मेरे पौत्र चि. सिद्धांत ने जब उस साल बहुत अच्छे नम्बरों से ग्यारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की तो मैंने उसके सामने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, “तुम जरूर मेरा नाम रौशन करोगे.” इस पर तुरन्त प्रतिक्रिया देते हुए उसने कहा, “दादा जी, ये बात सही नहीं हो सकती. क्योंकि आज तक का इतिहास आप देख लो किसी भी बड़े सेलेब्रिटी के नाम के साथ उसके दादा का नाम कभी नहीं जुड़ा.” (सिद्धांत इन दिनों फिजिक्स में P.hd. कर रहा है.)
मैं इस दलील से हतप्रभ रह
गया और सोचने लगा कि सचमुच किसी आविष्कारक, वैज्ञानिक या बुद्धिजीवी के नाम के साथ
उसके दादा का परिचय कभी नहीं होता है. हाँ राजाओं-बादशाहों की बात और है. गाँधी
जी नेहरू जी को ही लो, उनके दादा का नाम शायद ही कोई जानता हो. इन पुराने बड़े
लोगों के स्मृतिचिन्हों को सहेज कर रखना हम आधुनिक पीढ़ी के लोगों का शुगल जरूर है, पर इसकी उपयोगिता क्या है? जरूरत तो इस बात की है कि उनके
द्वारा स्थापित आदर्शों पर चला जाये, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर हम सब ढोंग करते हैं.
मेरे पास भी अपने स्वर्गीय
पिता के स्मृतिचिन्ह है-- एक जेब घड़ी, जो उन्होंने सन १९३८ में अपने
मुम्बई प्रवास के दौरान खरीदी थी. ये घड़ी बरसों पहले से ही जीर्णावस्था में है,
मरम्मत योग्य भी नहीं है. अन्दर के सभी लोहे के पुर्जों पर जंग लग कर जाम हो गया
है, सेकंड की सुई भी गायब है. चूँकि ये पिता की प्यारी घड़ी थी जिसे उन्होंने
बरसों अपनी वास्कट की जेब में हिफाजत से सम्हाल कर रखा था, अब मेरा तो एक
भावनात्मक लगाव है, जिसे मेरी बाद वाली पीढ़ी कूड़ा ही समझेगी.
तब घड़ियाँ, संभ्रान्ति की द्योतक होती थी. घड़ियाँ आम तौर पर यूरोप के देश स्विट्जरलैंड से बनकर आती थी. मेरे
पिता की घड़ी, Railway Timekeeper, भी गुजरे जमाने की ऐतिहासिक आईटम
हो गयी है क्योंकि आज के संचार युग में हाथ में घड़ी, मोबाइल में घड़ी, कम्प्युटर-टेलीविजन
में घड़ी, आठों दिशाओं में हर कोण पर समय के मानक चिपके हुए हैं, हालाँकि फिर भी
राह चलते पूछने वालों की कमी नहीं है कि “क्या टाइम हो गया?”
समय भाग रहा है या हम भाग
रहे हैं? ये दुविधापूर्ण प्रश्न है. बहरहाल तीसरी पीढ़ी के बाद कौन दादा-परदादा की याद कर पाया है? मैंने तो अपने दादा रमापति पाण्डेय को देखा भी नहीं था. पिताश्री प्रेमबल्लभ पाण्डेय के साथ गहरा जुड़ाव
रहा इसलिए उनकी स्मृति चिन्ह, इस जेब घड़ी, को बहुमूल्य सामानों के साथ सहेज कर रखा
है; हाँ अपने घर का नाम मैंने ‘पितृ-छाया’ जरूर रखा
है.
***
जरूरत तो इस बात की है कि उनके द्वारा स्थापित आदर्शों पर चला जाये'
जवाब देंहटाएंसलामत रहे 'पितृ छाया'
आपकी पोस्ट 24/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा - 889:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
aapake pote ne bilkul sach hi kaha hai. insaan apane karmon se hi yaad kiyajata hai. rajneeti aur cheej hai jahan par kuch naam peedhiyon tak chalte rahate hain lekin vah bhi tab jab vah kaabil hon. Mahatma Gandhi ke aage ke vanshajon ke naam kisako pata hain. pita ka naam unake itihas men juda hai isaliye padh liya jata hai.
जवाब देंहटाएंham khud aise kaam karen jisase hamara naam liya jaay.