ़ैल ही गयी. बालक देवदत्त एक दिव्य आत्मा की तरह समझा जाने लगा. एक नए वातावरण का घेरा उसकी इर्द गिर्द बन गया. उसका जन्मस्थान गौरीधाम, बागेश्वर मात्र १५ किलोमीटर दूर था और ये समाचार जल्दी ही पुजारी परिवार तक पहुँच गया. चूँकि उनके परिवार के एक जवान लड़के के साथ कुछ वर्ष पूर्व ऐसी दुर्धटना हो चुकी थी, इसलिए इस विवरण पर अविश्वास जैसी कोई बात पैदा ही नहीं हुई. उत्सुकता, खुशी और मिलन बहुत आत्मीय था.

देवदत्त दो परिवारों से जुड़ गया लेकिन उसके वर्तमान जैविक पिता उसे बांटने के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं रहे. उन्होंने उसे अपने ही रंग में ढालने के लिए तमाम खुशियाँ उपलब्ध रखी. जैसा कि म्रत्यु एक शास्वत सत्य है, एक दिन अल्पकालिक बीमारी से देवदत्त के पिता ने अपनी देह त्याग दी.

भादों मास की संक्रांति के दिन जब सरयू और गोमती दोनों ही उफान पर होती हैं तो परम्परागत रूप से दु:साहसी तैराक लगभग ढाई किलोमीटर उत्तर में सूरजकुंड से नदी में कूद पड़ते है. दर्शकों की भारी भीड़ संगम पर रोमांचित व उल्लासित होकर इनका स्वागत करती है. बरसात की अपार, दुर्गम, मटमैली जलराशि के थपेडों में नौजवान लडके कमर में चार-चार तुम्बी बांध कर लाइफ-सेविंग जैकेट की तरह ही इस्तेमाल करते है. अक्सर सभी लोग नगर वासियों का अभिनन्दन लेते हैं पर कभी-कभी हरि इच्छा कुछ और होती है, ऐसे भी नौजवान थे जो कभी नहीं लौट सके. हमारा नायक देवदत्त जिसका पिछले जन्म में सुदर्शन नाम था, मात्र २१ वर्ष की अल्पायु में सरयू की भेंट चढ़ गया था.

आज फिर भादो मास का ही एक उजला दिन था, सरयू और गोमती दोनों अपने यौवन पर इठला कर अथाह जल राशि लेते हुए सागर की तरफ दौड़ रही हैं. देवदत्त पूरी तरह शोकमग्न और हिप्नोटाइज सा हो रहा था. संगम की सीढ़ियों पर बैठा वह मानो लहरों में सैर कर रहा हो.

कपाल क्रिया कराओ, किसी ने पीछे से कहा. सारे मुर्दिये खड़े हो गए और कपालक्रिया का घी चिता में डलते-डलते नदी का जलस्तर एकदम बढ़ गया, बाढ आ गयी.

पीछे हो जाओ-पीछे हो जाओ, लोग चिल्ला रहे थे. जलस्तर चिता को बुझाते हुए उसके अवशेषों तक को बहाता हुआ ऊपर की सीढ़ी तक आ गया.

अचानक एक छपाक की आवाज आई. देवदत्त नदी में कूद गया था. फिर बह कर अदृश्य हो गया. सारे लोग विस्मय पूर्वक देखते रह गए. बचाने का मौक़ा ही नहीं था.

बार बार सरयू द्वारा उसको अपनी गोद में ले लेना, यही शायद उसकी नियति थी. सारे लोग शोकमग्न, ठगे से रह गए.
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