जमाने ने उनको बक्शा नहीं है,
उल्फत का जिनको शऊर आ गया हो,
उल्फत क्या है? जमाने को बतलायें क्या?
बिन पिए ही गरचे शरूर आ गया हो.
कहने में ये बात बड़ी सहज लगती है पर एक नामी शायर ने उल्फत को आग का दरिया कहा है, जिसे तैर कर जाने का विधान बताया है. तात्पर्य यह है कि ये बड़ी कठिन डगर है और इसमें खतरे भी कम नहीं हैं.
रामनारायण मीणा एक साधारण परिवार में जन्मा, ग्रामीण परिवेश में पला, आदिवासी छात्र और उसकी क्लासमेट ज्योत्स्ना कपूर, डेंटिस्ट्री के छात्र थे. संयोगवश एक दूसरे के निकट आते गए और यौवन की दहलीज पर चाहना की भावना में उलझते चले गए. दोनों में प्यार हो गया. प्यार इतना परवान चढ़ा कि जाति-समाज व आर्थिक असमानता की परिधियों को लांघते हुए दोनों ने आजीवन एक दूसरे के साथ रहने, साथ जीने मरने की कसमें खा ली. इंटर्नशिप पूर्ण होने से पहले ही दोनों ने अपने-अपने परिवारों की अग्राह्यता का भय सोचते हुए आर्य समाज मंदिर में जाकर चुपचाप विवाह रचा लिया.
डॉ. रामनारायण के माता-पिता अनपढ़ किसान थे. बेटे की इस उपलब्धि पर खुश थे कि डाक्टरी पढाई के साथ ही डॉक्टरनी बहू को भी घर ले आया था. लेकिन अपने संस्कारों के प्रभाव में वे इस बात से दु:खी थे कि शादी में ढोल-बाजे नहीं बजे और बिरादरी में अपने बेटे के डंके का जश्न परंपरागत रूप से नहीं मना सके. उन्होंने निश्चय किया कि शादी की दावत तो अवश्य देंगे. अत: सात गाँव की अपनी बिरादरी को ‘लड्डू-बाटी-चूरमा’ वाली जीमण का न्योता दे दिया. सर्वत्र खुशी का माहौल था.
जीमण के ठीक एक दिन पहले पुलिस जाफ्ता लेकर आई और डाक्टर दम्पति को अपने साथ ले गयी. पुलिस ने बताया कि इनके खिलाफ डा. ज्योत्स्ना के पिता ने रिपोर्ट लिखाई है कि ‘जबरदस्ती उनकी बेटी का अपहरण किया गया है.’ पुलिस का अपना तरीका होता है उसने इनकी बात बिलकुल नहीं सुनी और कहा कि क़ानून के अनुसार इनकी जमानत अदालत से ही हो सकेगी. इस प्रकार बने बनाए खेल में भारी विघ्न उपस्थित हो गया.
ज्योत्स्ना के पिता सुरजीत कपूर एक पुराने आई.ए.एस. अधिकारी थे, क़ानून की दाँव-पेंच खूब समझते थे. उन्होंने दो बड़े क्रिमिनल लायर्स को इस मामले में नियुक्त किया. दरअसल ज्योत्स्ना ने उनको अब तक ये भनक नहीं लगाने दी थी कि वह किसी लडके के प्रेमजाल में है. वैसे भी कपूर साहब में बहुत सुपीरियोरिटी काम्लेक्स था. मीणा आदिवासी परिवार से सम्बन्ध उनके लिए बड़ी तौहीन करने वाली बात हो गयी. नए जमाने हवा से बेखबर वे अपनी बेटी से बहुत गुस्से में थे पर इस वक्त उनका मिशन था कि कैसे भी दोनों को अलग करा दिया जाये और बेटी कैसे भी एक बार उनके घर आ जाये.
सारे दाँव-पेंच तिकड़म लड़ाए गए. चूँकि दोनों ही बालिग़ थे और मजिस्ट्रेट के सामने ये कहने को तैयार थे कि उन्होंने ‘अपनी राजी से विवाह किया है,’ मजिस्ट्रेट साहब को भी परदे के पीछे से पट्टी पढाई गयी. उन्होंने ज्योत्स्ना की मानसिक हालत ठीक न होने की दलील पर उसे सीधी नारी निकेतन भेजने का आदेश कर दिया और लड़के व उसके परिवार के चार पुरुष सदस्यों को अदालत परिसर में हुल्लड़बाजी तथा गुंडागर्दी के आरोप में अन्दर कर दिया जिनकी एक सप्ताह तक जमानत नहीं हो सकी.
इस प्रकार जब मामला बुरी तरह उलझ गया तो स्थानीय अखबारों की सुर्ख़ियों में भी आया. आम लोगों के लिए ये मनोरंजक समाचार से ज्यादा कुछ भी नहीं था पर युवा प्रेमियों के जीवन में एक बड़ा हादसा हो गया.
कपूर साहब अपने रसूख व कानूनी कार्यवाही के सहारे बेटी को अपने घर ले आये और उस पर इस रिश्ते को तोड़ने व भूल जाने के लिए तमाम दबाव व लानत-मलानत देकर समझाते रहे. पर ज्योत्स्ना इस प्रकार अपने व अपने प्यार के साथ किये गए अत्याचार से इतनी घायल और असहाय हो गयी कि उसने खाना-पीना और बोलना सब बंद कर दिया. कपूर साहब ने उस पर पहरे बिठा दिये. इस प्रकरण में ज्योत्स्ना की माँ ने भी उसका बिलकुल साथ नहीं दिया. उधर मीणा परिवार पर प्रशासनिक श्रोतों से भय और आतंक की छाया बनी रही.
तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में सही लिखा है कि ‘समरथ को नहि दोष गुसांई’. ‘सोशल हैरार्की’ के प्रभाव में सत्य व प्रेम घुट कर, दब कर रह गया.
इस प्रकरण की खबर जब मेडीकल कॉलेज की छात्र युनियन तक पहुँची तो छात्रों ने इसे आन्दोलन का रूप लेकर बवाले की तरह उभार दिया. राज्य के स्वास्थ्य मन्त्री और मुख्य मन्त्री को व्यतिगत रूप से हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
प्रेमी डॉक्टर दम्पति को अदालत से भी राहत मिली और अब वे स्वतंत्र है. मेडिकल कॉलेज के प्रांगण में नए पुराने सभी छात्रों ने एक हंगामेदार स्वागत समारोह किया. डॉ. रामनारायण व डॉ. ज्योत्स्ना को जीत की खुशी में उनको ताज पहनाया गया. इस मौके पर खुद डॉ. रामनारायण ने ये शेर पढ़ कर समारोह का समापन किया:
वफ़ा की उनसे शिकायत नहीं है
हीर औ शीरी की वह हमसफ़र हो गयी हैं
वफ़ा क्या है? जमाने को बतलायें क्या?
परवाने को बचा कर, शमा जल रही है.
***
खुले आम ऐसा आसुरी कृत्य? आश्चर्य होता है कि इस देश में ज़िम्मेदार पदों पर कैसे-कैसे लोग लोग बैठ गये हैं। खैर, अब यही कहकर संतोष किया जाये कि, "अंत भला सो सब भला"
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