मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

बेचारगी

गोविन्दराम को भगवान ने शक्ल तो रईसों जैसी दी है, पर किस्मत गरीबों वाली दी है. वह एक देहात में रहता है. ताबड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता है. उसकी पत्नी रज्जो उसे उलाहना देती रहती है कि उसके पास कभी भी एकमुश्त ५०० रुपयों का पीला नोट जमा नहीं हो सकता है, पर मजबूरी है, वह चोरी नहीं करना चाहता और कोई चमत्कार भी होने वाला नहीं है. मास्टर जी से उसने दो-तीन बार शहर से लॉटरी के टिकट मंगवाए. बाद में उसे ये मालूम हुआ कि लॉटरी में भी फर्जीवाडा चलता है. सोचता है कि जब किस्मत में ही नहीं है तो व्यर्थ इस तरह क्यों सोचा जाये, लेकिन मन तो मन है, उड़ान भरता ही रहता है.

इस बार जब ग्राम प्रधान ठा. जयपालसिंह ने उसको अपने नए मकान की नींव खोदने का ठेका दिया तो उसको लगा कि अब वह रज्जो को ५०० के नोट देकर उसका मुँह बन्द कर देगा. उस रात वह सपने में भी पीला नोट देखता रहा और सुबह जाकर जयपालसिंह से पेशगी में ५०० रुपयों का एक नोट ले ही आया. खुशी खुशी रज्जो से बोला, “ये ले, अब मत कहना कि पीला नोट अपने पास नहीं आ सकता है.”

रज्जो बहुत खुश हो गयी और उसने उत्साहित होकर नोट ले लिया. गोविन्द ने कहा, “अरे पगली, अब तो बड़ा काम मिल गया है. ऐसे नोट आते ही रहेंगे. देखना एक दिन हजार का लाल नोट तेरे खीसे में डाल दूंगा.” रज्जो भी बड़े सपने देखने लगी कुछ सोच कर बोली, “आप इस नोट को शहर जाकर बैंक में जमा कर आओ. कहते हैं कि बैंक में रुपयों पर ब्याज जुड़कर रकम बढ़ती जाती है.”

गोविन्दराम ने इस तरह कभी सोचा भी नहीं था. रज्जो के कारोबारी दिमाग की बात उसको भीज गयी. ‘दौलत तो ऐसे ही बढ़ती है,’ यह सोचकर उसने खुदाई का काम शुरू करने से पहले बैंक जाने का कार्यक्रम बना डाला. चचेरे भाई हरिराम से साइकिल मांगकर सीधे पाँच किलोमीटर दूर शहर में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की शाखा में पहुँच गया. वह इससे पहले कभी बैक में नहीं गया था, या यों कहिये उसको कभी बैंक की जरूरत नहीं पड़ी थी. वह बैंक के तौर तरीकों के से भी परिचित नहीं था. उसको ताक-झाँक करते देखकर बैंक के चौकीदार ने उससे पूछा, “क्या बात है, क्या चाहिए?” तो गोविन्द ने बताया कि वह बैंक में रूपये जमा करना चाहता है. चौकीदार ने गाइड की तरह उसको समझाते हुए बताया कि पहले अपना खाता खोलना पड़ेगा. खाता खोलने के लिए फोटो परिचय पत्र होना चाहिए, राशनकार्ड लाना होगा, इसके अलावा कोई पहचान वाला व्यक्ति भी होना चाहिए, जो पहले से बैंक का खातेदार भी हो. ये सब सुनकर गोविन्दराम सकते में आ गया. सोचने लगा ये सब तो बड़ी आपदा वाली बात है. उनकी आपसी वार्ता सुन रहे बैंक के एक बाबू ने कहा, “तू अपना राशन कार्ड ले आ, यहाँ की सब कागजी कार्यवाही हम कर देंगे।” उसकी बात से उत्साहित होकर गोविन्दराम ने साइकिल से फिर एक फेरा अपने गाँव का लगाया और अपना राशन कार्ड लेकर बाबू के पास पँहुच गया. बाबू बोला, “तू अपनी दो पासपोर्ट साइज की फोटो खींच कर ले आ और राशन कार्ड की फोटोस्टेट भी करा ला.” गोविन्दराम जितना आसान समझ रहा था ये सब प्रक्रिया उतनी आसान थी नहीं. आखिर जब खाता खोलने की ठान ही ली तो ५०० का नोट तुडवा कर पचास रुपयों में तीन फोटो खिंचवाई और चार रुपयों में राशन कार्ड की फोटोस्टेट कराई, तब जाकर बाबू ने ४४५ रुपयों से उसका बचत खाता खोल दिया. बैंक के मैनेजर ने उसको ये भी समझाया कि खाते में हमेशा कम से कम २०० रुपयों का बैलेंस रहना अनिवार्य है. ये सुनकर गोविन्दराम पुन: पेशोपेश में पड़ गया, लेकिन अब रूपये तो जमा हो चुके थे. उसके ५०० रुपयों के पीले नोट का ब्याज सहित जो नक्शा मन में बना था वह ध्वस्त हो गया.

बैंक के काउंटर पर ग्राहकों की भीड़ बढ़ रही थी. हजारों लाखों रुपयों का लेनदेन गोविन्दराम अपनी आँखों से देख रहा था. वह सोचने लगा कि थोड़े से ब्याज के लालच में वह यहाँ आ फंसा है. वह अपने मन को तसल्ली देने लगा कि रूपये तो और भी कमाते रहेगा. अब जब सब काम हो गया और उसकी पासबुक उसको थमा दी तो अचानक उसके मन मे आया कि घर लौटते समय उसे रज्जो की चाहत की मिठाई जलेबी तथा अपने लिए एक रम का पव्वा ले जाना चाहिये. किन्तु अब जेब में केवल एक रूपये का सिक्का बचा था. उसने बहुत सोचा फिर बाबू से धीरे से पूछा, “क्या मैं अभी अपने रुपयों में से कुछ निकाल सकता हूँ?” बाबू उसकी बात सुनकर मुस्कुराया और अपनी बगल में बैठे हुए दूसरे बाबू को बताने लगा, “इस आदमी ने अभी अभी बचत खाता खोला है और अब रूपये निकालने की बात कर रहा है.” सुनने वाले बाबू ने कुटिल हँसी के साथ शरारत भरी नजरों से गोविन्दराम को देखा और बोला, “पूरे ही क्यों नहीं निकाल लेता है?”

गोविन्द को उसका कटाक्ष अन्दर तक घायल कर गया. उसने बाबू से फिर कि कहा रूपये निकालने की स्लिप भर दें.

बाबू ने बेरुखी से जवाब दिया, “स्लिप भरना भी नहीं आता है तो क्यों बैंक के चक्कर में पड़ा है?” गोविन्दराम ने अन्दर ही अन्दर अपमानित महसूस किया और बोला, “बाबू जी, आप ठीक कहते हैं. इस चक्कर में मेरी आज की ध्याड़ी भी खराब हो गयी है. आप मेरा खाता बन्द करके रूपये लौटा दीजिए.”

बाबू बड़ी हिकारत से बड़बड़ाया, “आ जाते है खाता खोलने, यों ही फालतू काम बढ़ा दिया है.” जल्दी जल्दी एक अर्जी लिखकर हस्ताक्षर करवाए. मैनेजर से स्वीकृति ली और २० रूपये काट कर ४२५ रूपये कैशियर ने वापस कर दिये. इस बीच बैंक के पूरे स्टाफ को गोविन्दराम का किस्सा मालूम हो गया. वे सब चटखारे के साथ उसका मजा ले रहे थे. गोविन्दराम हँसी का पात्र बन कर रह गया था.

चौकीदार से नजरें चुराते हुए गोविन्दराम बैंक से बाहर निकल आया तब जाकर उसने राहत की साँस ली. बाजार की तरफ जाकर हलवाई की दूकान से पाव भर जलेबी और शराब की दूकान से एक पव्वा रम का लेकर आजाद पंछी की तरह साइकिल पर पैडल मारते हुए थका हारा जब घर पहुँचा तो रज्जो ने व्यग्रता से पूछा, “हो गया बैंक का काम?”

वह बोला, “हाँ, हो गया. ये ले, जलेबी खा.”

उसके बाद उसने रज्जो को सारी रामकहानी कह सुनाई. बचे हुए ३२० रूपये दिये और अपना ताजा फोटो भी दिखाया. वे दोनों जलेबी खाते हुए एक दूसरे का मुख देखते रहे और फिर से पीले नोट के ख्वाब देखने लगे.
***

2 टिप्‍पणियां: