सन १९६३ में मैंने धर्मयुग नाम की तत्कालीन हिन्दी साहित्यिक पत्रिका को एक मजेदार घटना लिख भेजी थी पर वह उसमें छपी नहीं. कुछ वर्षों के बाद मैंने उससे मिलती-जुलती हास्य लघुकथा एक दवा कंपनी की प्रचार पुस्तिका में ‘जोक्स’ के साथ पढ़ी. ये संयोग हो सकता है. मैं उस मूल विवरण को अपने पाठकों तक पहुंचाना चाहता हूँ.
मिस्टर वी. फरार एक एंग्लोइंडियन जेंटलमैन थे. वे हमारे लाखेरी कारखाने में अकाउंट्स क्लर्क के पद पर कार्यरत थे. शक्ल-सूरत में बिलकुल अंग्रेज, गोरी चमड़ी, नीली आँखें और बातचीत में शालीन. देश की आजादी के बाद पूरे कारखाने/कालोनी में वे अकेले ही अंग्रेज ब्रीड के कर्मचारी थे. उन दिनों वेतन बहुत कम होता था, पता नहीं वे उस कम वेतन में कैसे गुजारा करते होंगे? क्योंकि अब मैंने जब अंग्रेजों का रहन-सहन, खान-पान व खर्चों को देखा है तो मैं विश्लेषण करता हूँ कि वे सचमुच गरीबी में जी रहे होंगे. तीन-चार छोटे बच्चे भी थे. उनकी श्रीमती भी उन्हीं की तरह एंग्लोइंडियन थी पर वे ‘हाफ-इन्डियन’ लगती थी. वे गोवानी थी. घर में उनकी पारिवारिक भाषा अंग्रेजी ही थी.
मेरी मिस्टर फरार से पहली मुलाक़ात आफिस में कुछ आफीशियल कार्य के दौरान हुई और हम दोनों जल्दी ही घनिष्ठा भी हो गये. उनके एक भाई आस्ट्रेलिया में रहते थे, जो कभी-कभी इंडिया आते थे और बहुत सारी गिफ्टस् उनके लिए लाया करते थे. उनके एक पुत्र को मैंने बाद में अपनी कोआपरेटिव सोसाइटी में बतौर क्लर्क भर्ती किया, मैं तब वहां चेयरमैन भी था. ये लोग बड़े सरल तथा सिन्सियर किस्म के थे.
मिस्टर फरार से घनिष्टता होने का एक ‘इन्फोर्मल बोंड’ ये भी था कि वे एक पुष्प-प्रेमी व्यक्ति थे. उनके ‘जी-टाइप’ क्वार्टर में आगे पीछे खूब जगह थी, जिसको उन्होंने स्वयं खोद कर पुष्प वाटिका का रूप दे रखा था. उन दिनों मौसमी फूल या तो जनरल मैनेजर के बंगले में खिलते थे या फिर मि. फरार के क्वार्टर में. सड़क से आते जाते उन तरह-तरह के देशी-विदेशी किस्म के फूलों को लोग निहारते जाते थे. मौसम के अनुसार कई रंगों के गुलाब, कई रंगों के कौसमौस, कोलंबाइन, अजेलिया, पैन्जी, बिगोनिया, डेनथासस, ऐस्टर, डेजी, व लिली जैसे नायाब-दिलकश फूल वे उगाते थे. मुझे भी फूलों का थोड़ा बहुत शौक था. मैं भी कोलकता की ‘बटन सीड्स’ से डाक द्वारा फूलों के बीज मंगाता रहता था. कई बार हमने बीजों/पौधों की अदला-बदली भी की.
मि. फरार के पास पालतू खरगोश भी थे, घर के पिछवाड़े उनके लिए पिंजड़े बना रखे थे. मुझे भी उन्होंने दो प्यारे से खरगोश के बच्चे दिये थे, तब मेरे घर अपने बच्चे नहीं हुए थे. हम उन्हीं से खेलते रहते थे. खरगोशों ने मेरे क्वार्टर की आगंन-बाड़ी में अपना बिल खोद लिया था, जहाँ उनका परिवार बढ़ता रहा.
मि. फरार से मेरी मित्रता उनके रिटायरमेंट के बाद भी अन्तिम समय तक रही. एक बार उन्होंने बताया कि खरगोश पालने का शौक उनको पहले से था. वे शुरू में दो खरगोश के बच्चे कहीं दूर से लाये थे. उस वक्त उनके पास पिंजड़ा नहीं था तो एक खरगोश को बिल्ली खा गयी. जब दूसरा अकेला रह गया तो उसकी बहुत हिफाजत होने लगी. वह रुई के फाहे की तरह सुन्दर व नरम था, सफ़ेद बालों के अन्दर लाल-लाल आँखें, बहुत आकर्षक लगता था. दुर्भाग्यवश सर्दियों में उसे ठण्ड लग गयी और एक दिन मर गया. क्वार्टर के पीछे बंजर जमीन थी, वहीं गड्ढा खोद कर उसे गाढ दिया गया. अगली सुबह उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने उसे साफ़ सुथरा, पिछवाड़े पिंजड़े के अन्दर पड़ा हुआ पाया. उन्होंने उत्कण्ठावश जब उसे टटोला तो पाया कि वह तो मरा हुआ ही था. अब प्रश्न ये हुआ कि कब्र से उठ कर नहा धो कर वह पिंजड़े में कैसे पहुंचा? बहुत दिनों तक तो वे उसे क्राइस्ट का चमत्कार समझते रहे, पर एक दिन राज खुल गया.
तीन चार क्वार्टर छोड़ कर भंवरलाल जोशी रहते थे. एक शाम उन्होंने देखा कि उनका पालतू रोडेशियन कुत्ता फरार साहब के खरगोश को मुँह में दबा कर पिछवाड़े से अन्दर ला रहा था. जोशी जी को बड़ा दु:ख व अफ़सोस हुआ कि उनके कुत्ते ने बड़ा अपराध कर डाला, अत: कुत्ते की पिटाई की गयी. खरगोश के विषय में दोनों पति-पत्नी ने विचार-विमर्श के बाद तय किया कि धो-धा कर साफ़ करके चुपके से खरगोश की लाश को मि. फरार के घर में पीछे की तरफ डाल दिया जाये, ताकि मृत्यु का कारण प्रश्नचिह्न की तरह बना ही रहे. भंवरलाल जोशी खरगोश को चुपके से जाकर पिछवाड़े रखे खाली पिंजड़े में डाल आये.
जब आफिस में मरे हुए खरगोश का नहा-धो कर वापस पिंजड़े में आने की चर्चा जोरों से चल पडी तब जोशी जी ने सच्चाई बताने का साहस किया.
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सार्थक प्रस्तुति, आभार.
जवाब देंहटाएंपधारें मेरे ब्लॉग meri kavitayen पर भी, मुझे आपके स्नेहाशीष की प्रतीक्षा है.