कमरुद्दीन अंग्रेजों के जमाने का पुलिस-मैन था. पुलिसियत उसके बच्चों में भी बचपन से ही आ गयी थी. उसने अपने जीते जी एक बड़ा मकान बूंदी रियासत की राजधानी में खोजा गेट के पास बना लिया था, मगर मकान का नक्शा पर्दा प्रथा के हिसाब से ऐसा बना कि बाद में दोनों बेटों के लिए झगड़े का कारण बना.
कमरुद्दीन पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए सिपाही का सिपाही ही रहा. उसकी हसरत थी कि उसके बेटे एस.पी., डी.आई.जी तक बनें पर बड़ा लड़का अल्लाउद्दीन पढ़ने लिखने में फिसड्डी निकला. बमुश्किल हाईस्कूल पास कर सका, इसलिए उसे भी सिपाही में ही भर्ती करवाना पड़ा. बीच में पाँच लडकियां भी थी, जिनका कम उम्र में ही निकाह करवाकर नजदीकी रिश्तेदारी में ही ससुराल कर दिया गया. छोटा बेटा सलाउद्दीन बड़े अल्लाउद्दीन से १८ साल छोटा था, उसके ठीक से होश सँभालने से पहले ही कमरुद्दीन अल्लाह को प्यारे हो गए. अत: उसकी सारी जिम्मेदारी अल्लाउद्दीन पर ही आ गयी. वह बारहवीं तक पढ़ा उसके बाद उसे मैकेनिकल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा कोर्स करने के लिए सुदूर कर्नाटक राज्य के एक प्राइवेट कॉलेज में भेजा गया. इस बीच अल्लाउद्दीन प्रमोशन पा कर पहले हेड कोंस्टिबल व बाद में थानेदार हो गया था. आर्थिक दृष्टि से भी वह संपन्न हो गया था क्योंकि ऊपर की कमाई बेहिसाब हो रही थी. कहने को उस कमाई का हिस्सा ऊपर को भी जाता था पर उसकी कोई जाँच नहीं होती थी.
कोटा के एक उद्योग नगर थाने में अपनी पोस्टिंग का लाभ लेकर अल्लाउद्दीन ने छोटे भाई को एक कारखाने में जूनियर इंजीनियर के पद पर लगवा दिया. अपने लिए गुमानपुरा इलाके में एक आलीशान मकान खरीद लिया. खुदा ने उसे सब कुछ दिया था पर औलाद से नहीं नवाजा इसलिए छोटे भाई सल्लाउद्दीन के बेटा पैदा होते ही उसने उसे गोद ले लिया.
सल्लाउद्दीन के और भी बच्चे बाद में हुए. उसने अपने परिवार को बूंदी के पैतृक मकान में ही रखा. नए जमाने की हवा अरब देशों की तरफ चली तो सल्लाउद्दीन भी कोटा की नौकरी छोड़ कर अबू धाबी चला गया, जहाँ उसे लाखों का वेतन व सुविधाएँ मिलने लगी. थानेदार साहब तो एक दिन रिटायर हो गए. रिटायरमेंट से पहले ही बेटे शकील को उन्होंने इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट में इन्स्पेक्टर बनवा कर अपने रसूख का भरपूर लाभ उठा लिया. इतना सब कुछ होते हुए भी ना जाने क्यों अल्लाउद्दीन साहब को ऐसा लगता था कि छोटा भाई ज्यादा दौलत वाला हो गया है. अत: उन्होंने एक दिन उसको कह ही डाला कि उसको पढ़ा लिखा कर इस स्थिति में लाने के लिए उन्होंने बहुत खर्चा किया है इसलिए या तो १० लाख रूपये एकमुश्त दे दे अथवा २५ हजार रुपये हर महीने दिया करे.
सल्लाउद्दीन को ये कत्तई कबूल नहीं हुआ. उसकी सोच थी कि अपनी पहली औलाद दे कर उसने सारे कर्जे चुका दिये हैं. यों मन मुटाव शुरू हुआ. इसके बाद थानेदार साहब ने कहा कि आधे मकान की कीमत दस लाख रूपये चुकाए जाएँ क्योंकि पूरे मकान को सल्लाउद्दीन ही इस्तेमाल कर रहा था. सल्लाउद्दीन ने जवाब दिया कि उसको थानेदार साहब का हिस्सा नहीं चाहिए तो बात बहुत बिगड़ गयी. अल्लाउद्दीन ने अपनी तरफ के दरवाजे व गेट बंद कर दिये जिस कारण सल्लाउद्दीन के परिवार को घर के पिछवाड़े दूसरों की नाली पार करके आने जाने की मुसीबत हो गयी. सल्लाउद्दीन ने अदालत का दरवाजा खटखटाया पर वहाँ पाँच सालों तक तारीख ही बदलती रही. एक दिन दोनों भाइयों के बीच मार-पीट होते होते बची.
शकील अपने बड़े अब्बा के रवैये से बड़ा दु:खी था पर उनके रौब व धौंस के सामने बोल नहीं सकता था. अल्लाउद्दीन का संपर्क अनेक नामी बदमाशों के साथ भी था. एक दिन जब सलाउद्दीन हिन्दुस्तान आया हुआ था तो बिना कोई सबूत छोड़े, उसे गोली से मरवा दिया गया. वह मरते मरते बयान दे गया कि उसके बड़े भाई ने ही गोली चलवाई थी. मामला अखबारों में भी उछला पर अल्लाउद्दीन के खिलाफ सीधी सीधे सबूत नहीं होने से कोई कार्यवाही नहीं हो सकी. लेकिन परिवार व रिश्तेदारी में तनाव तो आना ही था. जायदाद व पैसों की हवस ने एक कुनबे को बुरी तरह बर्बादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया.
इस पूरे प्रकरण में शकील अपने बड़े अब्बा से दूर दूर होता गया. उसे उनके रवैये से साफ़ लग रहा था कि उसके अब्बू को मरवाने में उन्ही का हाथ था. वह मानसिक रूप से बीमार रहने लगा, जिसकी परिणति उसकी सर्विस रिवाल्बर से बड़ी अब्बू की छाती को छलनी करने में हुई.
शकील ने अपना जुर्म कबूल लिया और वह जेल में है. परिवार का अब कोई भी खैर ख्वाह नहीं रहा.
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ye kya satya gatna hai ya aapne likhi hai?
जवाब देंहटाएंachchi prastuti... swarth me andha insaan apna hi vinash kar deta hai.Welcome to मिश्री की डली ज़िंदगी हो चली
मोनिका जी अनेक शुभकामनाएं.आपने कहानी के मर्म को छू कर जिज्ञासा की है, अच्छा लगा. दरसल साहित्य समाज का दर्पण होता है.इस कहानी में पात्रों के नाम व लोकेशन काल्पनिक हैं, कथानक लगभग सत्य है.
जवाब देंहटाएंबेहद उत्तम रचना अंकल.......
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