रविवार, 10 जून 2012

गोद भराई

बरखा रानी का पीहर रामनगर में है. साल भर पहले जब उसकी शादी हल्द्वानी के प्रवीण से हुई तो वह मनचाहा ससुराल पाकर बहुत खुश हो गयी. स्नेहिल सास-ससुर व प्यार करने वाला सुन्दर पति मिले, घर में सब प्रकार से समृद्धि हो तो कौन लड़की अपने भाग्य को नहीं सराहेगी?

सब ठीक ठाक चल रहा था, पर इस बार जब वह मायके गयी तो बड़ी उलझन साथ ले आयी. हुआ यों कि वहाँ बरसों से पल रही उनकी कुतिया ने इस बार पाँच प्यारे से पिल्लों को जन्म दे रखा था, जो बड़े बड़े हो गए थे. बरखा के मन में आया कि एक को अपने साथ ससुराल ले जाऊं’. माँ तो बहुत खुश हो गयी कि इस तरह एक पिल्ला तो कम होगा ही, ससुराल में बरखा का समय भी इसके साथ मजे से कट जाएगा. पिल्ले का लूसी नाम रख कर हल्द्वानी ले आई.

बरखा जिस उत्साह से पिल्ले को साथ ले आयी थी ससुराल पहुँचने पर वह काफूर हो गया क्योंकि घर के किसी भी सदस्य को पिल्ला रास नहीं आया. सास तो ब्लड प्रेशर वाली है. थोड़ी भी खटपट से नींद खराब हो जाये तो बेचैन हो जाती हैं, ससुर जी ने जब पिल्ले को देखा-परखा कि वह फीमेल है, तो उनको बिलकुल अच्छा नहीं लगा क्योंकि कुतिया जब जवान हो जाती है तो उसके पीछे आवारा कुत्तों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है. प्रवीण को लगा कि बरखा का आधे से ज्यादा प्यार उस पिल्ले पर न्यौछावर होने लगा है, उसकी साफ सफाई, लाड़-प्यार व खुशामद में ही बरखा व्यस्त रहने लगी. इस प्रकार प्रवीण को पिल्ले से एक प्रकार से नफरत सी हो गयी. वह अक्सर बरखा से कहने लगा कि तुम्हारे बदन तथा कपड़ों से कुतिया की बदबू आ रही है.

एक हँसते-खेलते वातावरण में मानो लूसी के आ जाने से जहर घुल गया, लेकिन बरखा को घर के लोगों का व्यवहार बहुत बुरा लग रहा था. जैसे जैसे घर वालों की हिकारत बढ़ती गयी, बरखा का लूसी-प्रेम भी परवान चढ़ता गया.

जब आपस में प्यार- मोहब्बत हो तो बुराइयों में भी अच्छाई नजर आती हैं, लेकिन जब मनोमालिन्य हो जाये अच्छाई भी खोट लगने लगती है और जब परिवार वाले एक दूसरे की भावनाओं को महत्व नहीं देते हैं तो अहं की लड़ाई शुरू हो जाती है. प्रवीण बहुत उदास रहने लगा. कुतिया पर उसका गुस्सा तब फूट पड़ा जब उसने उसके रेड चीफ जूते को एक तरफ से चबा डाला. उसने कुतिया को घर के बाहर निकाल कर दो डंडे दे मारे. लूसी का रोना-चिल्लाना सुन कर जब बरखा वहाँ पहुँची तो उसने अपनी प्यारी कुतिया को लंगडाते हुए, कराहते हुए पाया. बरखा ने अपने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, पर अपने तेवरों से गुस्से और घृणा का संदेश जरूर दे दिया.

बरखा लूसी को अस्पताल ले गयी वहाँ ऐक्स रे से मालूम हुआ कि उसकी टांग की एक हड्डी टूट गयी है. डाक्टर ने स्पिलिंट बाँध दिया. वह उसे घर ले आई. घर में तनाव था कोई भी बरखा से सीधे मुँह बात नहीं कर रहा था. सभी जने उसके साथ अवांछित की तरह व्यवहार कर रहे थे. प्रवीण से उसकी बोलचाल बन्द सी हो गयी. पति का यह रुख उसके लिए असहनीय हो रहा था अत: चौथे दिन उसने हार मानते हुए कह दिया कि इस लूसी को आप किसी को दे दो, ताकि झगड़े की जड़ ही ना रहे.

प्रवीण यही तो चाहता था उसने गली में झाड़ू लगाने वाले दो छोकरों को बुलाया एक सौ का नोट पकड़ाया, और लूसी को बोरी में डलवाकर दूर बरेली रोड पर हल्दूचौड़ की तरफ छोडने के लिए कह दिया. छोकरे खुश थे, बोरी में लूसी को लेकर साईकिल से आरिचित जगह छोड़ आये. घर में अघोषित शान्ति आ गयी. बरखा मन ही मन तो बहुत दु:खी थी. लूसी घायलावस्था में भूखी प्यासी होगी, यह सोच सोच कर वह चिंतातुर तो थी, पर उसने अपने मन की व्यथा को जाहिर नहीं होने दिया.

दूसरे तीसरे दिन तो बात आई गयी हो गयी, पर अगले सुहावने सवेरे में सासू जी क्या देखती हैं कि लूसी घर के गेट पर बैठी अन्दर को निहारती दीन भाव में कूँ-कूँ की आवाज निकाल रही है. उसकी हालत देख कर उनका दिल पसीज गया. उसे अन्दर लेकर दूध-रोटी खिलाई, बेचारी तीन दिनों से भूखी प्यासी थी. ये माँ का मन था जो स्वाभाविक ही द्रवित हुआ था.

घायलावस्था में इस प्रकार दूर छुड़वाना प्रवीण के पिता को भी अच्छा नहीं लगा था. हाँ, घटना के बाद बरखा ने लूसी से अपनी संबद्धता बिलकुल कम कर दी. घर में तय हुआ कि टांग ठीक होने के बाद लूसी को बुआ के पास पटवा डांगर (नैनीताल के निकट पहाड़ पर) पहुँचा दिया जाये. बुआ से प्रवीण की बात हुई तो वो भी राजी थी. यों एक-डेढ़ महीने में लूसी ठीक से चल फिर सकने लगी तो प्रवीण के पिता उसे अपनी जीप में रस्सी से बाँध कर पहाड़ की तरफ चल पड़े. सब को सन्तोष हुआ कि घर पर लगा हुआ ग्रहण समाप्त हो गया है.

दो घन्टे के बाद पिता जी का नैनीताल से फोन आया कि कुतिया, रानीबाग व दोगाँव के बीच चलती जीप में से कूद कर भाग गयी है. चलो छुटकारा मिला प्रवीण की पहली प्रतिक्रिया थी, साथ ही वह ये भी बोल गया कि लूसी थी बहुत समझदार. माँ बोली, चलो, उसे कहीं अच्छे लोगों का घर मिल गया तो सुख पायेगी. बरखा की अब इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, वह तो अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के सपने बुनने में लग गयी थी.

कुतिया को गए आज लगभग १५ दिन हो गए थे. घर में सतमासा (गोद भराई) का आयोजन किया गया था गली मोहल्ले की महिलायें, रिश्तेदार व मायके से माँ व भाभी सब आ गये थे. घर के पिछवाड़े मैदान पर शामियाना ताना हुआ था, ढोलक की थाप पर लडकियां फ़िल्मी धुनों में बढ़िया गाने सुनाने लगी थी. दो कुमाउनी परम्परागत गीतों की गिदार महिलायें अपनी तर्ज पर मंगलाचरण गा रही थी. सब तरफ रौनक थी. महिलायें गोलाई में बैठ कर सजी-धजी जेवरों से लदी बरखा रानी को देख रही थी. जब कार्यक्रम अपनी चरम पर चल रहा था, ऐसे में लूसी ना जाने कहाँ से घुस कर बरखा की गोद में आकर बैठ गयी.

खूब हंसी ठठ्ठा हुआ, सासू जी बोली, अब हम लूसी को कही नहीं भेजेंगे, ये बहू की गोद भराई का हिस्सा बन गयी है, और इस प्रकार अब लूसी साधिकार घर में रहती है.
                                            ***

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है!!
    आपके इस सुन्दर प्रविष्टि का लिंक दिनांक 11-06-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगा। सादर सूचनार्थ

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  2. बहुत भाव प्रबल कहाँनी ...
    छोटी छोती बातों पर बड़ी बड़ी खुशियाँ निर्भर करती हैं ....
    सादर
    शुभकामनायें.

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  3. सुखान्त लिए घटना| श्वान सहजता से अपने स्वामी को नहीं छोड़ते, ऐसे काम मनुष्य बहुत अच्छे तरीके से करता है|

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  4. मूक जीवों के भाव और भंगिमाओं को समझना ही इंसान बनने का प्रथम चिन्ह है| इस नश्वर जीवन में जितना महत्व हम निर्जीव वस्तुओं पर देते हैं उसका लेस मात्र भी प्रेम और सानिध्य को देते तो जीवन इतना कुंठित नहीं होता|

    अपने घर प्रांगन कि खुशबू से ओतप्रोत इस कहानी में पहाड़ो कि भीनी बीह्नी यादें और महिलाओं का पढूँ के प्रति प्रेम देख क दिल गदगद हो गया:)

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  5. Jeevan k Utaar-chadhaav...:) Bhavna-pradhan lekh ati uttam hai!

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  6. nice story uncle!
    it is full of innocence and different forms of affection!

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