दिल्ली से पूर्व की ओर
उत्तर प्रदेश के बीचोंबीच नैशनल हाईवे नम्बर २२, जिसे ग्रांड ट्रंक रोड के नाम से
भी जाना जाता है, बादशाह शेरशाह सूरी ने (पेशावर से कोलकत्ता तक) बनवाई थी. कहते
हैं कि यह सैकड़ों वर्षों से मुख्य सड़क मार्ग रहा है. इसकी दुर्गति भी पथिकों से छुपी
नहीं है, पर अब जब से विश्व बैंक से रुपया उधार लेकर बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर के
नाम पर देश के अधिकांश सड़कों का उद्धार हुआ, इस हाईवे का भी नम्बर आया है, और
लाक्षणिक सुधार के तहत बढ़िया चौड़ी सड़क बन गयी है, हालाँकि अभी भी बहुत जगहों पर काम
अधूरे हैं.
गढ़मुक्तेश्वर और मुरादाबाद
के बीच एक स्थान आता है, जो गजरौला के नाम से प्रसिद्ध है. यहाँ बहुत सी खूबियाँ
होंगी, पर यात्रियों के लिए यहाँ के ढाबे/खानावल विशिष्ट हैं. पिछले कुछ वर्षों से
यहाँ बड़े हाई-फाई रेस्तरां/ढाबे भी खुल चुके हैं, पर पुराने दर्जनों ढाबे आम
यात्रियों के लिए लूट के प्रतीक भी बने हुए हैं. विशेष रूप से राज्य परिवहन (स्टेट रोडवेज) की बस से सफर करने वाले यात्रियों को यहाँ बड़ा बुरा अनुभव होता है.
ड्राईवरों तथा कंडक्टरों की
अलग अलग ढाबे वालों से मिलीभगत होती है और बस को वहीं पर रोका जाता है. बस खड़ी होते ही ढाबे का कर्मचारी बस का दरवाजा खोलने आ पहुँचता है. “दस रूपये
में पराँठा, सब्जी फ्री, आइये आइये भोजन कीजिये,” कह कर
स्वागतकर्ता की तरह ले जाता है. धूल भरे कच्चे फर्श पर मेज कुर्सियों पर बिठा कर
तुरन्त पानी, सलाद, आचार, दाल फ्राई की प्लेट लगा दी जाती है. पाँच रोटी/परांठे, इच्छानुसार सब्जी चावल व दही परोसा जाता है. खाना खाने के बाद जब बिल १०० रुपयों के
आस पास बताया जाता है तो यात्री को लगता है कि उसे लूट का शिकार होना पड़ा है. वह
प्रतिवाद करता है, बहस करने लगता है, तो सामने से एक पुलिसवाला भी बुला लिया जाता है, और अप्रत्यक्ष रूप से ढाबे वाले का समर्थन करते हुए पैसे देने को कहता है.
बेचारा यात्री मन मसोस कर भुगतान करता है. इसी तरह सभी भोजनार्थी लुटकर बस में
वापस बैठते हैं और बस के कंडक्टर पर गरम होते हैं कि "ऐसी जगह
बस को क्यों रोका गया?" पर कंडक्टर की तो पहले से सांठ-गांठ होती है. वह जवाब में कहता है, “मैंने
थोड़े ही आपसे खाना खाने कि लिए कहा. आप मना कर देते.” स्वयं
ड्राईवर और कंडक्टर एक विशिष्ट कमरे में मुफ्त का मांसाहारी/शाकाहारी भोजन गड़प कर डकार लेते हुए चलते
हैं.
ये रोज की चर्या होती है.
रोडवेज के उच्चाधिकारियों को इस बाबत अक्सर शिकायतें भी जाती हैं, और वे सब
जानते-समझते हैं, करते कुछ नहीं हैं क्योंकि तर्क है कि ड्राईवर कंडक्टरों की भी
युनियन है.
दूसरा सबसे बड़ा ख़तरा गजरौला
में ये है कि जहर खुरानों की टोलियां, टोह लेकर विभिन्न बसों में बैठ कर, पहले तो पहाड़
या नेपाल के यात्रियों से दोस्ती गांठते हैं फिर नशीली चीजें खिला कर उनके जेब में
रखे रुपयों और सामानों को लेकर चम्पत हो जाते हैं. अकसर अखबारों में समाचार छपते
हैं कि बेहोशी की हालत में बस वाले ऐसे यात्रियों को सड़क के किनारे/अस्पताल के गेट
के नजदीक उतार दिया गया. ये भी रोजमर्रा की बातें हो गयी हैं. इस तरह की जहर
खुरानी के लूट के माल में कौन कौन लोग शामिल होते हैं, स्थानीय पुलिस के पास इसकी
कैफियत-कुंडली रहती है. लेकिन बयानबाजी से ज्यादा कार्यवाही शायद ही होती हो. गरीब
अनजान लोगों को लूटने वाले तथा उनकी जान से खेलने वाले इन अपराधियों के विरुद्ध
क्यों नहीं युद्ध स्तर पर कार्यवाही की जाती है? ये बड़ा विचारणीय प्रश्न है.
ऐसे संवेदनशील जगहों पर
सीसी टीवी कैमरे लगाने चाहिए ताकि प्रदेश के इस खूबसूरत भू-भाग पर और बदनुमा दाग न
लग सकें.
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