ख्यालीराम तिवारी और उनकी
पत्नी गोविन्दी देवी की जिंदगी साफ़ सुथरी पहाड़ी सड़क की तरह सीधे सीधे गंतव्य की
तरफ चलती रही, बीच में ऊबड़-खाबड़ मोड़ और गधेरे भी बहुत थे, पर उन्होंने अपने जीवन
के तीसरे पहर में अपनी मंजिल पा ली. मंजिल ये थी कि उनका इकलौता बेटा दीपू उर्फ
दीपक को कोई बड़ी नौकरी मिल जाये. उसने पन्त नगर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. करने
के बाद एक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छा पद पा लिया. उसकी नियुक्ति आंध्र
प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में हो गयी. इस तरह माँ-बाप का सपना पूरा हो गया.
ख्यालीराम तिवारी खुद एक
प्राइवेट कंपनी में बतौर एक क्लर्क काम करके दस साल पहले रिटायर होकर रुद्रपुर,
उधमसिंह नगर में आवास-विकास कालोनी में एक एम.आइ.जी. मकान खरीद कर रह रहे हैं. जिंदगी में कोई तनाव
या अपेक्षा नहीं है. दोनों पति-पत्नी सीमित आवश्यकताओं के चलते हंसी-खुशी दिन काट
रहे हैं.
दीपक एक-आध दिन छोड़ कर माता-पिता
की कुशल क्षेम लेता रहता है. वह अपनी सुशील पत्नी व दो बच्चों के साथ हैदराबाद में
एक फ़्लैट किराए पर लेकर रहता है. जब से उसने ‘बागवाँ’ हिंदी
फिल्म देखी है, तब से वह माता-पिता का ज्यादा ही ध्यान रखता है. हर महीने पिता के
बैंक खाते में बीस हजार रूपये ट्रान्सफर भी कर दिया करता है. वह तो बहुत चाहता है
कि माता-पिता हैदराबाद आकर उसके परिवार के ही साथ रहें, पर दोनों तरफ से कठिनाइयां
हैं कि हैदराबाद के घर में जगह की इतनी इफरात नहीं है जितनी उनके रुद्रपुर वाले
मकान में है. मन तो उनका भी बहुत करता है कि इस उम्र में बच्चों के साथ रहा जाये
पर ख्यालीराम तिवारी बहुत दूर की बात सोचते हैं कि अभी से बच्चों के आश्रय में चले
जायेंगे तो बुढापा जल्दी आ जायेगा. इसलिए अपनी आजादी से जी रहे हैं. लेकिन अकेलेपन
का दंश तो वे झेल ही रहे हैं. पुरानी-नई एल्बम देखना, उन दृश्यों व बातों को याद
करना ये अब उन दोनों का खास शुगल है. बाकी दिनचर्या एक रूटीन की तरह है. सुबह जल्दी
उठना, पानी का पम्प चलाना, छत की टंकी को भरना, गमलों में पानी डालना, घर के
अन्दर-बाहर सफाई करना, नहाना-धोना, पूजा-पाठ करना, फिर दोनों जने मिलकर भोजन बनाना-खाना, ये नित्यक्रम उनका रहता है. उसके बाद दिनभर खाली पड़े रहते हैं, सो जाते हैं.
यहाँ रुद्रपुर में कुछ
गिनेचुने पास-पड़ोसियों से उनका परिचय है. ज्यादा जरूरत भी नहीं रहती है, अपने में
ही मस्त रहते हैं. अखबार और टी.वी. के चक्कर में ज्यादा न पड़ कर बाकी दीन-दुनिया से नाममात्र को बाखबर रहते हैं.
दीपक साल-दो साल में, कभी
बच्चों को साथ लेकर, कभी अकेले आकर अपना पुत्र-धर्म निभाता रहता है. हर बार कोई न
कोई घरेलू उपकरण–सामान खरीद कर रख भी जाता है. तिवारी दम्पति अपनी सपाट
जिंदगी से पूरी तरह संतुष्ट हैं. वे जानते हैं कि आवश्यकताओं को जितना बढ़ाओ उतनी
बढ़ती जाती हैं.
ख्यालीराम जी जब अपनी नौकरी
से रिटायर हुए तो डिपार्टमेंट के लोगों ने परम्परागत रूप से उनको एक विदाई पार्टी
दी थी और भेंट के बतौर एक दीवार घड़ी भी अर्पित की थी घड़ी सस्ती सी है. आजकल तो बाजार
में अनेक तरह की डिजाइन वाली, अलार्म वाली तथा संगीत वाली उपलब्ध रहती हैं, पर
उनकी घड़ी में न अलार्म है न संगीत है, यहाँ तक कि उसमे सप्ताह में एक बार चाबी
अवश्य भरनी होती है.
ख्यालीराम तिवारी और
गोविन्दी देवी की स्थाई व निश्चित जीवनचर्या में घड़ी में चाबी भरना एक प्रमुख काम
होता है. हर रविवार को सुबह आठ बजे घड़ी में चाबी दी जाती है. दीवार के सहारे एक
मेज को खिसका कर उसके ऊपर छोटे स्टूल को रखा जाता है जिसे गोविन्दी देवी को मजबूती
से पकड़ना होता है ताकि वह खिसके नहीं. ख्यालीराम जी स्टूल पर चढ कर घड़ी में
चर्र-चर्र आवाज के साथ चाबी भरते हैं. और चाबी पूरी भर जाने के बाद धीरे से नीचे उतर कर बड़ी राहत की सांस लेते हैं. पति-पत्नी एक दूसरे से नजर मिलाते हैं. अब अगले
रविवार तक की छुट्टी हो गई.
इस बार दीपक अकेले आया था,
उसने देखा कि पिता जी को इस तरह स्टूल पर चढ़ कर परेशानी उठानी पडती है. वह तुरन्त
बाजार गया और एक चमचमाती, नई डिजाइन की बैटरी सेल से चलने वाली घड़ी खरीद लाया.
उसने पुरानी उतार कर हिफाजत से लोहे के संदूक में रख दी और उसकी जगह नई टांग दी.
घड़ी बहुत शोभायमान हो रही थी. बीच बीच में हर घन्टे मधुर स्वर में टन-टन बजा कर समय
बताने लगी.
दीपक एक सप्ताह बाद
हैदराबाद लौट गया. अब जब रविवार आया तो ख्यालीराम जी व गोविन्दी देवी को पुरानी घड़ी
की बहुत याद आ रही थी. उसमें चाबी भरते थे तो ऐसा एहसास होता था जैसे कोई जरूरी
कर्तव्य पूरा किया हो. इस नई घड़ी ने तो वह सतुष्टिभाव छीन लिया है. तिवारी जी ने
पत्नी से कहा पुरानी घड़ी निकाल लाओ. उन्होंने फिर मेज खिसकाई, उसके ऊपर स्टूल रखा
और ऊपर चढ़ गए. नई घड़ी निकाल कर पत्नी को पकड़ाई तथा फिर से उसी पुरानी को उसकी जगह
लटका कर चाबी मार कर नीचे उतर गए.
वे बहुत विजयीभाव में थे. पत्नी भी खुश थी, बोली, “आपने बहुत अच्छा किया, अन्यथा हम रविवार के दिन
बेरोजगार से हो रहे थे.”
***
बहुत ही प्यारी कहानी, किस वस्तु में कौन सा भाव छिपा है, उसे तो बस उपयोग करने वाला जानता है..
जवाब देंहटाएंसाफ सुथरी, जन जन की कहती, प्यारी सी कहानी पढ़ाने के लिए आभार। सिर्फ एक 'चाभी वाली घड़ी' ने दिल में जो हिलोर पैदा कर दिया, वह अद्भुत है।
जवाब देंहटाएंक्या बात है!!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 18-06-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-914 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
सपाट जिंदगी की एकरसता को दूर करती हैं कुछ चीजें !
जवाब देंहटाएंसीधी सरल सच्ची सी लगी कहानी !
मजेदार, भावनात्मक कहानी .. आभार.
जवाब देंहटाएंआपने सच मुच हर वो व्यक्ति जो अपने बच्चो से दूर रहता है उसकी दिनचर्या का बड़ा सुंदर वर्णन किया है
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