अविभाजित अल्मोड़ा जिले में
अब से साठ साल पहले मोटर मार्ग बागेश्वर कस्वे तक ही बन पाई थी. बागेश्वर इलाके का
तीर्थ तथा व्यापारिक केन्द्र भी रहा है. बागेश्वर नीचे घाटी में स्थित है जहां से
जंगलात की चार फुट चौड़ी सड़कें चारों ओर आती जाती थी. उत्तर में कपकोट-पिण्डारी ग्लेशियर
वाला रास्ता सरयू नदी के किनारे किनारे जाता था, ऊबड़-खाबड़ था पर इतना दुर्गम नहीं
था जितना कि पूर्व दिशा के लिए बनी राह थी. जो ठेठ कांडा, बेरीनाग-पिथोरागढ़ को जोड़ती थी.
बागेश्वर से कांडा का
रास्ता लगभग नौ मील, चढ़ाई-उतराई ढलानों पर लकड़ीथल, जड़ियागाड़/मनकोट, बूढ़ाघुना-घिन्गार्तोला होकर जाता था. कांडा, कम्स्यार पट्टी में आता है. इस इलाके
की आबादी बहुत घनी रही है. कांडा कॉलेज से चारों ओर खुला विहँगम परिदृश्य दर्शनीय होता
है. कांडा पिछली शताब्दी के प्रारम्भ से ही शिक्षा का केन्द्र भी रहा है. इसलिए
यहाँ जन जागृति भी रही है. केन्द्र में होने के कारण रोजमर्रा की जरूरतों के लिए
आम लोगों का भी आना जाना खूब होता था. उपभोक्ता सामानों की कुछ दूकानें बहुत अच्छी
चलती थी. बागेश्वर के आढ़ती लोग माल भेजा
करते थे.
नैनसिंह धपोला अपने मामा की
दूकान पर बागेश्वर, दुग बाजार में काम करता था. थोड़ा सयाना हुआ तो मामा ने उसको
बागेश्वर से कांडा सामान ढोने के काम पर लगा दिया. एक लददू घोड़ा भी खरीद कर दे
दिया. नैनसिंह ने एक-दो वर्षों के अंतराल में ही अपनी कमाई से दो घोड़े और खरीद
लिए. वह अपने घोड़ों को सप्ताह में तीन बार लाद कर कांडा मुकाम करते हुए बागेश्वर
लौट आता था. बड़ी मेहनत और लगन से उसने अपने रोजगार को बनाए रखा. व्यापारियों का भी
उस पर पूरा भरोसा होता था घोड़ों के लिए भी बढ़िया दाना-पानी की व्यवस्था करके
हिफाजत की हुई थी. वह इलाके में नैनसिंह घोड़िया के नाम से पहचाना जाने लगा था.
उसकी शादी हो गयी और कुछ
वर्षों के अंतर में उसके तीन बेटे भी पैदा हो गए. १०-१२ साल का होते ही उसने बड़े
लडके पानसिंह को भी अपने साथ ट्रेनी-सहायक के रूप में ले जाना शुरू कर दिया. मझला
लड़का दानसिंह कुछ स्थानीय लडकों के साथ घर से भागकर हल्द्वानी चला गया. वहां किसी
होटल में काम करने लग गया. छोटा हीरासिंह था, जिसको सब ने मिलकर स्कूल पढ़ने के लिए
प्रेरित किया और वह काफी कुशाग्र निकला. बागेश्वर से हायरसेकेण्ड्री पास करके उसे अल्मोड़ा जाना पड़ा क्योंकि बागेश्वर में तब विज्ञान विषयों की पढ़ाई नहीं थी.
हीरासिंह की रूचि और लगन को
देखते हुए, आगे की पढ़ाई के लिए नैनसिंह ने अध्यापकों की सलाह पर उसे आगे पढ़ने के
लिए लखनऊ भेज दिया, जहां उसने बी.एससी. तथा बाद में धातु विज्ञान (मैटीरिओलोजी)
में एम.एससी. किया. पर बेटे को पढ़ाने के चक्कर में नैनसिंह का ट्रांसपोर्ट का
धन्धा मंदा हो गया. धीरे धीरे तीनों घोड़े बेचने पड़ गए. बड़े लड़के के लिए बागेश्वर
में चाय-पकोड़ी का एक खोमचा लगा दिया ताकि घर का खर्चा चल सके. खुद नैनसिंह की उम्र
भी हो गयी थी कि अब सामान लादने-उतारने का वजनी काम उससे नहीं हो पा रहा था.
उम्मीद थी कि हीरासिंह कहीं
बड़ी नौकरी में लग जाएगा और मोटी कमाई करेगा, घर की ग़ुरबत दूर हो जायेगी. हीरासिंह
बहुत महत्वाकांक्षी था. एम.एससी. करने के बाद उसका दायरा बहुत बड़ा हो गया. उसने
जुगाड़ करके मुम्बई के एक नामी स्टील कंपनी कैमिस्ट की नौकरी पा ली, जहाँ उसने दो चार वर्षों में स्टील की
फाउंड्री से लेकर मार्केटिंग की वृहद जानकारी हासिल कर ली और जल्दी ही अन्य
सहयोगियों की मदद से अपना निजी इलेक्ट्रोप्लेटिंग का कारोबार शुरू कर दिया. वह खूब
रूपये कमा रहा था, पर उसने अपने घर-परिवार को भुला दिया. वह घरवालों के संपर्क में
ही नहीं रहा. वह भूल गया कि उसे बड़ा आदमी बनाने के चक्कर में माता-पिता व अन्य
परिवारजनों ने अभाव व कष्ट झेले हैं.
अब जब वह बड़ा आदमी हो ही
गया तो उसके संपर्क भी बड़े हो गए. उसने एक गुजराती उद्योगपति की लड़की से शादी
कर ली जिसकी सूचना तक माता-पिता को नहीं दी. गरीब अनपढ़ घरवालों को बुलाना ठीक नहीं
समझा. मुम्बई में उसने अपना फ़्लैट खरीद लिया, तदन्तर वह बड़े व्यावसायिक करार में
हैदराबाद शिफ्ट हो गया. कंसल्टेंसी भी करने लगा. इस तरह वह दूसरी दुनिया का प्राणी
बन गया. इधर इन अनमोल वर्षों में माता-पिता सभी मायूस और अभावग्रस्त रहे, चाहते हुए
भी वे बेटे के संपर्क में नहीं आ सके. जब कोई नैनसिंह की दुखती रग को छेड़ देता तो वह
निराशा पूर्वक कह देता कि "हीरा के लिए तो हम मर चुके हैं.” आम तौर पर कोई माता-पिता अपनी औलाद को बददुआ नहीं देते हैं, चाहे वह कितने भी नालायक
हों, पर उनकी अंतरात्मा तो अवश्य दुखती है.
हैदराबाद में भी उसने अपने
लिए एक आलीशान बँगला खरीद लिया, जहाँ सभी आधुनिक सुविधाओं व साजो सामान उपलब्ध
थे. उसके पास नौकर-चाकर और ड्राईवर भी थे. शादी के पाँच साल बाद उसको एक पुत्र रत्न की
प्राप्ति भी हो गयी.
कभी कभी इतिहास खुद को
दोहराता है. बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो पापा से घुड़सवारी के लिए जिद करने लगा. रईस
हीरासिंह ने उसके लिए चेन्नई से एक बढ़िया नस्ल का घोड़ा खरीद कर मंगवाया. अब उसके
ठाठ निराले थे.
बच्चे के साथ मौज मस्ती में
एक दिन जब हीरासिंह खुद घोड़े पर सवार हुआ तो ना जाने क्यों घोड़ा बिगड़ गया. उसने उसको
उछाल कर जमीन पर गिरा दिया. उसकी रीढ़ की हड्डी+स्पाइनल कॉर्ड टूट गयी, और शरीर का
निचला हिस्सा पूरी तरह लकवाग्रस्त हो गया.
हीरासिंह पिछले दो वर्षों
से बड़े बड़े अस्पतालों में ईलाज कराते हुए
बिस्तर पर अपाहिज पड़ा हुआ है. अब पड़े पड़े उसे अपना बचपन, अपने माँ-बाप व भाई याद आ
रहे हैं. उनकी उपेक्षा का जो अपराध उसने किया था वह उसे कचोट रहा था.
हीरासिंह अपने माता-पिता व
भाइयों से मिलना चाहता था, पर स्वास्थ्य के कारण इस स्थिति में नहीं है कि पहाड़ लौट
सके. उसे बड़ा सदमा तब लगा जब उसे मालूम हुआ कि उसके बूढ़े माता-पिता तो कुछ साल
पहले ही दुनिया छोड़ चुके हैं. अब वह अपना अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है.
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
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