उनका असली नाम तो रसूल खान है, पर ये नाम अब लोग भूल चुके हैं. उनको मियाँ फजीहत या फजीहत चाचा के नाम से ज्यादा जाना जाता है. वे काम-धाम तो कुछ करते नहीं हैं, दिनभर फालतू घूमते रहते हैं. सुबह से ही इस फिराक में रहते हैं कि कहीं चाय-पानी या खाना मयस्सर हो जाये. अगर कोई सुराग मिल जाता है तो दिन की शुरुआत अच्छी हो जाती है. वे इस टोह में रहते हैं कि शहर में कहाँ दावत का धुँआ निकलने वाला है, ताकि वहां हाजिरी देकर दो एक दिन के लिए खाने की छुट्टी हो जाये. पर वे हैं बड़े खुद्दार किस्म के आदमी. किसी से ये नहीं कहेंगे कि ‘भूख लगी है खाना खिला दो’. यों अकेले आदमी की जिंदगी जी रहे हैं. कोई पूछे तो कहा करते हैं कि “खुदा ने सबके खाने-पीने का इन्तजाम अपने हाथों में रखा है. चीटी के लिए कण तो हाथी के लिए मण, पूरे हिसाब से किया गया है.”
भाग्य के भरोसे रहने वाले निठल्ले लोगों की ऐसी ही सोच होती है, पर हमेशा तो ऐसा चल नहीं सकता. कभी कभी फाके-मस्ती भी झेलनी पडती है. मस्जिद के पास वाले ढाबे में दानी लोग गरीबों के लिए खाने के पत्तल बोल जाते हैं तो फजीहत मियाँ चूकते नहीं हैं. जब कोई उनसे कहे कि चाचा कुछ काम किया करो तो वे साफ़ लफ्जों में कहने से परहेज नहीं करते हैं, "पंछी करे न चाकरी, अजगर करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम."
शादी ब्याह के मौसम में वे सब जगह पहुँच कर प्रसाद ग्रहण कर आते हैं. उनमें खास बात ये भी है कि वे जात-पात व धर्म की दीवारों को नहीं मानते हैं. इसलिए अक्सर शादी-ब्याह के मौसम में उनका पेट खराब हो जाया करता है. लेकिन वे इसकी परवाह नहीं करते क्योंकि हकीम गनी खान से मुफ्त में पेट रोकने की दवा नसीब हो जाया करती थी, पर अब जब से हकीम साहब को खुद जन्नत नसीब हो गयी है तो वे दवा के मोहताज हो गए हैं.
पिछले साल कुछ ऐसा हुआ कि आस-पास शहर में शादियों का अकाल सा रहा. हिन्दू कहते थे कि इस साल ‘सावा’ के मुहूरत ही नहीं हैं और मुसलमान भी ना जाने क्यों शादियों से कन्नी काटते रहे. फजीहत चाचा को वास्तव में फजीहत का मौक़ा आ गया. पिछले हफ्ते-दस दिनों से कहीं भी दावत का धुंआ नहीं उठ रहा था और मस्जिद के पास वाले ढाबे पर भी किसी दाता ने नजरशानी नहीं की थी. पेट जरूर खराब था पर खाली पड़ा था.
वे उदास बैठे, खाने की कोई तरकीब सोच ही रहे थे कि किसी को बातें करते हुए सुना कि सदर गली में एक नया सस्ता जनता होटल खुल गया है, जहाँ ‘एक रूपये में दो रोटी और दाल फ्री’ का बोर्ड लगा हुआ था. उन्होंने जेब टटोली तो एक रूपये का एक अधफटा सा नोट रिजर्व में रखा मिल गया. और वे शान से तहमद को पेट पर कसते हुए उस ओर चल पड़े.
जनता होटल मिल गया, और उनकी खुशी व व्यग्रता का ठिकाना न रहा. तुरन्त रुपया देकर खाने का कूपन लेकर कोने की टेबल पर आ गये. बैरा को बड़ी मातबरी से कूपन दे कर दाल-रोटी का इन्तजार करने लगे. इन्जार के पल समाप्त होते ही उन्होंने पाया कि होटल वाले ने बड़ी चालाकी बरती हुई थी, दोनों रोटीयाँ बहुत छोटी व पतली थी साथ ही दाल भी गुजराती थी जिसमें दाने ढूँढने पड़ रहे थे. अब क्या किया जाये? उन्होंने तरकीब निकाली कि रोटी को चूरे के रूप में खाँयें और दाल की पूरी कटोरी पी जाएँ.
जब तीन चार कटोरे दाल पी गए और रोटी एक भी पूरी नहीं खाई गयी थी तो बैरा ने मालिक को यथास्थिति से अवगत करना उचित समझा. मालिक भी महा काईयाँ था वह ऐसे ग्राहकों से निबटना खूब जानता था. उसने बैरा से कहा कि दाल में जम कर लाल मिर्च डाल कर दे और उसमें थोड़ा जमालगोटा भी घोल दे.
मियाँ फजीहत डकार लेते हुए दाल पी तो रहे थे और मिर्च की शिकायत भी ज्यादा ही हो रही थी, तो उन्होंने रोटी खाने की स्पीड और कम कर दी. दाल व पानी का ज्यादा सेवन करते रहे. उनको तसल्ली हो रही थी कि पेट भरने का ठीक इन्तजाम हो गया था. वे ऐसा सोच ही रहे थे कि जमालगोटा का असर शुरू हो गया, पेट पहले से खराब था सो तेजी से गु ड़-गुड़ करने लगा. जल्दी से दाल-रोटी से निबट के बाहर निकलने वाले थे कि होटल के दरवाजे पर जाते-जाते पेट लीक होने लगा. अब बीच बाजार में जोर की हाजत होने पर सार्वजनिक रूप से बैठ तो सकते नहीं थे इसलिए उन्होंने इसी में अपनी सुविधा समझी कि लीक होने दिया जाये.
पीले रंग कॉ मसाला टांगों व तहमद पर होते हुए उनके पीछे-पीछे बाजार को अपवित्र करते हुए एक लकीर की तरह बनता चला गया. वे एक फर्लांग के करीब पहुंचे ही थे कि उनका एक जिगरी दूसरा फजीहत मिल गया. उसने पूछा, “चाचा सुना है कि यहाँ पर एक जनता होटल खुला है, जिसमें एक रूपये में दो रोटी और दाल फ्री मिल रही है?” तो चाचा फजीहत ने उसकी तरफ गंभीरता से देखा और थोड़ा सा सोच कर कहा, “ये जो पीली लकीर है, तुम इसी के सहारे-सहारे चले जाओ, सीधे जनता होटल में पहुँच जाओगे.”
उसने चाचा फजीहत की नज़रों से नजर मिलाई, उनमें कुछ शरारत थी. वे मुस्कुरा भी रहे थे. छोटे फजीहत ने मुँह बिचकाया और उसी लकीर पर आगे बढ़ गया.
***
मेरे गाँव मे भी ऐसे ही एक महापुरुष हैं.. आपकी यह हास्यमय कथा मुझे भी कुछ ऐसा हो दोहराने का सुझाव दे रहा है :)
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां सर
जवाब देंहटाएंYeh toh bahut buri fajihat ho gayi
जवाब देंहटाएंमित्रों, खाली दिमाग को शैतान का घर कहा जाता है, बैठे-ठाले एक चरित्र सामने आया तो ये लेख महज बच्चों के मनोरंजन के लिए लिख डाला. प्रकाशित करने से पहले तीन बार सोचा कि कहीं ये मेरी रचनाओं के बिलो स्टेंडर्ड तो नहीं होगा? मेरे पोते ने कहा "दादा जी आप इसे पोस्ट कर दो लोग हल्का-फुल्ल्का मजा जरूर लेंगे"
जवाब देंहटाएं. आपने पढ़ कर तारीफ़ की है , धन्यवाद.