मुझे सन २००३ में दक्षिण-पूर्व एशिया के देश फिलीपींस की राजधानी मनीला जाने का अवसर मिला. ८००० द्वीप समूहों का ये छितरा हुआ देश अनेक संस्कृतियों के मिलन का अनोखा उदाहरण है. हमारी मुम्बई के देशान्तर की सीध में है और मौसम भी लगभग वैसा ही रहता है. थाई एयरवेज से बैंकाक जाकर जहाज बदला गया. बैंकाक में भी बड़ा व सुन्दर आधुनिक सुविधाओं वाला एयरपोर्ट है. मुझे थोड़ी सी दिक्कत वहाँ यों हुई कि वहाँ गाइड तथा पोर्टर अंगरेजी भाषा नहीं समझ रहे थे. मनीला के लिए १२ नम्बर गेट पूछने-समझाने के लिए इशारों से काम लेना पड़ा.
करीब ४-५ घंटों तक समुद्र के ऊपर उड़ते हुए जब मनीला पहुँचा तो ऐसा नहीं लगा कि कहीं विदेश में पहुँच चुका हूँ क्योंकि वहाँ का आम आदमी भारतीयों के ही रंग रूप वाला था. हाँ, कुछ चीनी/जापानी मूल के लोग अलग से पहचान में आ रहे थे.
मनीला आधुनिक शहरों की तरह गगनचुम्बी इमारतों से आच्छादित था. क्रिसमस का मौसम था इसलिए पूरे शहर को सर्वत्र सजाया गया था. रात को भी रंग-बिरंगे रोशनियों से चारों तरफ पार्क, सड़कें, पेड़, व इमारतें नहा रही थी. एक माह तक चलने वाला ये कार्यक्रम बड़ा अद्भुत व मनोहारी था. इमारत की २९ वीं मंजिल से (जहाँ मैं ठहरा हुआ था) पूरा वातावरण दैदीप्यमान लग रहा था.
मैंने फिलीपींस का इतिहास पढ़ा तो मालूम हुआ कि लगभग ३०,००० वर्ष पहले यहाँ बोर्नियो, सुमात्रा, व मलय देश से लोगों का आगमन हुआ और मलय की सनातन संस्कृति सर्वमान्य हो गयी. कुछ ऐसे सबूत भी हैं कि यहाँ हिन्दू राजा हुए. १४वीं शताब्दी में अरब व्यापारियों ने आकर इस्लाम फैलाया और मुस्लिम् बादशाहों का शासन रहा. आज भी दक्षिणी द्वीपों में मुस्लिम आबादी बहुत है. उत्तर में यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों ने व्यापार के बहाने प्रवेश किया. उसके साथ ही ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार होता गया.
सन १५२१ में लोपेज दी विलोरस नाम के स्पैनिश व्यापारी ने इस देश को अपने राजकुमार, फिलिप द्वितीय, को समर्पित करते हुए इस देश का नाम फिलीपींस रख लिया. बीच-बीच में स्थानीय लोगों व स्पैनिश लोगों के बीच लड़ाइयां भी होती रहीं. चीनी व्यापारियों ने भी सन १६०२ के आसपास उनसे लड़ाई लड़ी पर वे स्पैनिश सेना के मुकाबले कमजोर निकले हजारों चीनी मारे गए.
सन १६०० के आसपास डच लोगों ने भी यहाँ घुसपैठ करने की कोशिश की पर स्पर्धा में जीत नहीं पाए. उसके बाद स्पेन ने इस देश के धन व खनिजों का दोहन किया, और लंबे समय तक राज्य किया. सन १६६२ में ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी यहाँ डंका बजाया, लेकिन २ साल बाद ही भगा दिये गए थे. १८९६ में स्थानीय लोगों ने स्पैनिश अत्याचारों के विरुद्ध बिगुल बजाया लेकिन ये विद्रोह भी दबा दिया गया. १८९८ में स्पेन व संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच भीषण युद्ध हुआ. अंत में महज २० मिलियन अमेरिकी डालर्स में समझौता करके ये देश अमरीकी कब्जे में आ गया. धीरे-धीरे अमेरिकी संस्कृति भी आ गयी. बाद में फिलीपींस द्वितीय विश्व युद्ध का केन्द्र बना और जापानियों ने १९४१ में इसे छीन लिया, पर ३ साल बाद ही अमेरिका ने इसे वापस जीत लिया. लाखों अमेरिकी व जापानी सैनिक यहाँ मारे गए जिनके स्मारक यहाँ बने हुए हैं. युद्ध के अवशेष भी यहाँ साफ़ दिखाई देते हैं.
आजादी के लिए यहाँ भी खूब लम्बी लड़ाई लड़ी गयी. भारत की ही तरह राष्ट्रीय नायकों ने बहुत कष्ट पाए और १९६१ में यह गणराज्य घोषित हो गया लेकिन प्रथम राष्ट्रपति मारकौस ने ३२ वर्षों तक एक तानाशाह की तरह काम किया. उसके बाद उसकी पत्नी इमेल्डा सत्ता में आई और भृष्टाचार में बदनाम हुई. ये तो वहाँ का पुराना इतिहास है. वहाँ चीनी व जापानी मूल की बड़ी आबादी हो गयी है जो फिलोपीनो लोगों में समन्वित हो गए हैं. भारतीय भी बहुतायत में यहाँ हैं पर मुझे लगा कि वे अपनी सही पहचान नहीं बना पाए हैं.
पार्क में घूमते हुए मुझे एक फिलिपिनो सज्जन मिले. मैंने उनको बताया कि ‘मैं इंडिया से आया हूँ’ तो उसने पूछा कि क्या मैं ‘फाइव-सिक्स’ हूँ? मैंने ना कहते हुए जवाब दिया. बाद में मेरे मित्र ने बताया कि यहाँ आज से लगभग १५० साल पहले सिख व सिंधी व्यापारी आ गए थे जो मुख्य रूप से ब्याज-बट्टी का धन्धा करने लगे (यहाँ की मुद्रा पेसो का मान लगभग भारतीय मुद्रा रूपये के बराबर ही है.) जिस तरह उत्तर भारत में पठान लोग रुपये उधार देकर व्याज वसूल करते थे, उसी प्रकार का चरित्र इन भारतीय व्यापारियों का रहा है. सुबह ५ उधार देकर शाम को ६ वसूल करते हैं, इसीलिये उनको यहाँ ‘फाईव-सिक्स’ के नाम से पुकारा जाने लगा.
होने को यहाँ इन सिंधी प्रवासियों ने शिव मंदिर व सिखों ने गुरुद्वारे बना रखे हैं, जहाँ सप्ताह में कीर्तन-भजन भी होते रहते हैं. भारत से कथा वाचक भी बुलाये जाते हैं. भारत के राष्ट्रीय तीज-त्योहारों पर लोग इकट्ठे भी होते हैं, पर यहाँ इस समृद्ध देश में भारतीय लोग आज भी फाईव-सिक्स के नाम से बदनाम हैं.
इस अवसर पर मुझे आजादी के बाद का एक दृष्टांत याद आ रहा है कि जब थाईलैंड में स्वतंत्र भारत का पहला राजदूत पहुँचना था तो वहाँ के लोगों ने उनके स्वागत की जोरदार तैय्यारी कर रखी थी क्योंकि वहाँ बौद्ध धर्म बहुत प्रबल हैं और वे लोग भारत को अपना ‘मक्का’ समझते हैं. जब राजदूत महोदय अपने चार्टेड प्लेन से उतरे तो लोगों को बहुत मायूसी हुई कि वे पूरे अंग्रेज़ी लिबास में यानि टाई-टोप में थे और बगल में कुत्ता लिए हुए थे. इसकी बहुत चर्चा व आलोचना भी हुई थी.
विदेश मंत्रालय के सांस्कृतिक विभाग को ऐसे मामलों में बहुत संवेदनशील होने की जरूरत है. अपने देश की गरिमा व महान संस्कृति का इस प्रकार उपहास नहीं होने देना चाहिए.
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रोमांचक जानकारी - आभार.
जवाब देंहटाएंआपकी रचना पढ़ने के बाद ये खबर पढ़ी: MEA officials in gift scam shame nation: http://www.hindustantimes.com/India-news/NewDelhi/MEA-officials-in-gift-scam-shame-nation/Article1-793897.aspx
जवाब देंहटाएंRochak jaankari...thanks for sharing :)
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