शुक्रवार, 11 मई 2012

अश्व-गाथा

अश्व यानि घोड़ा, प्रागैतिहासिक काल से ही मनुष्य का पालतू-मित्र पशु रहा है. यह एक बुद्धिमान व बलशाली स्तनपायी जानवर है. मनुष्य ने अपनी सवारी के लिए इसे पालतू बनाया होगा. प्राचीन गुफाओं में अनेक भित्तिचित्र इसके सबूत हैं. घोड़े का वैज्ञानिक नाम ईक्वस कैबैलस है, इसी का अपभ्रंश होकर अंगरेजी में होर्स और संस्कृत में अश्व हो गया लगता है. मूल रूप से अन्य जानवरों की ही भाँति यह भी जंगली था. आज भी मंगोलिया, तुर्किस्तान तथा दक्षिण अफ्रीका के घास के मैदानों में जंगली घोड़े, झुण्ड बना कर रहते हैं. झुण्ड का लीडर नर घोड़ा, अपने हरम की पूरी निगरानी करके रखता है.

रामायण में अश्वमेध यज्ञों तथा महाभारत में घुड़सेना का विस्तार से वर्णन आता है. आदि विद्याओं में घोड़ों के बारे में शालिहोत्र शास्त्र का नाम आता है. महाभारत में राजा नल और नकुल को इस शास्त्र का पंडित बताया गया है.

घोड़ा प्रजाति में खच्चर, टट्टू.जेबरा, भोट, और गदहा कई नाम व आकार के जानवर हैं, जिनकी अलग अलग विशेषताएं हैं. घोड़ों की भी देश काल के अंतर के कारण कई नस्लें हैं. अरबी नस्ल का घोड़ा सर्वोत्तम कहा गया है. कहते हैं कि अरबी घोड़ा कभी भी नीचे जमीन पर नहीं बैठता है, जीवन भर खड़ा ही रहता है.

मध्य युग में घोड़ा राजशाही व संभ्रान्ति की सवारी रहा. युद्ध के मैदानों में शूरवीर घोड़ों पर सवार होकर ही अपना शौर्य दिखाते थे. आज भी सवारी के रूप में घोड़ा/घोड़ी का चरित्र सबसे अलग है. यद्यपि पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों में मोटर-साइकिलें, मोटर-कारें व ऑटो इन्जन वाली सवारियां सडकों पर दौड़ती हैं, पर घुड़ सवारी के शौक़ीन आज भी
प्राचीन विधा अपनाये हुए हैं. यूरोप व अमेरिका में घोड़े पालने व उनका वंश बढ़ाने के अनेक आधुनिक फार्म कई छोटे-बड़े स्तरों पर मौजूद हैं.

हमारे देश में तांगे, बग्घी, रेहड़ी चलाने के अतिरिक्त दुर्गम स्थानों में सामान पहुंचाने के लिए घोड़ों का इस्तेमाल किया जाता है. बारातों में दूल्हे के लिए घोड़ी को शुभ और शान की सवारी माना जाता है. सिख धर्म में घुड़सवार निहंगों की अलग पहचान है.

गणतन्त्र दिवस तथा संसद के उदघाटन के अवसर पर राष्ट्रपति के घुड़सवार अंगरक्षक अंग्रेजी राज्य की परम्परा को आज भी जीवित रखे हुए हैं. मिलिट्री व पुलिस बल के साथ उनकी घोड़ेवाली टुकड़ी चुस्त=दुरस्त रहती है, जिनको नियमित व्यायाम व करतब करना सिखाया जाता है. इनकी देखभाल खाना-खुराक भी विशेष होती है. प्रशिक्षित सईस इनकी खैरख्वाही में नियुक्त रहते हैं. अंग्रेजों के जमाने में जब किसी घोड़े को फ़ौज से रिटायरमेंट दिया जाता था तो  उसे गोली मार दी जाती थी ताकि उसे सिविल में आकर किसी प्रकार का कष्ट व आभाव झेलने की नौबत ही न आए.

घोड़ा व गदहा के बीच की शंकर प्रजाति खच्चर/खेचर होती है, जिसकी प्रवृत्ति चँचल व थोड़ी छिछोर होती है, पर दुर्गम स्थानों तक सामान पहुंचाने के लिए सेना व सिविल दोनों के लिए इन्ही की सेवा ज्यादा ली जाती है.

बड़े शहरों में अब जबकि इंसानों के लिए ही जगह सिमटती जा रही है तो घोड़े जैसे जानवरों के लिए कहाँ ठौर मिलेगी? दूर देहात में इनके बसेरे होते हैं. कुछ पुरानी फिल्मों में जैसे भाभी, विक्टोरिया नम्बर २०३ शोले आदि डाकुओं पर आधारित कथानकों अथवा धार्मिक धारावाहिकों में घोड़ों की टॉप सुनाई देती है. कुछ राष्ट्रनायकों में जैसे  शिवाजी महाराज, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई व महाराणा प्रताप के साथ उनके यादगार घोड़ों के स्मारक बसे हुए हैं. यहाँ कुमायूं में प्राचीन मूमिदेव गोल्ल ज्यू की मूर्तियां श्वेत घोड़े पर सवार, सुसज्जित  मिलती है. अब महानगरों के बच्चों को तो डर्वी रेस के घोड़े या विज्ञापनों में अथवा कार्टूनों में पंख लगे, उड़ते हुए घोड़े मात्र दिखाई देंगे या कभी मुम्बई-गोवा के समुद्रतट पर घुड़सवारी का जायका बताया जा सकेगा. ऐसा ना हो कि शहरी लोगों की  आने वाली पीढ़ियों के लिए घोड़ों को म्यूजियम या चिड़ियाघर में रखने की नौबत आ जाये.
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