बुधवार, 9 मई 2012

परमार्थ

जैन मुनि तरुण सागर जी महराज अपने प्रवचनों में खरी खरी बातें, एक अलग ही अंदाज में कहा करते हैं. वे स्वयं त्याग और तपस्या की मूर्ति हैं. समकालीन उपदेशकों में वे सीधे सीधे समाज को संबोधित करते हैं तथा सद्मार्ग दिखाते रहते हैं. एक प्रवचन में वे कह रहे थे कि धनवान लोगों को अपनी कमाई का उपयोग एक ट्रस्टी की तरह करना चाहिए. सुपात्रों, गरीबों, व भूखों को दान देना चाहिए और दान देकर भूल जाना चाहिए क्योंकि सारी संपदा भगवान की है. सँसार में आपका हिस्सा तो बस उतना ही है, जितना आप खुद खा पाते हैं अथवा दूसरों को खिलाते हैं. इसी तरह महात्मा गाँधी जी ने भी धनवानों-कारखानेदारों को कहा कि वे अपनी सम्पति को एक ट्रस्टी के रूप में देखें और उपभोग करें.

मध्य एशिया के मुस्लिम इतिहास में संत इब्राहीम का नाम कई सन्दर्भों में आया है. वे बादशाह हुआ करते थे, बड़े अल्लाह वाले थे. देव प्रेरणा से उन्होंने त्याग और वैराग्य प्राप्त किया. एक स्मरणीय दृष्टान्त, उनके बारे में ये है कि वे नित्य एक भूखे व्यक्ति को भोजन करवाते थे, पर एक बार उनको दूर दूर तक कोई भूखा व्यक्ति नहीं मिला. अंत में खोजते खोजते एक भूखा वृद्ध उनको मिल ही गया, जिसे भोजन कराने के लिए वे अपने साथ लिवा लाये. भोजन परोसने पर जब आगंतुक खाने के लिए तत्पर हुआ तो संत ने उससे कहा, तुमने खाने से पूर्व की नमाज नहीं पढ़ी? वह बोला, मैं तुम्हारे मजहब का नहीं हूँ, अग्नि-पूजक हूँ जिसे मैंने मन ही मन नमन कर लिया है. संत इब्राहीम को काफिर (खुदा को न मानने वाला) को भोजन कराना अच्छा नहीं लगा और कुछ कह डाला. आगंतुक बिना भोजन किये ही उठ कर चल दिया. संत को अपने व्यवहार पर बड़ा अफ़सोस हुआ क्योंकि भूखे व्यक्ति की जाति-धर्म नहीं देखनी चाहिए थी. ताउम्र उन्होंने अपने प्रवचनों में इसका उल्लेख किया.

आजकल जो देखने में आता है उसके अनुसार जो लोग सामाजिक या धार्मिक कार्यों के लिए धन देते हैं, उसका वे पहले माइक पर घोषणा कराते हैं या शिलापट्टों पर अपने धर्मात्मा होने का लेख लिखवाते हैं. यद्यपि ऐसे मनीषी भी हैं, जो हमेशा गुप्त दान या गुप्त मदद दिया करते हैं. इन्ही लोगों के परमार्थ व धर्म से ये पृथ्वी शून्य में टिकी हुई है.

हमारे शास्त्रों में, आप्तोपदेशों में परोपकार पर बहुत कुछ कहा गया है. एक नीतिपरक श्लोक में लिखा है:
          परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:
          परोपकाराय बहन्ती नद्य:
          परोपकाराय दुहन्ति गाव:
          परोपकारार्थ  इदं शरीरम  

मृत्युपरांत हमारा भौतिक शरीर मिट्टी हो जाता है, तो इसके नष्ट होने से पहले इसके अवयव कहीं परोपकारी कार्यों में दान दे दिये जाएँ तो कितना अच्छा हो? आये दिन अखबारों में, इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नेत्रदान/अंगदान की अपीलें छपती हैं, पर कितने लोग प्रेरणा ले पाते हैं? ये विचारणीय विषय है. सभी प्रबुद्ध लोगों को इस बारे में अपने आस-पास समाज को शिक्षित करना चाहिए.
                                     ***

1 टिप्पणी: