शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

देवो न जानति

अविभाजित संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के अविभाजित अल्मोड़ा जिले में एक सुन्दर पठारीय जगह है, सानीउडियार, उसके चारों ओर खुला विहंगम परिदृश्य कुमायूं के अंग्रेज कमिश्नर को बहुत भाया. उसका मन था कि वहीं अपना एक घर बनाया जाय, पर जल्दी ही उसका स्थानांतरण गढ़वाल को हो गया. उसने अपने मित्र पादरी डैनियल हार्बर को अपने मन की बात बताई. पादरी साहब का उन दिनों पूरे पहाड़ी क्षेत्र में सर्वे चल रहा था कि ‘कहाँ कहाँ धर्म प्रचार सफल हो सकता है? कमिश्नर साहब की बात को गंभीरता से लेते हुए उन्होंने सानीउडियार के पठार के मध्य में एक छोटा सा कैथोलिक चर्च बनवाया, साथ में कुछ रिहायसी कमरे, दवाखाना व स्कूल के दो कमरे भी बनवाए. वे खुद भी आसपास गाँवों के गरीब बच्चों को बुला बुला कर पढ़ाने की जहमत उठाने लगे, पर उनका मूल उद्देश्य तो ईसाई धर्म का प्रचार करना था. कांडा से लेकर बेरीनाग, सेराघाट तक उन्होंने अपना स्थानीय कार्यक्षेत्र बनाया.

कुछ गरीब पिछड़ी जातियों के लोग जो सांस्कृतिक दृष्टि से समाज की मुख्य धारा से विरत थे, जैसे लोहार, ओड़, ढोली आदि को उन्होंने आर्थिक मदद व नौकरियों का भरोसा देकर गुप चुप अपना कारोबार शुरू कर दिया. तब देश मे अंग्रेजों का दबदबा भी था. बीसवी सदी के प्रारंभिक दशकों में इस दूर दराज तक आजादी के आन्दोलन अथवा स्वराज्य की मांग की बातों का कोई जिक्र इस श्रेणी के लोगों को मालूम भी नहीं था. इस इलाके में अधिकतर लोग गरीब काश्तकार थे, हिन्दू धर्म में आस्था रखते थे.

हरिया उर्फ हरिराम एक आठ साल का लड़का अपनी गरीब विधवा माँ चनुली के साथ चर्च परिसर में आता रहता था, उसकी माँ को मात्र पाँच रूपये माहवार पर साफ़ सफाई के काम के लिए पादरी साहब ने नियुक्त कर रखा था. पादरी साहब ने हरिया को देखा तो उन्होंने उसकी माँ से बात की कि ‘उसे पढ़ने के लिए अन्य लडकों के साथ उनके पास भेजा करे’. चनुली अनपढ़ शिल्पकार जाति की औरत थी. पढ़ाई का मतलब भी नहीं जानती थी, पर जब पादरी साहब का हुकुम हो गया तो मना करने का कोई कारण नहीं था.

पादरी साहब को हरिया में भविष्य की अपार संभावनाएं नजर आ रही थीं. उसने पाँच साल तक पादरी साहब के पास रह कर अंग्रेजी लिखना, पढ़ना व बोलना सीख लिया. पादरी साहब ने उसका नाम हरिया/हरीराम से बदल कर हैरिस लिख दिया. बाद में मिशन के खर्चे पर उसे सेंट थोमस बोर्डिंग स्कूल में बरेली भेज दिया गया. पादरी साहब की उस पर पूरी निगरानी थी, वे उसे डॉक्टर बनाना चाहते थे. उन दिनों नजदीक में कोई मेडिकल स्कूल/कॉलेज भी नहीं हुआ करता था. मध्य भारत के इंदौर शहर में डॉक्टर समीरण मुखर्जी नाम के एक बंगाली डॉक्टर एक मेडीकल स्कूल चलाते थे, जिसे सरकार द्वारा मान्यता भी मिली हुई थी. हैरिस को वहाँ एल.एम.पी.(लाईसेंसिएट फॉर मेडिकल प्रेक्टिस ) के तीन वर्षीय कोर्स के लिए भर्ती करा दिया गया.

प्रिंसिपल डॉ. समीरण मुखर्जी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण थे. वे तमाम हिन्दू धर्म की आस्थाओं से बंधे हुए रहते थे. जब उन्होंने हैरिस के बारे में व्यक्तिगत जानकारी ली तो उनको पादरी साहब द्वारा हरिराम का नाम बदल कर हैरिस कर देना बिलकुल गँवारा नहीं हुआ. उनकी सलाह पर हैरिस का नाम रिकार्ड मे सुधार करके हरिप्रसाद आर्य कर दिया गया और जब उसे लाइसेंस का डिप्लोमा दिया गया तो उसमें पूरा नाम डॉ. हरिप्रसाद आर्य लिखा गया. चूँकि इस बीच पादरी साहब स्वर्ग सिधार गए थे, नाम बदलाव पर कोई बवाला भी नहीं हुआ.

डॉ. हरिप्रसाद को इंटर्नशिप पूरी करते ही रेलवे में मेडीकल ऑफिसर के रूप में नियुक्ति मिल गयी उनकी पहली पोस्टिंग डिब्रूगढ़, आसाम मे हुई. बिना देर किये उन्होंने नौकरी शुरू कर दी. डॉ. हरिप्रसाद आर्य को डिब्रूगढ़ में सब तरफ से आदर–सम्मान मिला, और वे अपने पेशे में माहिर होते चले, लेकिन वहाँ उन्होंने अपने परिवार एवँ सामाजिक इतिहास पर किसी को कुछ नहीं बताया. बताना जरूरी भी नहीं था. कहीं ज्यादा पूछताछ हुई भी तो उन्होंने खुद को ब्राह्मण बताने में गुरेज नहीं किया. डॉक्टर साहब सामान्यतया देखने में सुन्दर थे, मितभाषी थे. वे नीलकंठ चक्रबोर्ती के मकान में किराए से रहते थे. चक्रबोर्ती साहब की तीन कन्याओं में से एक अम्बालिका से उनकी आशनाई हो गयी. बात खुलने पर घरवालों ने उनके साथ रिश्ता करने की बात सहज में प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर ली. शादी हो गयी हालाँकि वर पक्ष का कोई व्यक्ति वहाँ नहीं आया.

चार वर्षों के अंतराल में  अम्बालिका  ने दो पुत्रों को जन्म दिया. अम्बालिका नित्य घर में पूजा-पाठ करवाती रहती थी, उनकी सुखी गृहस्थी थी किसी प्रकार का तनाव नहीं था. समय हमेशा एक सा नहीं रहता है. एक दिन डॉक्टर हरिप्रसाद का स्थानांतरण बरेली हो गया. इसके लिए उन्होंने स्वयं आवेदन भेजा था. अपने विभागीय साथियों-कर्मचारियों तथा ससुरालियों से विदाई लेकर वे सपरिवार बरेली आ गए. बरेली में रेलवे कॉलोनी में उनको अच्छा बड़ा घर मिल गया. अम्बालिका बच्चों की देख रेख के साथ ही अपनी धार्मिक आस्थाओं के प्रति समर्पित रहती थी. सब ठीक चल रहा था. एक दिन डॉक्टर हरिप्रसाद की बूढ़ी माँ अपने भाई चनरराम को साथ लेकर ढूंढते हुए बरेली में अपने बेटे के पास पहुँच गयी. पिछले वर्षों में हरिप्रसाद ने अपनी माँ से बहुत कम संपर्क रखा था पर बरेली आने के बाद वे उससे मिलने सानीउडियार जरूर गए. अपनी शादी-वैवाहिक जीवन के बारे में उन्होंने माँ को कुछ नहीं बताया था.

इधर देश आजाद हो चुका था. पिछड़े/दलितों को भी अब ‘सेवा’ की जगह ‘जयहिंद’ वाला अभिवादन समझ में आ गया था. जातीय जागृति व समानांतर हवा ने सबकी सोच में परिवर्तन ला दिया था. चनुली अब काफी वृद्ध हो चुकी थी, पर बेटे को डॉक्टर के रूप में देखना उसके लिए युगान्तकारी परिवर्तन से कम नहीं था. उसने सुशिक्षित बहू और पोतों को देखा तो वह पहले तो कुछ समझ नहीं पाई, लेकिन जल्दी ही उसकी समझ मे आ गया कि बेटा अब पंडितों की पंगत मे आ गया है.

अम्बालिका  की समझ में भी आ गया कि डॉक्टर ने खुद को ब्राह्मण बता कर उसके साथ धोखा किया है, वह शिल्पकार का बेटा है. उसे मानसिक रूप से बहुत बड़ा झटका लगा. वह पगला सी गयी. डॉक्टर, उनकी माँ तथा मामा को जातिसूचक अपशब्दोयुक्त गालियां देने लगी. जब स्थिति खतरनाक लगने लगी तो चनुली और उसका भाई जल्दी ही सानीउडियार लौट गए.

हँसते खेलते घर मे जहर घुल गया, अम्बालिका काबू से बाहर हो गयी. पति से तिरस्कार पूर्वक जोर जोर से बातें करती तो कॉलोनी के बासिंदों ने भी सुनी, कानाफूसी हुई. एक ब्राह्मण की लड़की  का धर्म भ्रष्ट करने की तोहमत लगाते हुए बहुत बदनामी हो गयी.अम्बालिका  ने पत्र लिखकर अपने भाइयों को बुला लिया और पति व बच्चों को उनके हाल पर छोड़कर आसाम लौट गयी. वाणी से निकले अपशब्दों के घाव इतने गहरे लगे कि डॉ. हरिप्रसाद ने अम्बालिका से कभी नहीं मिलने का प्रण कर लिया.

अब डॉ. हरिप्रसाद के पास धैर्य रखने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. उन्हें मालूम था कि चक्रबोर्ती परिवार अपनी धर्मान्धता के कारण उनको कभी क्षमा नहीं करेगा. इसलिए दोनों बेटों की पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करते हुए अकेले ही अपनी जीवन की गाड़ी खींचने का निर्णय ले लिया. हाँ अपनी माँ चनुली को उसके आख़िरी दिनों में अपने साथ ले आये. उसकी भरपूर सेवा सुश्रुषा की गयी.

दोनों बेटों को पढ़ने के लिए नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. वे पढ़ते गए और बढ़ते गए. वर्षों के अंतराल में डॉ. हरिप्रसाद आर्य सी.एम.ओ. के पद से रिटायर हुए तो उन्होंने इज्जतनगर में एक शानदार दुमंजिला मकान बनवाया, जिसकी निचली मंजिल पर अपनी क्लीनिक खोल ली. क्लीनिक का नाम रखा ‘अम्बालिका धर्मार्थ औषधालय.’ जहाँ वे गरीब लोगों को मुफ्त सलाह व दवाएँ दिया करते हैं. दोनों बेटे लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज से डिग्री हासिल कर अलग अलग अस्पतालों मे कार्यरत हो गए. कालान्तर मे दोनों ने ही अपनी सहकर्मी महिला डाक्टरों से प्रेम विवाह किया.

डॉक्टरों का यह परिवार सब तरफ से संपन्न व वैभवपूर्ण जीवन जी रहा है. अब कोई वर्ण या जाति का दंश भी नहीं है, पर डॉ. हरिप्रसाद को उनका गुजरा हुआ कल बहुत कचोटता आ रहा था. ८२  वर्ष की उम्र में एक बार अस्वस्थ होने पर उन्होंने अपने बेटों को अपने अंत:करण की पीड़ा बताई और कहा कि वे डिब्रूगढ़ जाकर अपनी माँ की कुशल लेकर आयें.

जिन परिस्थितियों में छोटे बच्चों को छोड़ कर माँ चली गयी थी, बच्चों के मन मस्तिष्क पर उसके प्रति कोई आदरभाव नहीं था. वे तो केवल ‘पापा के बेटे’ थे. फिर भी पिता के निर्देशानुसार वे डिब्रूगढ़ मामा के पते पर पहुँचे जहाँ उनको बताया गया कि अम्बालिका ने तो बरसों पहले बरेली से लौटने के कुछ दिन बाद ही आत्महत्या कर ली थी.

वे डिब्रूगढ़ से लौट आये हैं, पर उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि पापा को यह सूचना किन शब्दों में दी जाये.

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी ही मार्मिक कहानी..हम प्रेम को अर्थ सामाजिकता से क्यों तौलने लगते हैं।

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  2. रोचक जानकारियों सहित, विडम्बनाओं.. की मनभावन कहानी. सादर.

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