गुरुवार, 13 जून 2013

मौत से साक्षात्कार

मुझे अपने साथ घटी अप्रिय घटनाओं को भूल जाने की आदत है. इसका लाभ ये होता है कि घाव हरे नहीं रहते है. यह स्वभाव की बात है, लेकिन मेरे साथ घटी तीन सच्ची घटनायें ऐसी हैं जो याद करने पर आज भी सिहरन पैदा करती हैं. इनको मैंने मौत से साक्षात्कार के रूप में अनुभव किया है.

पहली घटना: तब मैं दस साल का था. माघ महीने की संक्रांति के दिन बागेश्वर नगर में लगने वाले ‘उत्तरायणी मेला’ देखने बहुत से गाँव वालों/परिवार वालों के साथ गया था. लौटते समय शाम हो गयी. घर (गौरिउडियार गाँव) लगभग दो किलोमीटर दूर पन्द्रहपाली गाँव से ऊपर जंगल से गुजरते हुए, मैं साथ चल रहे लोगों से पिछड़ गया था क्योंकि तब मैं तेजी से चल नहीं पा रहा था. शरीर से भी कमजोर था. मेरे पीछे दस कदम दूर जरूर मेरे बुजुर्ग ताऊ स्व. हरिदत्त आ रहे थे.

अब तो सारे जंगल साफ़ कर दिये गए हैं, परन्तु तब वहाँ धौल की झाडियाँ, हरड़, आंवला, सानण, बाँज-फल्याठ, रीठा, काफल, बुराँश, जामुन, तुन आदि के बड़े बड़े पेड़ों के अलावा मालू के झाल पूरा अन्धेरा पातळ हुआ करता था. ये पहाड़ी जंगल केवल पेड़ों से आच्छादित नहीं थे, इसमें बड़ी बड़ी घास, बेल-लताएँ भी छाई थी. ऊंचाई पर एक स्तर के बाद ऊँचे ऊँचे चीड़ के पेड़ आज भी मौजूद होंगे. अकेले आदमी को दिन में भी इसके बीच से गुजरने पर डर लगा करता था. इस वन में जंगली जानवर भी बहुतायत में होते थे. बन्दर, लंगूर, घुरड, कांकड, भालू और बाघ (गुलदार) सबका बसेरा यहाँ था. बाघ शाम होते ही बस्ती के नजदीक गरजने लगते थे. रात में बस्ती में से पालतू कुत्तों को, खुले में बंधे जानवरों को उठा कर ले जाते थे. इस इलाके में आदमखोर बाघों की बातें तब कम ही सुनाई देती थी, फिर भी भय तो होता था. लोग इनके साथ जीने को मजबूर थे.

अचानक एक अंधे मोड़ पर एक बाघ प्रकट हुआ. उससे मेरी नजरें चार हुयी. मैं हक्का-बक्का था उसके और मेरे बीच सिर्फ ५ फीट का फासला था. मेरे रोंगटे खड़े हो गए और घिग्गी बंध गयी थी. बाघ मुझ पर झपटता उससे पहले ताऊ जी ने अपनी लाठी उसकी तरफ दे मारी. "हाट -हूट" किया वह उलटे पाँव झाडियों में गुम हो गया.

दूसरी घटना: अस्सी के दशक की बात है. मैं जयपुर से लाखेरी (जिला बूंदी, राजस्थान), सवाईमाधोपुर होता हुआ पसेंजर ट्रेन से  लौट रहा था. सर्दियों के दिन थे. रात पौने ११ बजे दिल्ली से मुम्बई जाने वाली जनता एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर से दूसरी गाड़ी में बैठना था. वहाँ से लाखेरी महज ४५ मिनट का सफर शेष था. ट्रेन आई, उसके जनरल डिब्बों में इतनी भीड़ थी कि बहुत कोशिश के बाद भी मैं घुस नहीं पाया इसलिए द्वितीय क्लास के स्लीपर के दरवाजे के पास गैलेरी में खड़ा हो गया. सवाईमाधोपुर जाड़ों की रातों में अतिशय ठण्डी जगह होती है. ट्रेन का अन्य विकल्प सुबह देहरादून एक्सप्रेस होता था इसलिए इस प्रकार सफर करना एक मजबूरी थी. मेरे जैसे अन्य यात्री जिनको कोटा की तरफ जाना था, साथ में थे. टिकट चेकर ने असंयत भाषा में सबको डांटा और अगले स्टेशन इन्दरगढ़ में उतर जाने का हुक्म दे दिया. कुछ लोग जिनको ज्यादा यात्रा का अनुभव था, उन्होंने टिकट चेकर को सुविधा शुल्क  देकर अन्दर जगह पा ली. मैं समझ रहा था कि लाखेरी वहां से महज १५ मिनट की दूरी पर है, वह मुझे उतारेगा नहीं, लेकिन उसने कोई रियायत दिये बिना हम चार-पाँच जनों को धक्का-मुक्की करके उतार ही दिया. इन्दरगढ़ में गाड़ी तीन मिनट रुकी आधा समय यों ही निकल गया. मैं भाग कर जनरल बोगी के बन्द दरवाजे पर चढ़ गया. अन्दर वालों ने शीशा तक बन्द किया हुआ था. लोग बुरी तरह बैठे-ठुंसे पड़े थे. गाड़ी चल पड़ी और स्पीड पकड़ती गयी. मैं किसी भी पोल पर टकरा सकता था, मेरे गले पर लटका हुआ बैग मुझे ज्यादा परेशान कर रहा था. उसमें अदालती कागजात थे. मैं ठण्डी बयार के थपेड़े सहते हुए दरवाजे का शटर पीट रहा था. मुझे लगने लगा कि मैं साक्षात मौत के मुँह में आ गया हूँ. इतने में एक भले मानुष ने मेरी स्थिति की गंभीरता को समझा और प्रयास करके दरवाजे को खुलवाया. (दुनिया में अच्छे लोग आज भी मौजूद हैं, पर उनकी संख्या बहुत कम है.) मैं बुरी तरह काँप रहा था और अपने दुस्साहस को कोस रहा था.

तीसरी घटना: ये अभी एक साल पहले की बात है. मैं अपने एक चचेरे भाई स्व. ताराचंद्र के साथ ना जाने क्यों कहीं निर्जन बीहड़ में चला गया था. ताराचंद्र मेरा भाई और बचपन का साथी, मुझसे एक साल छोटा था. उस अनजान दृश्य में अकाल्पनिक अनेक अजूबे थे. चलते चलते मेरे आगे एक गहरी ‘वापी’ (संकरा और गहरा कुवां) थी, जो मुझे दिखी नहीं. ताराचंद्र ने चिल्लाकर कहा, “दद्दा, उधर मत जाओ. आगे पाताल फोड़ कुआँ है!” मैं उसकी बात समझ पाता उससे पहले मेरे दोनों पैर फिसल गए और मैं उस अंधे कुँवे में नीचे की ओर तेजी से गिरते चला गया. मुझे अहसास हो रहा था कि मैं मौत के करीब हूँ. "हे राम, हे राम," कहते हुए मैं अपने माता-पिता, पत्नी व बच्चों को याद करते हुए इस सँसार से विदा हो रहा था. बहुत गहराई में जाकर मैं छपाक शब्द के साथ पानी में गिरा तो मेरी नींद खुल गयी. मैं बेहद डरा हुआ सहमा हुआ उठ बैठा. रात के तीन बजे थे. मैं उसके बाद सो नहीं सका. भाई ताराचंद्र को गुजरे हुए कई साल हो चुके थे. उसे अपने निकट ‘दद्दा’ पुकारते हुए सुना था तो मैं अपने बचपन में लौट पड़ा, पर मौत से साक्षात्कार अवश्य हुआ.
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