शनिवार, 19 नवंबर 2011

साँझ


मीलों चुगने जाती चिडियाँ
 मीलों चरने जाती गायें
   मीलों सी ही लगती होगी-
    चींटी को भी दिन की दूरी.

साँझ की आत्मा
 माँ की ममता की जननी
   प्रिय के अपनेपन का उफान जगाती
    अनचाहे भी छूटा जाता है मन
      अस्त-व्यस्त हो जाते हैं क्षण
.
उड़कर जाने को कहता है-
 मन का पंछी, आतुर हो
   निविड़ से पहले नीड़ तक.

ऐसा आकर्षण है ये     
 जिसके लिए नहीं निवेदन,
   नहीं जगाई जाती स्मृतियाँ
    अनुरोध नहीं इशारों का होता कोई.

इसीलिये पूजा होती है इनमें
 पवित्र कही जाती हैं ये
  हर साँझ की बेला
   और जीवन की तमाम साँझें भी.
           *** 

8 टिप्‍पणियां:

  1. साँझ की आत्मा –
    माँ की ममता की जननी
    प्रिय के अपनेपन का उफान जगाती
    अनचाहे भी छूटा जाता है मन
    अस्त-व्यस्त हो जाते हैं क्षण

    बहुत गहरा भाव लिए पंक्तियाँ

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  2. आपने अपने उद्गारों को शब्दों में अछे से बयां किया है....पढ़कर अच्छा लगा

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  3. हर साँझ की बेला
    और जीवन की तमाम साँझें भी.

    बहुत सुंदर भाव .....

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  4. सभी मित्रों को रचना पढ़ने के लिए धन्यवाद.

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  5. sach mein shaam ka samay hi aisa hi..mun kuch vichlit, kuch akela saa. lekin us mein hi leen.. bahut apna sa samay
    beautiful poetry

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