शनिवार, 17 नवंबर 2012

चुहुल - ३७

(१)
एक छोटे से कस्बे में एक बार कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. बड़े नामी कवि तो पहुंचे नहीं ऐसे ही छुटभइये कवियों को काव्यपाठ के लिए मंच पर बुलाया गया. श्रोता इस कारण आयोजकों से नाराज थे. मुख्य आयोजक राधेश्याम दृश्य से गायब हो गया.
एक कवि जब माइक पर लम्बी लंबी छोड़ रहा था तो बीच में एक दबंग किस्म का आदमी लट्ठ लेकर स्टेज के इर्द-गिर्द घूमने लगा. खतरे की स्थिति को भांपते हुए कवि उससे बोला,“आप ज्यादा परेशान मत होइए, बस आख़िरी चार लाइनें सुनाकर बैठ रहा हूँ.”
लट्ठबाज बोला, “आप सुनाते रहिये, आप तो हमारे मेहमान हैं. मैं तो राधेश्याम को ढूंढ रहा हूँ, जिसने आपको यहाँ बुलाया है.”


(२)
एक विदेश से लौटे धोबी ने शहर में अपनी नई नई लाँड्री खोली. लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लाँड्री के बाहर बोर्ड भी लगाया, जिसमें लिखा था ‘हम आपके कपड़ों को हाथों से धोकर नहीं फाडते हैं, हमारा सब काम मशीनों से किया जाता है.’

(३)
एक कंजूस आदमी अपने दोस्त को अपनी कुशल-बात का पत्र बैरंग यानि बिना टिकट का लिफाफे में भेजा करता था. तीन-चार बार ऐसा हुआ. दोस्त को तकलीफ होनी ही थी क्योंकि हर बार दस रूपये जुर्माना देना पड़ रहा था.
इस बार दोस्त ने एक भारी सा पार्सल (VPP) कंजूस मित्र के नाम भेजा. मित्र ने अस्सी रुपये देकर पार्सल छुड़ाया, खोला तो देखा कि उसके अन्दर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, जिस पर एक कागज़ चिपका था, लिखा था “दोस्त तुम्हारी कुशल पाकर इस पत्थर से भी भारी बोझ मन से उतर गया है.”

(४)
घर जवाँई बन कर ससुराल में रह रहे एक मर्द की पत्नी को उसकी बचपन की एक सहेली मिल गयी तो सहेली बोली, “तू बड़ी किस्मत वाली है. मायके और ससुराल दोनों के मजे एक साथ ले रही है. तेरा पति तो तेरे काबू में होगा?”
इस बात पर वह बोली “बहन, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, मेरा पति रोज रोज अपने मायके जाने की धमकी देता है.”

(५)
दिल्ली में लालकिले से यूनिवर्सिटी को जाने वाली बस में बहुत भीड़ थी. यात्री खड़े खड़े भी जा रहे थे. अचानक ड्राइवर ने जब ब्रेक लगाया तो एक नौजवान गिरते गिरते बचा. उसने धक्के में अपने आगे खड़ी लडकी का सहारा लिया था. लड़की को उसकी यह हरकत नागवार गुज़री. भन्ना कर बोली, “क्या कर रहे हो?”
लड़का संजीदगी से बोला, “पी.एच.डी. कर रहा हूँ, फाइनल स्टेज में हूँ.”
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