२७ मई १९६४ के दिन मैं ट्रेन से बड़े सवेरे जयपुर पँहुच गया था. मैं उन दिनों ‘लाखेरी सीमेंट कामगार बहुधंधी सहकारी समिति' का अवैतनिक महामंत्री भी था. सोसाइटीज के रजिस्ट्रार के कार्यालय में अपने विधान में संशोधन कराने के लिए कागजात पेश करने थे. मैं रात की ट्रेन से सवाईमाधोपुर, फिर वहाँ से मीटर गेज ट्रेन से (तब जयपुर को सीधे ब्रॉड-गेज रेलवे लाइन नहीं हुआ करती थी.) मैं सुबह ४ बजे जयपुर रेलवे स्टेशन पहुँच गया था. वहाँ से पैदल ही पुराने विधायक निवास, जहां अब, पास में शहीद स्मारक बना हुआ है, हमारे विधायक स्व. हरिप्रसाद शर्मा का कमरा था, पहुँच गया. वहाँ नहा धो कर मैं ९ बजे बाद मिर्जा इस्माइल रोड की तरफ बढ़ गया. पाँच बत्ती से आगे मेन रोड पर एक कॉफी हाउस हुआ करता था, जहाँ की कॉफी व दक्षिण भारतीय पकवानों का आनन्द लेते हुए साहित्यिक मनीषी बैठ कर घंटों मानसिक विलास किया करते थे. इसी कॉफी हाउस के दुमंजिले में हमारे कोऑपरेटिव सोसाइटीज के रजिस्ट्रार का कार्यालय हुआ करता था. साढ़े दस बजे के बाद मुश्किल से आधे घन्टे में मैं अपना काम खत्म कर पैदल ही जौहरी बाजार की तरफ चल पड़ा.
जौहरी बाजार में ‘हल्दियों के रास्ते’ में मेरे एक सुहृदय मित्र श्री सुभाष जैन (मैनेजर, ई.एस.आई) का पुश्तैनी घर था. उनके पिता स्व. सुगनचंद जैन व माता जी बहुत आत्मीयता रखने वाले लोग थे. मैं उनसे पहले भी मिल चुका था, और उनसे मिलना चाहता था. गर्मी भी उन दिनों बेहद पड़ रही थी अत: ये भी सोच रहा था कि दिन में विश्राम उनके घर पर ही करूँगा. मेरी वापसी ट्रेन शाम ५ बजे की थी.
ज्यों ही मैं जौहरी बाजार में दाखिल हुआ तो एक जीप से घोषणा होने लगी कि प्रधानमन्त्री जवाहरलाल जी का देहावसान हो गया है. दुकानों के शटर बन्द होने लग गए, सब तरफ मनहूस खामोशी पसरने लगी. लोग अलग अलग समूहों में जमा होने लगे. सभी उदास थे. अधिकाँश आँखें नम थी. मैं भी असहाय सा होकर इस अप्रत्याशित दुखद समाचार से सन्न रह गया था.
मैंने सन १९५८ में नेहरू जी को केवल एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी के सभागार में बहुत नजदीक से देखा था, उनका उजास आभामंडल मुझे अभी भी याद है. वे तत्कालीन राजनैतिक आकाश के बड़े सितारे थे, हर दिल अजीज थे. ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मर भी सकते हैं.
मैं जैन परिवार से मिला, वहाँ भी मातम था, उस दिन उनके घर खाना नहीं बना. भूखा रहने का कोई मलाल भी नहीं था क्योंकि हमारे प्रिय नेता नहीं रहे थे. आज बहुत से छुटभय्ये नेता राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उनके द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं, पर सच्चाई ये है कि वे बेहद मानवीय आचार वाले राष्ट्रभक्त नेता थे.
शाम वाली गाड़ी से मैं लौट आया, अगले दिन सब लोग रेडियो/ट्रांजिस्टरों पर उनकी अन्तिम यात्रा का हाल सुनने के लिए चिपके रहे. गाँधी जी की ह्त्या के बाद ये दूसरा बड़ा सदमा लगा था. कुछ लोगों का यह भी कहना था कि अगर चीन भारत की पीठ पर दोस्ती की आड़ में छुरा नहीं घोंपता तो नेहरू जी इतनी जल्दी नहीं जाते. पर मौत को तो कोई बहाना चाहिए
वे महामानव थे. आज उनकी पुण्यतिथि पर एक बार पुन: विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है.
जौहरी बाजार में ‘हल्दियों के रास्ते’ में मेरे एक सुहृदय मित्र श्री सुभाष जैन (मैनेजर, ई.एस.आई) का पुश्तैनी घर था. उनके पिता स्व. सुगनचंद जैन व माता जी बहुत आत्मीयता रखने वाले लोग थे. मैं उनसे पहले भी मिल चुका था, और उनसे मिलना चाहता था. गर्मी भी उन दिनों बेहद पड़ रही थी अत: ये भी सोच रहा था कि दिन में विश्राम उनके घर पर ही करूँगा. मेरी वापसी ट्रेन शाम ५ बजे की थी.
ज्यों ही मैं जौहरी बाजार में दाखिल हुआ तो एक जीप से घोषणा होने लगी कि प्रधानमन्त्री जवाहरलाल जी का देहावसान हो गया है. दुकानों के शटर बन्द होने लग गए, सब तरफ मनहूस खामोशी पसरने लगी. लोग अलग अलग समूहों में जमा होने लगे. सभी उदास थे. अधिकाँश आँखें नम थी. मैं भी असहाय सा होकर इस अप्रत्याशित दुखद समाचार से सन्न रह गया था.
मैंने सन १९५८ में नेहरू जी को केवल एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी के सभागार में बहुत नजदीक से देखा था, उनका उजास आभामंडल मुझे अभी भी याद है. वे तत्कालीन राजनैतिक आकाश के बड़े सितारे थे, हर दिल अजीज थे. ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मर भी सकते हैं.
मैं जैन परिवार से मिला, वहाँ भी मातम था, उस दिन उनके घर खाना नहीं बना. भूखा रहने का कोई मलाल भी नहीं था क्योंकि हमारे प्रिय नेता नहीं रहे थे. आज बहुत से छुटभय्ये नेता राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उनके द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं, पर सच्चाई ये है कि वे बेहद मानवीय आचार वाले राष्ट्रभक्त नेता थे.
शाम वाली गाड़ी से मैं लौट आया, अगले दिन सब लोग रेडियो/ट्रांजिस्टरों पर उनकी अन्तिम यात्रा का हाल सुनने के लिए चिपके रहे. गाँधी जी की ह्त्या के बाद ये दूसरा बड़ा सदमा लगा था. कुछ लोगों का यह भी कहना था कि अगर चीन भारत की पीठ पर दोस्ती की आड़ में छुरा नहीं घोंपता तो नेहरू जी इतनी जल्दी नहीं जाते. पर मौत को तो कोई बहाना चाहिए
वे महामानव थे. आज उनकी पुण्यतिथि पर एक बार पुन: विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है.
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चीन की सदाशयता पर अब भी हम दम्भ भरे बैठे हैं, पर अब कोई इतना संवेदनशील कहाँ कि ऐसे विषयों पर प्राण त्याग बैठे।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपका अनुभव पढकर बढिया लगा।
जवाब देंहटाएंबताइये उस दौरान नेता के मौत पर पूरा देश दुखी हो जाता था
आज ????????
ये तो नेता सोचें, हालात ये है कि किसी नेता को कुछ हो जाए तो उनकी पार्टी में भी एक तपका खुश होता है।