लाखेरी सीमेंट कारखाने के स्थाई कर्मचारियों के लिए एक बहुधंधी कोआपरेटिव सोसाइटी १९५१ में ही बनाई गयी थी. कंपनी के मैनेजमेंट द्वारा इसके काम काज पर पूरी रूचि व निगरानी रखी जाती थी. इसके मैनेजिंग कमेटी में ९ सदस्य चुने हुए तथा २ सदस्य मनोनीत होते थे. सोसाइटी बैंकिंग के काम के अलावा उपभोक्ता स्टोर भी चलाती थी. कई बड़ी उत्पादों की एजेंसी समिति के पास थी. जैसे बाटा, हिन्दुस्तान लीवर, ऊषा, टाइम्स आफ इंडिया, आदि.
अनाज का थोक व्यापार, कंट्रोल के दिनों में चीनी का थोक व रिटेल व्यापार भी समिति करती थी. कार्य कुशल मैनेजर, अकाउन्टेंट, सेल्समैन रख कर बड़ा सुव्यवस्थित कारोबार चलाया जा रहा था. सदस्यों को नकद ऋण, हायर परचेज की फाइनेंस, और दुकानों पर उधार की सुविधा थी. रिकवरी सीधे वेतन से कर ली जाती थी. उस सस्ते ज़माने में ३० लाख रुपयों का टर्न ओवर हो जाता था. १०% तक लाभांश व गिफ्ट भी सदस्य पाते थे.
अवैतनिक मैनेजिंग कमेटी में हर साल ३ सदस्य सीनिओरिटी के हिसाब से चुनाव द्वारा बदल जाते थे. इस स्वयं सेवा के कार्य में ऐसे लोगों की जरूरत होती थी जो अधिक से अधिक समय दे सकें. उन दिनों कारखाने में ‘मैनेजर’ डेजिगनेशन सिर्फ प्लांट हेड का ही होता था. स्वर्गीय सरदार महेंद्र सिंह रियल बहुत पुराने अनुभवी मैनेजर थे उन्होंने मुझे बुला कर चुनाव का फ़ार्म भरने के लिए कहा. इस प्रकार मैं सोसाइटी की कार्यकारिणी का सदस्य चुना गया. नए गठन में स्वर्गीय भंवरलाल जोशी को चेयरमैन व मुझे जनरल सेक्रेटरी बनाया गया. मेरे पास समय बहुत होता था. नए नए जोश में बहुत काम किये. लाखेरी कस्वे में एक अतिरिक्त ब्रांच उपभोक्ता स्टोर की खोली गयी, डी.सी.एम. कपड़ों की रिटेल शाप खोली गयी. उधारी नियमों में काफी ढील दी गयी. कर्ज देने की सीमा बढाई गयी. इस प्रकार सोसाइटी के इतिहास में एक क्रांतिकारी अध्याय जुड गया. साथ ही मेरी लोकप्रियता भी बढ़ी.
उन दिनों कामगार संघ के अध्यक्ष स्वर्गीय लखनलाल वर्मा थे. वे बुजुर्ग थे, स्थानीय गुर्जर जाति से थे, प्रभावशाली थे. उनका सीधा संपर्क बूंदी के स्वयंभू नेता पंडित बृजसुन्दर शर्मा (अनेक विभागों के मन्त्री) और राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. मोहनलाल सुखाड़िया से था. वे कारखाने में सेनीटरी इन्स्पेक्टर के पद पर थे. अस्पताल में ही उनका कार्यालय भी था. मैं उनका बहुत सम्मान करता था. इस बीच वे बहुत शराब पीने लगे थे. उन्होंने मैनेजमेंट से एक समझोते के तहत बरसों से मिल रही कुछ सुविधाओं को खतम करवा दिया, जिससे वे काफी बदनाम हो गए. कामगारों का कहना था कि इस समझौते के बदले में मैनेजमेंट ने उनके बेटे के नाम पर लाभकारी ठेका उनको दे दिया था.
१९६७ में जब अध्यक्ष पद का चुनाव होना था तो उनके विरुद्ध उनके विरोधियों को उम्मीदवार की तलाश थी तो मुझे सहज में पा लिया. मैंने भी कुछ सोचे समझे बिना हाँ कर दी. ये जरूर मेरा लोकतांत्रिक अधिकार था पर आज मैं सोचता हूँ कि ये मेरा दुस्साहस था. ये बड़ा चुनाव था. मैं बिना तैय्यारी के ‘मगर’ से मुकाबले करने चला और मामुली मार्जिन से चुनाव हार भी गया.
इसके बाद मैनेजमेंट के तेवर भी मेरे प्रति बदल गए. तीन साल बाद १९७० में फिर चुनाव होने थे. मेरे लिए बेहतर सम्भावनायें बनी हुई थी. मैं तब भी सोसाइटी का जनरल सेक्रेटरी था. चुनाव से तीन महीने पहले मुझे लाखेरी से बाहर सुदूर दक्षिण में कर्नाटक के गुलबर्गा जिले स्थित शाहाबाद कारखाने में स्थानान्तरित कर दिया गया.
मैं स्वाभिमान से पीड़ित था इसलिए स्थानांतरण रुकवाने के लिए मैंने न लखनलाल जी को हाथ जोड़े और ना मैनेजमेंट से निवेदन किया. ये स्थानान्तरण लखनलाल जी की कुर्सी को सुरक्षित रखने के लिए किया गया था. उनके ही इशारों पर हुआ था.
मैं सपरिवार शाहाबाद पहुँच गया. स्थानान्तरण से कष्ट तो बहुत सहने पड़े. सबसे बड़ा कष्ट बच्चों की पढाई के बारे में हुआ. लाखेरी में तब इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं होता था. शाहाबाद में हिन्दी माध्यम स्कूल नहीं था. अत दो दो क्लास नीचे माउंट कार्मेल कॉन्वेंट कॉन्वेंट स्कूल में भर्ती कराना पड़ा. बेसिक कोचिंग करवाकर कक्षा स्तर पर तैयार किया गया.
कहते हैं कि हर दुर्भाग्य अपने साथ अच्छाई के बीज भी लेकर आता है. आज पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो बच्चों के भविष्य की दृष्टि से ये वनवास एक बरदान सिद्ध हुआ लगता है. चार साल वहाँ कान्वेंट में पढने के बाद १९७४ में मुझे मैनेजमेंट ने वापस लाखेरी स्थानांतरित किया. तब तक लाखेरी में भी अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल खुल चुका था. बच्चों की बुनियादी शिक्षा इस तरह बहुत अच्छी हुई. ए.सी.सी स्कूल की मिडिल की परीक्षाओं में तीनों बच्चों ने अपने अपने परिक्षा वर्षों में टॉप किया. जो एक रिकार्ड है. स्कूल के कान्फ्रेन्स हाल में तीनो के नाम अंकित हैं.
मेरी लाखेरी वापसी नाटकीय थी. शाहाबाद, ट्रेड यूनियन आन्दोलन के मामले में एक शांत जोन था. मुझको मैनेजमेंट पर अपने प्रति किये गए व्यवहार से गुस्सा था. १९७२ में जब वेतन तथा दूसरी मांगों को लेकर देशव्यापी हड़ताल हुई तो मुझे माइक पकड़ने का मौक़ा मिला. मैंने जम कर मैनेजमेंट को कोसा. चूकि व्यवस्थाओं में छोटी-बड़ी अनेक कमियां रहती हैं, मैंने खूब उजागर करने की कोशिश की. हड़ताल समाप्त होने के बाद शाहाबाद के गान्धीबादी-कम्यूनिस्ट नेता, कामरेड श्रीनिवास गुडी, जो यूनियन के अध्यक्ष भी थे, ने मुझे जनरल सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया.
इधर लखनलाल जी स्वर्ग सिधार गए थे. मुझे मुम्बई कॉरपोरेट आफिस बुलाकर वापस लाखेरी जाने के लिए सलाह दी गयी. मेरा स्थानातरण मेरी इच्छा के बिना नहीं हो सकता था क्योंकि अब मैं ओद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत एक संरक्षित कर्मचारी हो गया था. लाखेरी जाने के मेरे आवेदन पर २४ घन्टे में स्थानान्तरण आदेश मिल गया. शाहाबाद में उस अल्पकाल में मुझे जो प्यार व आदर मिला वह मेरे जीवन का एक यादगार सुनहरा सपना सा है.
‘मगर’ से बैर करना मुझे भारी जरूर पड़ा लेकिन इस पूरे प्रकरण से दुनिया को देखने का मेरा नजरिया ही बदल गया.
मैं बाद में बरसों तक लाखेरी कामगार संघ का जनरल सेक्रेटरी व अध्यक्ष चुना जाता रहा. अखिल भारत सीमेंट कर्मचारी महासंघ का उपाध्यक्ष रहा, सीमेंट कामगारों के वेतन आयोगों में श्री रामानुजम जी और बैरिस्टर सी.एल. दूधिया जी का असिस्टेंट रहा. इस सबके साथ मैं अपने अभिन्न मित्र व साथी मोहम्मद इब्राहीम हनीफी का नाम लेना नहीं भूलूँगा, जिन्होंने पग-पग पर मेरी मदद की थी.
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khudaari bhara jeevan, preranaa dayak hai.
जवाब देंहटाएं@आज पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो बच्चों के भविष्य की दृष्टि से ये वनवास एक बरदान सिद्ध हुआ लगता है.
जवाब देंहटाएंप्रेरक वचन, कुछ क्षण के लिये भले ही कोहरा रहे, आखिर में सच की जीत होती ही है।