बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

'जंगली' दा

स्वर्गीय केशवचंद्र नैठानी बहुत बड़े दिल वाले व्यक्ति थे. ना जाने उन्होंने कितने लोगों की मदद की और अहसान किये, पर किसी को कभी बताया नहीं. वे कहा करते थे, “अगर किसी को कोई आर्थिक मदद दांये हाथ से दी जाये तो बाएं हाथ को मालूम नहीं पड़ना चाहिए.” मैं स्वयं भी उनके अहसानमंदों में से एक हूँ. वे देहरादून के एफ.आर.आई (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट) में एडमिनिस्ट्रेटिव विंग में बड़े बाबू थे. उन्होंने अपने कई रिश्तेदारों को ही नहीं, गैरों को भी रास्ता बता कर वन विभाग में प्रविष्टि दिलवाई.

नैठानी जी के पहली पत्नी से दो बेटे थे, बड़ा प्रकाश व छोटा विष्णु. तब उनकी बड़ी सुखी गृहस्थी थी. परन्तु जब उनके दोनों बेटे कॉलेज में ही पढ़ रहे थे, तभी उनकी श्रीमती की अल्पकालिक बीमारी से अकाल मृत्यु हो गयी. बाहर वाले, मित्रगण, सब हमदर्दी बताकर रह जाते हैं, लेकिन ४२ साल के विधुर को मानसिक व व्यवहारिक स्तर पर कितनी कठिनाइयां झेलनी होती हैं, यह वही समझ सकता है, जो भुक्तभोगी हो. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुन्दर सुगढ़ स्त्री मझधार में छोड गयी तो परिवार को सँभालने की दृष्टि से उनके मन में आया कि जल्दी प्रकाश की शादी कर दी जाये ताकि गाड़ी पटरी पर चलती रहे. उस समय प्रकाश बी.एससी. का छात्र था. उसके लिए उन्होंने कन्या की खोज शुरू कर दी.

केशवचंद्र स्वयं बहुत खूबसूरत, गोरे-चिट्टे व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. जब अपने एक निकट सहयोगी के साथ लड़की देखने सहारनपुर के ध्यानी परिवार में गए तो उनसे मिलकर घर के लोग इतने प्रभावित हुए कि लड़की के बाप ने कह डाला, “हम तो अपनी बेटी का व्याह आपके साथ करना चाहते है, बेटे की शादी आप बाद में करते रहना.”

बात गंभीरता से कही गयी थी, नैठानी जी असमंजस में पड़ गए. बाद में मित्रों व संगी साथियों ने उनको इस बारे में प्रोत्साहित किया. इस तरह बेटे के लिए नहीं, अपने लिए एक उन्नीस वर्षीय सुन्दर लड़की ब्याह लाये. इस पर कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया, चटखारे भी लिए, पर लोगों का क्या है, कहते रहते हैं.

नैठानी जी बल्लूपुर चौराहे के पास अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे. नई दुल्हन ने आते ही अपना कारोबार संभाल लिया. जो चले जाते हैं, उनकी जगह कोई यथावत भर नहीं सकता है, लेकिन यही दुनिया की रीति है.

कालान्तर में उन्होंने प्रकाश व विष्णु दोनों के विवाह भी कराये. वे दोनों इंडियन फोरेस्ट सर्विस में भी आ गए. मैं, विष्णु नैठानी का दोस्त व क्लासमेट था, लेकिन मेरी घनिष्ठता प्रकाश दा से खूब रही. प्रकाश दा मेरी तरह ही साहित्य में भी रूचि रखते थे. 'जंगली' उपनाम से बहुत सी बढ़िया कवितायेँ लिखा करते थे. हम एक दूसरे की रचनाओं का खूब आनन्द लिया करते थे. चूंकि मेरा भी चयन आई.एफ.एस में हो गया था, बाद में कुछ संयोग ऐसे बने कि जब प्रकाश नैठानी उर्फ ‘जंगली’ दा अल्मोड़ा के डी.एफ.ओ. बने तो मैं उनके अधीन ए.सी.एफ (सॉइल कन्जर्वेशन) के पद पर कुछ साल रहा.

उधर केशवचंद्र जी जिनको हम सब ‘बाबू जी’ कहा करते थे, हर दो साल में एक बेटा पैदा करते हुए ६ और भी बेटों के बाप बन गए थे. उनके रिटायरमेंट तक बच्चे स्कूल कॉलेज तक ही पहुँच पाए थे अत: आगे उनके कैरियर की पूरी जिम्मेदारी जंगली दा ही निभाते रहे. वन विभाग की अन्तरप्रान्तीय नौकरी के रहते, मैं काफी समय तक इस परिवार से दूर हो गया था. कुछ सालों बाद बाबूजी की मृत्यु का समाचार मुझे देर से मिल पाया तो मैंने शोक संवेदना भी भिजवाई थी.

समय किस तरह आगे बढ़ता जाता है. यह पता ही नहीं चलता है कि समय भाग रहा है या हम भाग रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे रेल-गाड़ी के अन्दर से हमको पेड़-पौधे व धरती पीछे को भागते महसूस होते है.

प्रकाश नैठानी जब बिहार के चायवासा में कंजरवेटर थे, तभी उन्होंने देहरादून के पौस इलाके बसन्त विहार में एक शानदार घर बनवाया. दुर्भाग्य यह रहा कि उनके रिटायरमेंट के चंद साल पहले उनके साथ एक दर्दनाक हादसा हो गया कि उनका इकलौता बेटा अपने दोस्तों के साथ किसी बरसाती तालाव में नहाने गया था, जहाँ वह डूब गया. पुत्रशोक ने जंगली दा को अन्दर तक आहत कर दिया, वह हर वक्त शराब में डूबे रहने लगे. इसी हालत में जब वे रिटायर हुए तो हम सभी शुभचिंतकों ने उनको अनेक प्रकार से सान्त्वनाएं दी. उनकी श्रीमती यानि प्रभा भाभी का तो बहुत बुरा हाल था. यहाँ आकर आदमी ईश्वर की माया या प्रकृति के सामने लाचार हो जाता है.

उनके सभी छोटे भाई अपनी अपनी योग्यतानुसार नौकरियों में लग गए तथा अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. इस सँसार का ऐसा ही दस्तूर होता है. कभी कभी जरूर बड़े भाई को याद करते होंगे. मैं भी कभी साल दो साल में किसी कार्यवश देहरादून जाता था तो उनसे मिले बिना नहीं लौटता था.

दो साल पहले जब मैं जंगली दा से मिला तो वे बहुत दार्शनिक अंदाज में बातें करने लगे थे. उनकी उम्र भी लगभग ७८ वर्ष हो गयी थी.  शरीर जरूर उनका साथ नहीं दे रहा था, अनेक तरह की व्याधियों ने आ घेरा था. आर्थिक परेशानियां नहीं थी, उन्होंने खूब रूपये कमाए थे, सरकार  के कई विभाग हैं ही ऐसे कि कोई   ईमानदार रहना चाहे  तो बड़ा मुश्किल होता है. अब तो पेंशन भी अच्छी खासी मिल रही थी. उन्होंने एक ड्राईवर-कम-कुक रखा था, जो सपरिवार उनकी सेवा में तैनात रहता था. पैदल चलने में अब जोर आने लगा था इसलिए वे उससे बोले, “चलो आज हमको एफ.आर.आई. परिसर में घुमा लाओ”

परिसर के अन्दर जाते ही बहुत सी पुरानी यादें ताजी हो गयी. हरे-भरे दूब के मैदान, बड़े बड़े छायादार पेड़, सौ वर्ष पुरानी शानदार मुख्य बिल्डिंग, हॉस्टल, लाइब्रेरी, मेस सब जैसे था, लगभग आज भी वैसा ही है. जंगली दा बोले, "कल हम लोग इस कैम्पस को अपना कहते थे. अब सब नए लोग आ गए हैं, अनेक वनकी सम्बन्धी नए विषय भी पढाए जाते हैं. यह अब डीम्ड यूनिवर्सिटी बन गयी है. कैम्पस के अन्दर के मार्गों का नाम आज भी पुराने समय के अंग्रेज अफसरों के नाम पर ही चल रहे हैं. यों घुमते हुए उन्होंने अनेक पुरानी यादों को, बाबूजी की बातों का जिक्र बड़े निराशा भरे अंदाज में किया. वे बोले, “पता नहीं अब और कितने दिन ज़िंदा रहना है!”

वे अपने हार्ट एंजाइना, डाईबिटीज, आँखों के मोतियाबिंद का बार बार जिक्र तो करते थे, पर ईलाज के बारे में कोताही बरतते रहे. दरअसल जीवन के प्रति उनका नजरिया बिलकुल नकारात्मक हो गया था. मैं भारी मन से अपने गृह नगर नैनीताल लौट आया. रास्ते भर जंगली दा की बातें सिनेमा की रील की तरह मेरे मन- मस्तिष्क में घूमती रही.

इस बात को एक साल गुजर गया. इस बीच मैं कोई संपर्क भी नहीं कर पाया. मेरी अपनी भी उम्र अब जीवन के चौथे पायदान पर पहुँच चुकी है, आँखों-कानों से मुझे भी लाचारी सी महसूस होने लग गयी है. मन हुआ कि एक बार फिर से जंगली दा से मिल आऊँ. क्या पता फिर देहरादून जाना हो या न हो?

उनके बंगले के बाहर सड़क पर जब मेरी गाड़ी रुकी तो दूर से ही उनकी छत पर सफ़ेद मरदाना पायजामा व शर्ट सूखते दिखे. मैंने मन ही मन सोचा ‘चलो जंगली दा अभी मौजूद हैं’. घंटी बजाई तो उनके नौकर ने दरवाजा खोला. मैं सीधे बैठक में पहुंच गया. प्रभा भाभी उसी पुराने अंदाज में बैठी हुई पान चबा रही थी, पर माथे पर उनकी हमेशा सजी रहने वाली बड़ी बड़ी बिंदी गायब थी. उनकी बगल में एक दुबली-पतली ६०+ उम्र की महिला भी बैठी हुई थी. मैंने दोनों को नमस्कार किया पूछ लिया, “प्रकाश दा कैसे हैं?” वह उत्तर में रूआंसे स्वर में बोली, “अरे भैया, तुमको खबर नहीं कर पाए, वे पिछले १८ अगस्त को हमें छोड़ कर चले गए हैं.”

बड़ा सदमा लगा, मैंने कहा, “छत के ऊपर मर्दाने कपड़े देख कर मुझे लगा कि भाई साहब अभी मौजूद हैं.” वह बोली, "कपड़े मेरे छोटे देवर के होंगे.” फिर साथ में बैठी महिला का परिचय कराते हुए बोली, “ये मेरी सास हैं.” मुझे बाबू जी के जीवन का घटनाक्रम याद आ गया. उनके सम्बन्ध में पुरानी बातों का जिक्र हुआ. प्रकाश दा होते तो और भी बातें होती. भाभी जी ने बताया कि बाबू जी की ही तरह प्रकाश दा भी बहुत से जरूरतमंदों को गुप्त दान दिया करते थे. विशेषकर विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता देते थे. मृत्यु से पहले बहुत सा रुपया नेत्रहीन व मूक-बधिर संस्थानों को देकर गए.

मैं सोचता हूँ कि जंगली दा की उपलब्ध कविताओं को पुस्तकाकार रूप में छपवाऊँ, इन कविताओं में रोमांस है, प्यार है, श्रृंगार है, चाहत है और जीने की तमन्ना है, दुनियाँ उनको इसी रूप में याद करती रहे  उनके प्रति मेरी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

लातों का देव

“जो जहाँ गया है, वहीं रह जाएगा,” घर के दरवाजे पर आकर बड़ी डरावनी कड़कती आवाज में बाबा बोला तो गृहिणी मालती देवी बेहद डर गयी. उसके पति मास्टर आनन्द वल्लभ तब घर पर नहीं थे. दीपावली के दिनों में वह अक्सर अपने यार दोस्तों के साथ तीनपत्ती खेलने व दाँव लगाने में मगन हो जाता था. दो दो, तीन तीन दिनों तक घर नहीं आता था. इस तरह जुए का फड हर वर्ष इस अवसर पर चलता था मानो यह एक सांस्कृतिक विरासत वाला कार्यक्रम हो. जब से पुलिस ने सख्ती की और छापेमारी शुरू की तब से बिलकुल गुप्त स्थान को अड्डा बना दिया है. जुआ खेलना एक लत है क्योंकि लालच में कमाते कम तथा गंवाते ज्यादा हैं. और हार जाना बहुत ज्यादा गम देता है.

बाबा के कठोर वचन सुन कर मालती और घर में मौजूद तीनों छोटे बच्चे सहम कर रह गए. मालिक घर में नहीं था यह समझते हुए वक्त की नजाकत देख कर बाबा ने अपना नाटक और तेज कर दिया. काल भैरव की जयकार करते हुए और अपनी घुँघरू बंधी मोटी, टेढ़ी-मेढ़ी लाठी को बार बार पटक अपनी भिक्षा के लिए हुडदंग किये जा रहा था.

आनन्द वल्लभ एक कॉलेज में प्राध्यापक है और कॉलेज परिसर में निवास है. जहाँ दो-तीन कमरों वाले आवासीय क्वार्टर  बने हुए हैं. इस परिसर में छुट्टी के दिनों के अलावा अन्य दिनों में भी दिन भर चहल-पहल, विद्यार्थियों की धमाचौकड़ी रहती है पर जब छुट्टी हो तो सुनसान बियावान जैसा लगने लगता है. क्वार्टर भी कुछ इस ढंग से बने हैं कि एक घर का हल्ला-गुल्ला दूसरे तक मुश्किल पहुँच पाता है.

मालती देवी ने एक कटोरे में चावल व पाँच रूपये बाबा को देने के लिए निकाले, पर बाबा का अंदाज निराला था वह घमकाते हुए बोला, “तुम्हारे ऊपर कालसर्प दौड़ रहा है. अगर बचना है तो पाँच सौ रूपये निकालो.” गृहिणी और भयभीत हो कर अलमारी में से पाँच सौ रुपयों का नोट निकाल कर ले आई और बाबा को समर्पित कर दिया. बाबा डरी हुई औरत की कमजोरी को भांप गया फिर बोला, “कोई नया कपड़ा भी निकाल अन्यथा यहीं भस्म कर दूंगा.”

बेचारी मालती की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. वह हिप्नोटाइज्ड यानि सम्मोहित जैसी हालत में हो गयी. नया कपड़ा तो घर में था नहीं, मास्टर साहब दीपावली पर पहनने के लिए नया चिकन का कुर्ता-पायजामा लाये थे, सो निकाल कर बाबा को दे दिया. बाबा कुछ और बोलता एक बच्चे ने फट से दरवाजा बन्द कर दिया. बाबा आगे बढ़ गया तब कुछ राहत महसूस की. बाद में उसको लगा कि बाबा उसे धमका कर लूट कर ले गया, पर अब क्या हो सकता था?

दोपहर को जब आनन्द वल्लभ भोजनार्थ घर लौटा तो बहुत थका हारा था. परेशान यों भी था कि इस बार वह दो हजार रूपये हार कर आया था. बच्चों ने बाप के घर में घुसते ही ‘बाबा-प्रकरण’ को चुस्ती से कह सुनाया. आनन्द वल्लभ पहले से ही चोट खाया हुआ था, घर से इस प्रकार रूपये और कपड़े लुटने की बात सुनकर मालती पर आगबबूला हो गया कि ‘उसे दो कौड़ी की अकल नहीं है...बाबा के झांसे में आ गयी...बेवकूफी की भी कोई सीमा होती है. आदि आदि."

मालती के पास अपने बचाव में कोई शब्द नहीं थे वह केवल ये कह सकी कि “मैं बहुत डर गयी थी क्योंकि बाबा कह रहा था कि जो जहाँ है वहीं रह जाएगा.”

इस बार इस परिवार की दीपावली बहुत फीकी रही. अगर मास्टर जी जुआ खेलने नहीं जाते तो शायद यह कांड नहीं होता. कहा गया है:-

जहाँ सुमति तहं संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तंह बिपति निदाना.

खैर, यह बात आई-गयी हो गयी. कॉलेज स्टाफ में इस कांड पर खूब चटखारेदार चर्चाएं हुई. कुछ ने लानत-मलानत भी की. आनन्द वल्लभ ने सबक लेते हुए संकल्प किया कि भविष्य में इस बदनामी की जड़ जुएबाजी से दूर रहेंगे.

इस घटना के दो महीने बाद वही ढोंगी बाबा फिर एक दिन सुबह सुबह उनके क्वार्टर के बाहर प्रकट हुआ. पिछली बार तो वह काले कपड़ों के ऊपर लाल वास्कट, माथे पर काला कपड़ा, नीचे काली लुंगी पहन कर आया था, पर इस बार आनन्द वल्लभ की पत्नी द्ववारा प्रदत्त चिकन के कुर्ते में था. मालती ने उसे आवाज से ही पहचान लिया. उस वक्त आनन्द वल्लभ भी घर पर ही था. जब मालती ने बताया कि “यह वही बाबा है,” तो आनन्द वल्लभ ने आव देखा ना ताव, बिना कोई वार्ता किये बाबा की घुँघरू वाली लाठी छीन ली और दे दना दन आठ दस वार कर दिये. बाबा की समझ में देर से आया कि ये उसकी पिछली करतूत का ईनाम है. अन्य अध्यापक भी जुट गए, बाबा की अच्छी फजीहत की गयी. रस्सी से बाँध कर थाने पहुंचाने की तैयारी की जाने लगी.

एक अन्य प्राध्यापक ने कहा, “यह बाबा नहीं है, ठग है, ऐसे लोगों ने सन्यासियों को बदनाम कर रखा है. इसकी तलाशी लो.”

बाबा गिड़गिड़ाते हुए बोला, “आपके रूपये लौटा देता हूँ.” उसने अपनी अंटी में से बहुत से रूपये निकाल कर दिखाए और हाथ जोड़ कर छोड़ देने की गुहार करने लगा.

लोगों का कहना था कि "इसका पूरे इलाके में आतंक है, इसे हल्का नहीं छोड़ना चाहिए. बहरहाल आनन्द वल्लभ ने अपने पाँच सौ रूपये नकद व कपड़ों की कीमत पाँच सौ रूपये, कुल एक हजार रुपये वसूलने के बाद दो चार लात घूंसे लगा कर उसे थाने पहुंचाने का इंतजाम कर दिया. उसके बाद वह ठग बाबा दुबारा आस-पास नहीं दिखाई दिया.

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शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

यों रूठा ना करो

शिकवे कबूल लूंगा, तू मुझको बता तो दे,
या कह दे सारी बात, जो उसका पता तो दे.
गुल से पूछा, गुलशन से पूछा, भंवरों ने भी कह दिया- उनको नहीं पता,
शबनम कुछ कहने को थी, मगर मैंने उसको छू दिया- बस यही हुई खता,
                                                                              शिकवे कबूल लूंगा...
सितारे तोड़ दूंगा, तू पर्दा उठा तो दे,
जन्नत को लूट लूंगा, तू पलकें उठा तो दे.
हवाओं से पूछा, फिजाओं से पूछा, मौसम ने भी कह दिया- उनको नहीं पता,
बादल कुछ कहने को था मगर पहले ही रो दिया- कुछ भी नहीं सका बता,
                                                                                शिकवे कबूल लूंगा ...
ये जान अब है तेरी, गर्दन उठा तो दे,
दिल काट तुझको दूंगा, खंजर उठा तो दे. 
मैंने इनसे पूछा, मैंने उनसे पूछा, जमाना यों हँस दिया- उनको नहीं पता,
अरे, खुदा से पूछने को था मगर, मैंने तुझको पा लिया- और क्या बचा बता?
                                                                                शिकवे कबूल लूंगा ...

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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

चुहुल - ३५

(१)
एक भद्र महिला काफी देर से किसी शो रूम के बाहर खड़ी थी, बीच बीच में अन्दर भी झाँक रही थी. शोरूम के विक्रेता यानि सेल्समैन ने उनसे कहा, “बहन जी, अन्दर आ जाइए, बैठ कर तसल्ली से देखिये.”
वह अन्दर आई तो सेल्समैन ने पूछा, “क्या दिखाऊँ?” महिला बोली “कम्बल दिखाइए.”
५० कम्बलों के बण्डल में से करीब ४०–४२ कम्बल दिखाने के बाद सेल्समैन ने पूछ लिया, “क्या इनमें से आपको कोई पसंद आया?”
तो भद्र महिला बोली, “दरसल मुझे कम्बल खरीदना नहीं है, मैं तो अपने पति का इन्तजार कर रही हूँ.”
सेल्समैन ने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा, “तो आप ऐसा कीजिये इन बाकी कम्बलों में भी टटोल लीजिए, क्या पता आपके पति इनमें कहीं मिल जाएँ.”

(२)
एक अध्यापिका बच्चों को जानवरों के बारे में जानकारी दे रही थी कि इनमें नर व मादा अलग से पहचाने जा सकते हैं, जैसे गाय-बैल, भैंस-भैंसा, बकरा-बकरा, मुर्गा-मुर्गी. बच्चे उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे.
अध्यापिका ने आगे कहा, “क्या तुमने मुर्गी के छोटे छोटे चूजे देखे हैं?”
बच्चों ने एक स्वर में कहा, “हाँ मैम, हमने चूजे देखे हैं.” इस पर अध्यापिका ने सवाल किया, “वे तो सब एक जैसे दिखते हैं. उनमें कौन मुर्गा है और कौन मुर्गी कैसे पहचानोगे?”
सभी बच्चे खामोश हो गए, पर एक बुद्धिमान लड़का खड़ा होकर बोला, “मैम, हम उनको चारा डालेंगे, जो चुगेगा, वह मुर्गा और जो चुगेगी वह मुर्गी होगी.”

(३)
धम्म से कुछ बड़ा सामान गिरने की आवाज आई तो मौलवी साहब की बेगम दौड़ी दौड़ी आई. “क्या गिरा दिया?” उसने पूछा. मौलवी साहब ने कहा, “अरे, ये टोपी गिर गयी थी." बेगम ने आश्चर्य करते हुए फिर पूछा “टोपी गिरने से इतनी बड़ी आवाज तो आ नहीं सकती है?”
इस पर मौलवी साहब शर्माते हुए धीरे से बोले, “अरे बेगम, टोपी के अन्दर हम भी थे.”

( ४)
रेल के द्वितीय श्रेणी के जनरल डिब्बे में काफी भीड़ थी. एक लड़का जब उस डिब्बे में चढ़ा तो उसने देखा सामने ४-५ मोटे-मोटे सज्जन जगह घेर कर बैठे हैं. उसने शरारतन पूछा, “क्या यह डिब्बा सिर्फ हाथियों के लिए रिजर्व है?”
उन मोटे आदमियों में से एक ने हँसते हुए उत्तर दिया, “नहीं, गधे भी आ सकते हैं, आ जाओ.”

(५)
भट्ट जी और भट्टाणी जी ने अपनी शादी की गोल्डन जुबली अकेले में केक काट कर मनाई.
भट्टाणी बोली, “आप मेरा हाथ अपने हाथ में लीजिए.”
फिर बोली, “एक चुम्मा तो लीजिए.”
दोनों को एक दूसरे पर प्यार आ रहा था. भट्टाणी मुस्कुराते हुए फिर बोली, “मेरा गाल भी उसी तरह काटिए जिस तरह आपने शादी के समय किया था.”
इस पर भट्ट जी उठकर जाने लगे तो भट्टाणी ने पूछा, “अरे, जा कहाँ रहे हो?
भट्ट जी बोले, “बाथरूम में, दांतों का सेट पानी के गिलास में रखा है.”

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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

पुदीना एक दिव्य औषधि

हमने पुदीने के बारे में कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं जबकि बचपन से ही पुदीने वाली तरह तरह की चटनी का स्वाद लेते रहे हैं. गाँव-घरों में पनियारी के पास, जहाँ नियमित पानी लगता है, पुदीना उगाया जाता है. शहरों में कई लोग छत पर गमलों में पुदीना उगाए रहते हैं. हमारे देश में लगभग सभी सब्जी मंडियों में पुदीना आसानी से उपलब्ध रहता है. सस्ते में भी मिल जाता है. सार यह है कि अनादिकाल से हम पुदीने का घरेलू उपयोग करते आ रहे हैं. इसे एक खुशबूदार मसाले के रूप में लिया जाता है. अब यह जानकार खुशी और आश्चर्य होता है कि इस संजीवनी बूटी की महत्ता उससे कहीं ज्यादा है, जितना हम को ज्ञात है.

यह मेंथा वंश से सम्बंधित बारहमासी पौधा है, जो विश्व भर में उगाया जाता है. बहुत ज्यादा पानी तथा बहुत ज्यादा ठण्ड में नष्ट होने लगता है. उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में खूब फैलता है. इसकी पत्तियाँ बेहतरीन खुशबू के साथ साथ तमाम औषधीय गुणों से भी भरपूर होती हैं. देशांतर के अनुसार इसकी कई प्रजातियां भी होती हैं. भारत में मुख्यत: तराई क्षेत्रों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाती है.

अंग्रेजी में इसे ‘मिन्ट’ व वैज्ञानिक शब्दकोष में ‘मेंथा अरवैन्सिस’ कहा जाता है. इसके पत्तों से मिन्ट तेल निकाला जाता है, भारत में प्रति वर्ष १५०० टन तेल का उत्पादन होना बताया जाता है.

वैसे तो पुदीना हमारे घरेलू उपयोग में भोजन का स्वाद बढ़ाने के लिए चटनी, शिकन्जी में डालने, सॉस में डालने या रायते में मिलाने के काम आता है, जो स्वाद तो देता ही है, साथ ही पाचन क्रिया में बहुत सहायक होता है. शोध से यह सिद्ध किया गया है कि इसमें जो एंजाइम्स होते हैं वे कैंसर रोधी भी होते हैं.

मेंथा आइल का प्रयोग मीठी गोलियाँ बनाने, दंतमंजन बनाने, दर्द के बाम बनाने, च्यूइंगम बनाने, दवाओं में डालने, सौंदर्य प्रसाधन तैयार करने, पेय पदार्थ बनाने, एयर-फ्रेशनर बनाने तथा पान-मसाले जैसे सार्वजनिक उपयोग की वस्तुएं बनाने में किया जाता है.

दादी नानी के नुस्खों में भी पुदीने का प्रयोग अनेक घरेलू उपचारों में होता रहा है, जैसे पेट् दर्द, लीवर सम्बन्धी रोग, जलोदर, महिलाओं में अनियमित मासिक धर्म, कील-मुहांसों में लेपन आदि. भूख बढ़ाने के लिए गन्ने के रस में मिलाकर पिलाया जाता है. अन्जीर के साथ लेने से श्वशनतंत्र में अटका हुआ बलगम आसानी से बाहर आ जाता है.

कुछ आयुर्वैदिक दवा कंपनियां ‘पुदीन हरा’ नाम से इसका अर्क कैप्स्यूल में बेचा करती हैं. बच्चों के उदर शूल में ये बहुत लाभकारी होता है. यूनानी चिकित्सा पद्धति में भी पुदीना के अनेक औषधीय अनुपान बताये गए हैं. कुल मिलाकर पुदीना एक दिव्य औषधीय बूटी है, जिसका नियमित प्रयोग करना चाहिए.

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रविवार, 21 अक्टूबर 2012

जूठन का दंश

कई लोग विश्वास करते हैं कि काले सांप-सापिन की आँखों में कैमरे का सा लेंस होता है, अगर जोड़े में से किसी को मार दिया जाता है तो दूसरा अपने मृत साथी को खोजता है और उसकी आँखों में दृश्य देखकर मारने वाले को ढूंढ कर डंस लेता है. इसीलिये कुछ लोगों की मान्यता है कि मरे हुए सांप के मुँह में गोबर डाल देने से या सांप को जला देने से ये खतरा नहीं रहता.

जयंत सिंह को भी यह बात मालूम थी इसलिए वह अपनी जेब में एक पौलीथीन की थैली में थोड़ा सा गोबर और एक चम्मच रख कर ले गया. मेहरबान सिंह जयंत का निकट रिश्तेदार था लेकिन जयंत उसे हमेशा काले सर्प के रूप में देखता था क्योंकि जब जयंत सिंह फ़ौज की नौकरी में था तो उसकी अनुपस्थिति में मेहरबान सिंह ने उसकी पत्नी प्रेमा से सम्बन्ध बना लिए थे. जयंत को इस बात का बहुत पहले अहसास हो गया था, पर कर कुछ नहीं सका, बस घुटता रहा. पत्नी के प्रति उसका व्यवहार आक्रामक हो गया. उसकी मनोदशा विकृत सी हो गयी. वह मेहरबान सिंह की ह्त्या करने का इरादा रखता था पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. जयंत मानता था इसमें बड़ी गलती प्रेमा की भी थी. उसने इस मामले में उसे जान से मारने की धमकी दी तो कातर प्रेमा ने बताया कि मेहरबान सिंह ने उसके साथ बलात्कार किया था, और वह बाद में मजबूर हो गयी थी.

जयंत की जिंदगी में जहर घुल गया था. वह इस कालिख के बोझ को मुश्किल से ढो रहा था. जब भी वह प्रेमा के निकट होता था उसे लगता था कि वह जूठन चाट रहा है, उसका मुँह कड़वे थूक से भर जाता. एक समय था वह प्रेमा के प्यार में पागल रहता था. सुनहरे स्वप्निल सँसार में विचरता था, पर अब उसे कुल्टा-दुश्चरित्रा की बदबूदार छवि दिखती थी. वह उसे मार देने की कल्पना से सिहर उठता. उसे लगता था कि उसका अंत करने के बाद वह अवश्य पकड़ा जाएगा, तब जेल की यातनाएं तो होंगी ही साथ ही दोनों बच्चों का जीवन निराश्रय होकर बर्बाद हो जाएगा. इस प्रकार जयंत खुद को एक जलती लाश की तरह देखने लगा क्योंकि उसे अपने आक्रोश का कोई तुरंत हल नहीं मिल रहा था.

एक दिन मालूम हुआ कि मेहरबान सिंह को ‘ब्रेन स्ट्रोक’ हुआ है और वह अपनी अन्तिम साँसें गिन रहा है. पहचान वाले, मिलने वाले उसकी कुशल पूछने उसके घर जा रहे थे. जयंत सिंह अन्दर ही अन्दर जलते हुए उसके घर गया. एम्बुलेंस १०८ का इन्तजार हो रहा था, वह बिस्तर पर निढाल पड़ा हुआ था. चेहरा निश्तेज, बोलचाल बन्द, आँखें जरूर खुली हुई थी. उस समय कमरे में दो लोग और भी उपस्थित थे. जयंत ने उनसे सविनय निवेदन किया कि थोड़ी देर उसे बीमार के साथ अकेले रहने दिया जाए. तदनुसार वे लोग उठकर बाहर चले गए. जयंत सिंह ने जेब से गोबर की थैली निकाली और चम्मच से मेहरबान सिंह के मुँह में अन्दर तक घुसेड दिया, ऊपर से पच्च से थूक भी दिया तथा मुँह बन्द कर दिया. बोला भी, “जा साले, नरक में जा.” मेहरबान सिंह इस हालत में नहीं था कि प्रतिवाद कर सके.

एम्बुलेंस १०८ के पहुँचने से पहले ही मेहरबान सिंह श्वास अवरोध के कारण मर गया. मृत्योपरांत जब घर वालों ने उसके मुँह में गँगाजल तथा स्वर्णपत्र डालना चाहा तो सबको आश्चर्य हुआ कि उसके मुँह में बदबूदार गोबर भरा हुआ था.

घाट पर जब कच्ची लकड़ियों व टायर के टुकड़ों पर चिता बनी, घासलेट डालकर आग प्रज्वलित की गयी तो जयंत को बहुत सुकून मिल रहा था, पर जूठन की कड़वाहट अभी भी उसके जेहन में बाकी थी.

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शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

सलाम शाहाबाद - १

हमारा देश इतनी विविधताओं से भरा है कि हम इनका पूरा अवलोकन नहीं कर सकते हैं, फिर भी जो देख पाते हैं, वह कई बार हमारी कल्पनाओं से परे होता है. मुझे दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के धुर उत्तर जिला गुलबर्गा (स्थानीय लोग उसे कल्बुर्गी भी कहते हैं) के शाहाबाद औद्योगिक परिसर में पूरे चार साल रहने का सुअवसर संन १९७० से १९७४ के बीच मिला. तब मेरी उम्र तीस वर्ष थी. मैं ए.सी.सी. सीमेंट की लाखेरी (राजस्थान) इकाई से शाहाबाद इकाई को स्थानांतरित किया गया था. स्थानांतरण का कारण मेरे ट्रेड युनियन के कार्यकलाप थे, जिसका खुलासा  मैंने पूर्व में इसी ब्लॉग में ‘मगर से बैर’ शीर्षक वाले संस्मरण में किया हुआ है.

शाहाबाद बहुत सुन्दर जगह है. कम्पनी ने सीमेंट फैक्ट्री के बगल में एक बड़ा हैवी इन्जीनियरिंग कारखाना भी लगाया था, जिसमें बड़ी बड़ी मशीनें बनती थी. मुम्बई-चेन्नई में रेल मार्ग के मध्य में शाहाबाद कस्बा लाइम स्टोन यानि चूना पत्थर के चट्टान पर बसा हुआ है. वहाँ मकान भी इन्ही चूना पत्थर से बने थे. कारखाने के लिए कुछ दूरी पर पत्थरों की खदानें खोदी गयी थी. इस पूरे चितापुर तालुके की बेल्ट में हाई ग्रेड लाइम स्टोन भरा पड़ा था, जो सीमेंट बनाने में काम आता है.

बगल में मीठे पानी वाली कगीना नदी (भीमा नदी की ट्रीब्युटरी) बहती थी. जिला मुख्यालय गुलबर्गा शहर भव्य मंदिर व मस्जिद के साथ साथ इन्जीनियरिंग कॉलेज व कृषि विज्ञान कॉलेज वाला खूबसूरत साधन संम्पन्न था/है. पूर्व मुख्य मन्त्री स्व. वीरेंद्र पाटिल का चुनाव क्षेत्र होने से सब प्रकार से आधुनिकता संपन्न भी था. लेकिन जब मैं शाहाबाद गया तो वहाँ पर राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के मुकाबले बहुत गरीबी और पिछड़ापन लगा. फैक्ट्री कर्मचारियों के अलावा बाकी आम निवासी बेहद गरीबी और भुखमरी के शिकार लगते थे. कारण यह भी हो सकता है कि उस इलाके में कुछ वर्षों से बिलकुल वर्षा ना होने से अकाल की स्थिति थी. घरों मे काम करने वाली महरी मात्र पन्द्रह रूपये माहवार पर उपलब्ध होती थी.

कस्बे में पुराने जमे हुए मारवाड़ी व्यापारी बहुत थे. बाजार आम देहाती बाजारों की तरह ही सजा रहता था. फैक्ट्री की आवासीय कॉलोनी बहुत बढ़िया ढंग से बसाई गयी थी लेकिन उसके बगल में बहुत बड़ी झोपड़पट्टी वाली बस्ती थी जिसे ‘मड्डी’ कहा जाता था/है. इस बस्ती में तब नागरिक सुविधाएँ नहीं के बराबर थी. बहुत से फैक्ट्री मजदूर भी वहाँ निवास करते थे. सब तरह के लोग खिचड़ी की तरह साथ रहते थे. जिनमें अधिकांश हरिजन, मुस्लिम या लम्बाड़ी जाति के हिन्दू थे जो अपने आपको आज भी महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं. इनकी महिलायें ‘कालबेलिया’ औरतों की तरह पहनावा पहनती हैं. इनकी अलग बोली भी है, पर आम तौर पर सभी लोग कन्नड़ बोलते है.

किसी समय यह इलाका तेलंगाना में था और हैदराबाद राज्य का हिस्सा हुआ करता था. इसलिए यहाँ मुस्लिम आबादी भी बहुत है जो कन्नड़ के साथ साथ उर्दू भी जानते हैं. हाँ, लहजा दखिनी होता है.

इस मड्डी में से ही अनेक राजनेता उभर कर आये हैं. वर्तमान में राज्यसभा सदस्य मेरे मित्र के.बी.शानप्पा (सी.पी.आई) तब हैवी इन्जीनियरिंग फैक्ट्री में काम करते थे. मेरे युनियन में असिस्टेंट गुरुनाथ, जो बाद में कर्नाटक कई संयुक्त सरकार में लेबर मिनिस्टर बने मड्डी में ही निवास करते थे.

मड्डी को बदनाम बस्ती के रूप में भी जाना जाता था, जहाँ जुआ, शराब(सैंदी/ताड़ी), शबाब सब उपलब्ध रहता था. अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी ने बहुत से नौजवानों में अपराधवृत्ति भी पैदा की हुयी थी. खुले आम चलती मालगाड़ी के डिब्बों को खोलकर सामान गिरा लेना, कोयले के खुले  वैगनों में से कोयला गिरा कर ले जाना तथा कॉलोनी में भी घरवालों की अनुपस्थिति में सामान निकाल लेना बहुत आम बात थी. मुझे युनियन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर रहते हुए विधान सभा के चुनावों के दौरान पार्टी उम्मीदवार के साथ इस बस्ती में घूमने का अवसर मिला, जो मेरे लिए अलग किस्म का अनुभव था.

मुझे याद है पिछले एक मुख्यमन्त्री श्री धर्मसिंह राठौर जो चितापुर में रहते थे, मेरे अच्छे मित्र बन गए थे. वे अपना मूल उत्तर भारत ही बताते थे. तात्कालीन विधायक कामरेड रोचय्या भी चीतापुर के निवासी थे. मैं अपने प्रेसीडेंट कामरेड श्रीनिवास गुडी के साथ कई कार्यक्रमों में उनके साथ रहा, पर सब कुछ, यानि पद और आदर, पाने के बावजूद मैं स्वयं को उस वातावरण में आत्मसात नहीं कर पाया. इसलिए मैंने वापस लाखेरी, राजस्थान के लिए स्थानांतरण चाहा और ठीक चार वर्ष वहाँ रह कर लाखेरी आ गया.

सं १९७० में शाहाबाद पंहुचते ही जो मजेदार घटना मेरे साथ घटी, मैं उसका जिक्र जरूर करना चाहूँगा कि मैं अपने परिवार और नौ अदद सामानों के साथ जब रेल से शाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मुझे लेने के लिए कम्पनी का एक सिक्योरिटी हवलदार बस लेकर आया था, जो हमें आवासीय कॉलोनी में ले गया. बस ने मेरे भावी निवास के निकटतम स्थान पर अपने नियत स्टाप पर हमें उतार दिया. बस से उतरते ही एक १५-१६ साल का तगड़ा लड़का सामने आया, बोला, “साब, सामान क्वार्टर पर पहुंचाना है?” मैंने पूछा, “कितने रूपये लेगा?” उसने कहा, “सारा सामान ५ रुपयों में पहुंचा दूंगा.” (उन दिनों ५ रुपयों की बहुत कीमत होती थी.) मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” उसने बताया, “अब्बास”. “ले चलो,” मैंने कहा, तथा हम सबने भी मिलकर सामान उठाया. सिक्योरिटी वाले ने भी मदद की. सामान चर्च के पास एक टी.आर.टी क्वार्टर में पहुच गया. मैंने शुक्रिया कहते हुए उसको ५ रुपये दे दिये और वह चला गया.

हम नए घर में व्यवस्थित होने लगे. एक घंटे बाद मैं अपने कार्यस्थल देखने फैक्ट्री गेट की तरफ गया तो मेरे पीछे से अब्बास ने आकर मेरी पत्नी से हुज्जत करके ५ रूपये मांगे, जो उस वक्त मेरी पत्नी के पास नहीं थे. हल्ला गुल्ला सुन कर पड़ोस से एक सयानी महिला निकल कर आई, उसने मेरी पत्नी को ५ रूपये उधार देकर कृतार्थ किया. मैं जब लौट कर आया तो पत्नी ने नाराजी भरे स्वर में कहा कि “उस लड़के को आपने रूपये दे देने चाहिए थे. उसने बड़ा हुल्लड किया." मैंने बताया कि “रूपये तो मैंने उसको दे दिये थे.” मतलब साफ़ था कि वह लड़का मवाली था. मुझे उसका नाम याद था अत: मैं उसकी तलाश में तुरन्त निकल पड़ा.

कॉलोनी के बीच में कोऑपरेटिव स्टोर के पास एक पान की दूकान पर मैंने अब्बास के बारे में पूछा तो उसने मुझे उस साइकिल की दूकान का सही पता बता दिया जहाँ उसकी बैठक होती थी. पान वाले ने यह भी बताया कि ये लड़के बदमाश हैं, इनसे बच कर रहिये.” मैं सीधे साइकिल की दूकान पर पहुँचा, वहाँ मुझे अब्बास बैठा मिल गया. उसके साथ ४-५ नौजवान और भी थे. मैंने आव देखा ना ताव अब्बास का हाथ पकड़ कर बाहर खींचा और दो थप्पड़ रसीद कर दिये. उसकी हिमायत में एक और उठा तो मैंने उसे भी एक झापड मार दिया. अब्बास कांपने लगा. मैंने कहा”निकाल रूपये.” उसने पांच रूपये निकाल कर मुझे दे दिये. मैंने उससे कहा, “अब बता अपने दोस्तों को मैंने तुझे क्यों मारा?”

मैंने जब सारी बात बताई तो सबको जैसे सांप सूंघ गया हो. मैं अपने क्वार्टर पर लौट आया.

इस घटना ने मुझे फैक्ट्री के अन्दर-बाहर एक चर्चित व्यक्ति बना दिया. मुझे ‘दादा’ के रूप में देखा जाने लगा, जो बाद में वहाँ पर मेरे युनियन नेता बनने में सहायक सिद्ध हुआ और चार सालों तक किसी असामाजिक तत्व ने मुझसे सामना करने की हिमाकत नहीं की.

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बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

कागज़ के पहिये

डोरीलाल ने नया नया प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू किया था. तहसील में अर्जीनवीस ने उससे रजिस्ट्री के कागजातों में 'कागज के पहिये' लगाने को कहा तो पहले वह कुछ समझा नहीं, पर जब उसने साफ़ साफ़ कहा, “इसमें दो प्रतिशत के हिसाब से सुविधा शुल्क देना पड़ता है तो उसकी समझ में आया कि यहाँ की दुनियादारी कैसे चलती है. बाद में तो वह इस काम में माहिर हो गया और बिना झिझक के कागजातों पर कागज के पहिये लगा देता और तुरत-फुरत अपना काम निकाल लेता रहा. अब तो वह बड़ा आदमी हो गया है. उसके नौकर चाकर ही जाकर इस तरह कागज़ के पहिये लगा कर काम करा लेते हैं.

डोरीलाल के बाप होरीलाल ने बकरे-मुर्गे काटते हुए जिंदगी निकाल दी. और करता भी क्या? जाति से खटीक था. यही पुस्तैनी धंधा रहा था. अच्छा गुजारा भी चल जाता था, पर बेटा पढ़ लिख गया और इस काम को बिलकुल पसंद नहीं करता था. वह किसी ऐसे धन्धे की तलाश में रहा जिसमें खून-माँस का काम नहीं हो. ‘जिन खोजा तिन पाइयां,’ एक दिन उसकी मुलाक़ात राधेश्याम पंजाबी से हो गयी और बात बात में उसने उसे अपना पार्टनर बनने को कहा.राधेश्याम छोटी पूंजी वाला आदमी था. छोटी-मोटी प्रॉपर्टी खरीदने बेचने का काम किया करता आ रहा था. अब दोनों में दोस्ती हो गयी. एक और एक ग्यारह होते ही उनकी चल निकली. फाइनैंसर भी बढ़िया मिल गया. कई जगह बड़े भूखण्ड सस्ते में खरीद डाले और बाद में टुकड़ों में बेचना शुरू कर दिया. धन्धे का ‘गुर’ कागज़ के पहियों ने बड़ा काम किया. देखते ही देखते डोरीलाल लखपति से करोड़पति हो गया. जब सारा कारोबार समझ में आ गया तो उसने अपना धन्धा राधेश्याम से अलग कर लिया. और अपने तीनों भाइयों को भी इसी कारोबार में लगा दिया. भाग्य ने भी साथ दिया अचानक जमीन जायदाद के भावों में बढ़ोत्तरी आ गयी.

साइकिल से मोटर साइकिल फिर फिएट कार से होंडा सिटी तक का सफर यों ही तेजी से चलता रहा. कागज़ के पहियों के लगते ही तमाम सरकारी मुलाजिम उसके गुलाम होते चले गए. मात्र बीस वर्षों में डोरीलाल क्रीमी लेयर से बहुत ऊपर आ गया अब उसके नाम का डोरी हिस्सा हट गया वह ‘लाल बाबू ’ कहलाने लगा.

लाल बाबू  ने उत्तराखंड बनते ही भांप लिया था कि यहाँ की जमीन भविष्य में सोने के भाव बिका करेगी. जहाँ भी, जैसी भी, जमीन मिली उसके कारिंदे खरीदते रहे. जहाँ अड़चन या नम्बर दो का काम होता था कागज़ के पहिये लगते रहे. राजधानी देहरादून, कोटद्वार तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली के निकट नोयडा व गाजियाबाद तक लाल साहब के साम्राज्य की जड़ें फ़ैल गयी. वह कोलोनाईजर से बिल्डर भी बन गया. समृद्धि तो सबको दीखती है पर उसकी बुनियाद को केवल वही जानता है, जिसने अध्यवसाय किया हो.

गुड़ होता है तो मक्खियां भी अपने आप खींची चली आती हैं. समय समय पर राजनैतिक दलों को भी भरपूर चन्दा दिया जाता रहा. एक समय ऐसा आया कि एक नामी क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टी पर लाल बाबू  का वर्चस्व हो गया वह स्वयं टिकट बांटने वाला हो गया. अपने भाईयों को भी उसने राजनीति में सक्रिय कर दिया. स्वयं विधान सभा का चुनाव जीत कर देश सेवा के कार्य भी करने लगा है..

अपने बाप की ‘मीट की दूकान’ उसने अपने एक रिश्तेदार को सौंप दी थी, लेकिन उसको हमेशा यह अहसास रहता था कि उसके धन्धे को जो जो कागज़ के पहिये लगे थे, वे इसी दूकान की उपज थे.

होरीलाल अपने बेटों की बढ़त देखते-देखते बूढ़ा हुआ और चल बसा. बेटे पितृ भक्त हैं, उन्होंने उसके नाम से एक आधुनिक सुविधा संपन्न बड़े अस्पताल तथा एक कॉलेज की स्थापना की है जो कालान्तर में बढ़िया ढंग से चलाये जा रहे हैं लेकिन है सब व्यावसायिक स्तर पर.

कभी कभी एकांत में डोरीलाल अपने पिछले जीवन चक्र को निहारता है और सोचता है कि पूरी दुनिया कागज़ के पहियों पर ही दौड़ रही है.

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सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

दुश्मनों के नाम

दुनिया में मैं एक ऐसा प्राणी हूँ जिसका कोई दोस्त नहीं है. सब मुझे मारने की फिराक में रहते हैं. इन्सान तो मेरे वंशनाश के तरीके ईजाद करता रहा है, पर मैं कहता हूँ कि मैं आज भी हूँ और कल भी रहूँगा.

एक डॉक्टर ने अपने अस्पताल के बाहर बड़े बड़े शब्दों में बोर्ड पर लिखा है, ‘मुझे अपने भोजन के लिए बीमार लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है. भगवान मुझे क्षमा करें.’ मुझे उसकी यह बात बहुत पसंद आई क्योंकि मेरा भी हाल कुछ ऐसा है कि जिन लोगों से मुझे भोजन मिलता है वे बाद में बीमार हो जाते हैं.

मैं मच्छर हूँ, अनादिकाल से बदनाम हूँ, और इसी कारण मारा जाता हूँ. मेरा कसूर सिर्फ यह है कि मुझे भगवान ने जन्मजात खून का प्यासा बनाया है. इंसानी बच्चों को उनके स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि वे मुझसे किस प्रकार बचें. कालेजों में रिसर्च की जाती है कि मेरा सर्वनाश कैसे किया जा सकता है. मैं एक बहुत छोटा सा प्राणी जिसे मलेरिया, फाइलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, व मस्तिष्क ज्वर के वाहक के रूप में बदनाम किया जाता है, ज़रा सोचिये, मेरे थूक-लार में अगर पैरासाईट रहते हैं तो इसमें मेरा क्या कसूर? मैं तो जब पापी पेट भरने के लिए किसी का खून चूसने के लिए अपनी नाजुक सी बाल से भी बारीक सूंड प्यार से खुली चमड़ी में अन्दर डालता हूँ मेरी कोशिश यही रहती है कि मेरे मेजबान को मालूम न हो. भला भोजन देने वाले का बुरा कौन सोच सकता है?

पहले समय में मलेरिया के ज्वर को, चाहे वह तिजारा हो, चौथ हो, या रोज ही आता हो, लोग उसे भूत-प्रेत की महिमा मानते थे. माल+एयर यानि ‘बुरी हवा ‘ के रूप में ज्वर का नामकरण ‘मलेरिया’ किया गया. तब तक किसी को यह मालूम नहीं था कि यह ‘एनाफिलीज’ मच्छर के काटने से होता है. सर्व प्रथम सन १८८० में एक डॉक्टर ने लाल रक्त कणों में परजीवी यानि पेरासाईट पाकर यह सिद्ध किया कि यह भूत - पिचाशों से नहीं बल्कि मच्छरों के कारण होता है. यह हिसाब भी लगाया गया कि इस बीमारी से करोड़ों लोग हर वर्ष भगवान को प्यारे होते रहते हैं.

अब सवाल यह है कि जो प्राणी पैदा होगा वह मरेगा भी, लेकिन कसूरवार मुझे ठहराया जाता है. मेरे विरुद्ध तरह तरह की दवाएं, इंजेक्शन तथा मुझे मारने के लिए अगरबत्ती, गैस, फॉग, फयूम, व रसायन ईजाद किये गए हैं. इस धन्धे में भी लाखों-करोड़ों लोगों का रोजगार चल रहा है. पर मैं भी ढीठ हूँ. अपना वंशनाश करने की इजाजत कैसे दे सकता हूँ? मैंने खुद को इन दवाओं से इम्यून कर लिया है, यानि अब ये बेअसर हो रही हैं.

दुनियाभर में मलेरिया उन्मूलन जैसे बड़े कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं, पर मैं हूँ कि अपनी छोटी सी जान को बचाए रखने के लिए सीलन वाली जगहों, नालों, घरों के कूलरों मे रुके हुए पानी या सड़े पानी वाले तालाबों में छुपकर अपना परिवार बढ़ाता जाता हूँ.

मैं अपने दुश्मनों  को सावधान कर देना चाहता हूँ. अभी तक तो मैं आपके कान पर आकर संगीत की धुन भी छेड़ता था, अब अगर आप लोग मेरे पीछे ही पड़े रहेंगे तो मैं चुपके से आपके बाथरूम या घर के पर्दों में छिप कर 'गोरिल्ला वॉर' करना शुरू कर दूंगा. मच्छरदानियों और जालियों में घुस जाऊंगा.

इसे सलाह समझिए या चेतावनी, अब जब मलेरिया का वैक्सीन (टीका) बन ही गया है तो मेरा वंशनाश करके मुझे म्यूजियम में रखने की व्यवस्था मत कीजिये.
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शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

विछोह

प्रिय, कलियों ने सी लिए हैं होंठ, तेरे खो जाने पर

गंधहीन खीझे से लगते खिलखिलाते सुरभित प्रसून.

अस्वस्थ से, डरावने लगते मेघों के घटते–बढ़ते बिम्ब,

भयभीत सी, झंकारविहीन बहती है अस्त-व्यस्त बयार

रस–रसना, रस-काव्य, स्वर लहरी, सब हो गए हैं अग्राह्य

तुम लुप्त दिवाकर या बीती बहारों की छटा नहीं हो

तुम बिसरी साँझों की याद नहीं, जो फिर फिर उभरेगी

तुम प्रस्तर हो गयी बिन श्राप, बिन अधर्म, बिन बताए,

सपना सा आकर खोया अपनापन इससे मीठी व्यथा नहीं

प्रिय! सह सकता था मैं, यह सब प्रतीक्षा के होने पर.
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गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

चुहुल - ३४

(१)
एक समाजसेवी को उसके चाल-चरित्र से प्रसन्न होकर एक सिद्ध पुरुष ने एक ‘जादुई बोतल’ दी. बाद में जब समाजसेवी ने बोतल का ढक्कन खोला तो उसमें से एक ‘जिन्न’ बाहर आ गया और बोला, “मेरे आका, तुमने मुझे आजाद किया है इसलिए मैं तुम से बहुत खुश हूँ, बोलो तुम को क्या चाहिए? जो मांगोगे सब मिलेगा.”
समाजसेवी देश में चल रहे भ्रष्टाचार से बहुत दु:खी था, बोला, “मेरे देश से भ्रष्टाचार को मिटा दो, बस.”
इस पर आँखें तरेर कर जिन्न बोला, “तुम मुझे इस बोतल के अन्दर दुबारा डाल दो और ढक्कन लगा दो. ये जो काम तुम बता रहे हो बिलकुल असंभव है.”

(२)
एक कवि के पेट में भयंकर दर्द उठा करता था. वह दिन में कई बार बेहोश भी हो जाता था. उसके परिजन उसे एक बड़े डॉक्टर के पास ले गए. डॉक्टर ने उससे बीमारी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसकी रचनाएँ पेट में घूमती हैं, सुननेवाला कोई नहीं है इसलिए यह समस्या पैदा हो रही है.
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए सहज में कह दिया, “चलो, मुझको सुना दो.”
काफी देर तक डॉक्टर के केबिन से कवि की आवाज आती रही, जब बहुत देर हो गयी तो स्टाफ ने दरवाजा खोल कर देखा तो पाया डॉक्टर साहब बेहोश पड़े हुए थे, और कवि महोदय गाये जा रहे थे.

(३)
एक सज्जन ने बहुत खर्चा करके अपना शानदार दुमंजिला घर बनवाया, जिसमें हर तरह की खूबसूरत बनावटें व सुविधाएँ थी. गृह-प्रवेश पर् सभी सगे-स्नेहियों को बुलाया गया, दावत दी गयी. मकान के बारे में लोग वाह वाह करते रहे. उनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जो हमेशा ही नकारात्मक सोचता था. हर चीज में खोट निकालता था. वह बोला, “और तो सब ठीक है पर ऊपरी मंजिल को जाने वाला जीना संकरा है, अगर ऊपर कोई मर गया तो नीचे उतारने में अड़चन आयेगी.”

(४)
एक आदमी अपने दोस्त से बोला, “यार, मेरी बीवी हर वक्त रुपये मांगती रहती है. परसों उसने १०० रूपये मांगे थे, कल २०० रूपये और आज ३०० सौ रुपये.”
दोस्त ने ताज्जुब करते हुए पूछा, “हद हो गयी, इतने रुपयों से वह करती क्या है?”
“मालूम नहीं भाई, पर मैंने उसे अभी तक दिये नहीं.”

(५)
एक स्त्री शिकायत के स्वर में अपने पति से बोली, “कल रात आप नींद में मुझे और मेरे पीहर वालों को बहुत भद्दी भद्दी गालियाँ दे रहे थे. मैंने साफ़ साफ़ सुना.”
पति बोला, “कल रात किस उल्लू के पट्ठे को नींद आई थी.”

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रविवार, 7 अक्टूबर 2012

हमारा एम.एल.ए.

रामपुर जिले के खेड़ा गाँव के हरिपाल सिंह एक छोटे काश्तकार थे. उनके दो बेटे थे. बड़ा ओमपाल सिंह बहुत तीव्रबुद्धि और मेहनती था. एम.एससी.करने के बाद मुरादाबाद के एक कॉलेज में लेक्चरर हो गया और छोटा बेटा गगनपाल सिंह उम्र में बड़े से १५ साल छोटा था, पढ़ाई लिखाई से मन चुराता था, बहुत कोशिश करके हाईस्कूल तक पहुँचा लेकिन दसवीं में तीन बार फेल हो जाने से पढ़ाई का रास्ता छोड़ना पड़ा. तब अल्मोड़ा शहर के कोतवाल उसके जीजा जी थे, उनके पास रह कर आख़िरी बार दसवीं की परीक्षा प्राइवेट शिक्षार्थी के रूप में जी.आई.सी. अल्मोड़ा से दिलवाई गयी, पर गगन का दिमाग तो ठस था सभी विषयों में फेल रहा.

वैसे तो गगन का दिमाग शरारतों या बदमाशियों में खूब चलता था, पर विद्या की देवी उससे रूठी ही रही. बड़ा भाई भी उसके भविष्य के बारे में चिंता करता था उसने कई बार समझाते हुए कहा, “गगन, तू पढ़ाई के बारे में कोताही मत किया कर अन्यथा जिंदगी में धक्के खाते फिरेगा. बाद में मत कहना कि भाई ने पढ़ाया नहीं.” लेकिन गगन पर इसका कोई असर नहीं हुआ.

अब जब गगन हाईस्कूल ही पास नहीं कर पाया तो औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से ‘ब्लैक स्मिथ’ ट्रेड में प्रवेश ले लिया, और इसकी ट्रेनिंग करने लगा. उसी दौरान अखबारों में खबर छपी कि "जी.आई.सी. अल्मोड़ा के रिकॉर्ड रूम में भयंकर आग लगी और सम्पूर्ण पिछला रिकॉर्ड जल कर राख हो गया."

गगन ने मौके का फ़ायदा उठाने के लिए अपनी परीक्षा के कुछ सबूत बताकर, जुगाड़ लगाया और वहाँ से हाईस्कूल पास होने की मार्कशीट निकलवा ली. उन दिनों ज्यादा पूछताछ भी नहीं होती थी. मार्कशीट लेकर उसने जीजा जी की मदद से पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज मुरादाबाद में कॉन्स्टेबल बनने के लिए प्रवेश पा लिया. इस तरह गगनपाल सिंह सिपाही बन गया. १० वर्षों के अंतराल में वह पहले मुंशी फिर हैड कॉन्स्टेबल हुआ, फिर कई थानों का अनुभव प्राप्त करते हुए ऋषिकेश थाने में बतौर दरोगा नियुक्त हो गया. जीजा जी रसूख वाले थे. उनकी असीम कृपा थी, वे हमेशा उसके विभागीय हितों को दूर से ही साधते रहते थे. हालाँकि गगनपाल सिंह अपने कामों मे होशियारी नहीं बरतता था और कई बार लाइन हाजिर भी किया गया, पर सब चलता है सभी तरह के लोग सरकारी नौकरी में निभाए जाते हैं. उसके बारे में रिश्वतखोरी व अपराधियों को संरक्षण देने के अनेक आरोप थे. उच्चाधिकारी उसके काम काज से नाखुश रहते थे.

इस बीच जीजाजी रिटायर हो चुके थे इसलिए अब कोई  गॉडफादर भी नहीं था. गगनपाल खुद मुख्त्यार हो चला था. एक शराब तस्कर का अवैध रूप से ले जाया जा रहा ट्रक उसने पकड़ लिया था और ४लाख रूपये रिश्वत लेकर छोड़ भी दिया. रिपोर्ट खुर्दबुर्द कर दी. लेकिन यह मामला तब सुर्ख़ियों में आ गया जब एक स्थानीय अखबार ने पूरी कहानी मुखपृष्ट पर छाप दी. साख बचाने के लिए आला अफसरों ने  गगनपाल सिंह का स्थानांतरण बुंदेलखंड के उस इलाके में कर दिया जो उन दिनों डाकूप्रबल क्षेत्र था और पुलिस वाले जान-जोखिम के कारण वहाँ जाना कतई पसंद नहीं करते थे.

गगनपाल सिंह छुट्टी की दर्ख़्वास्त दे कर घर बैठ गया. प्रशासन ने सख्ती की, और उसे निलंबित कर दिया गया. कई महीनों तक यह स्थिति बरक़रार रही. इन्क्वायरी में उसे दोषी पाया गया तथा नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

इस निर्णय के विरुद्ध उसने अदालत में अपील की पर निचली अदालतों ने उसकी सजा को कम नहीं किया इसलिए वह अपील पर अपील करते हुए उच्च न्यायालय में पहुँचा है और अभी तक अंतिम निर्णय नहीं हो पाया है. उसको उम्मीद है कि एक दिन उसके पक्ष में फैसला आएगा तथा पूरे हर्जे-खर्चे के साथ उसकी वसूली होगी.

वह मजबूरन सपरिवार अपने गाँव लौट आया और एक छोटी सी दूकान खोल कर बैठ गया. जिसमें बीड़ी-सिगरेट, गुटखा-तम्बाकू, चिप्स-नमकीन के पैकेट बेचा करता था. साथ में एक पी.सी.ओ. भी खोल लिया.

अब जब उत्तर प्रदेश का विभाजन करके उत्तराखंड अलग राज्य बना तो बॉर्डर के जिलों में ज्यादा राजनैतिक उथल-पुथल रही. दरोगा जी इसमें सक्रिय हो लिए. पिछले विधान सभा चुनावों में वह वर्तमान रूलिंग पार्टी का टिकट हासिल करने में कामयाब रहे और अच्छे मार्जिन से विजयी भी हो गए. मन्त्री पद तो अभी तक नहीं मिल सका है, हाँ पुलिस डिपार्टमेंट के सीनियर लोग भी वक्त की नजाकत को समझते हुए एम.एल.ए. श्री गगनपाल सिंह जी को सलाम ठोका करते हैं.

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मोटा भाई

मोटा भाई सोलंकी अलग किस्म के इन्सान थे. लोग तो उन्हें ‘लाखों में एक’ की उपाधि भी दिया करते थे. उनका व्यक्तित्व था ही कुछ ऐसा. शक्ल-सूरत से बिलकुल चाइनीज से दिखते थे, गोल थोबड़े पर छोटी-छोटी गोल आँखें देखती कम थी टिमटिमाती ज्यादा थी.

मोटा भाई नवसारी, गुजरात, के मूल निवासी थे. वे एक गरीब परिवार में जन्मे थे, पर उनके जीवन का सफर आम गरीब लोगों से अलग था. वे अकसर अपने लिए ‘सेल्फ-मेड’ शब्द का प्रयोग किया करते थे. रेलवे में एक लोअर डिविजन क्लर्क के बतौर उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था, पेंशन योग्य होने पर २० साल की नौकरी करके किसी प्राइवेट कंपनी में रेलवे मैटर्स के सलाहकार बन गए.

यहाँ उनकी मुलाक़ात एक ‘जीवन बीमा डेवलपमेंट ऑफिसर से हुई, जो उनके जीवन में नया मोड़ ले आया. वे जीवन बीमा एजेंट बन गए. अपनी मेहनत और अध्यवसाय से वे इस क्षेत्र में बहुत सफल एजेंट गिने जाने लगे. चंद वर्षों में उन्होंने बीमा करने का नया रिकार्ड बना डाला. सं १९७० के दशक में वे पहले करोड़पति एजेंट के रूप में प्रसिद्धि पा गए और जीवन बीमा निगम की तरफ से सम्मानित भी किये गए. उन्होंने निकटवर्ती औद्योगिक शहर कोटा, राजस्थान, को अपना स्थाई कार्यक्षेत्र बना लिया वहां पर बीमा धारकों की अपार संभावनाएं थी.

मोटा भाई की विशेषता यह थी कि वे जिस व्यक्ति के पीछे पड़ जाते थे, उसका बीमा किये बगैर नहीं मानते थे. वे रात दिन अपने लक्ष्य का पीछा करते रहते थे. बहुत से लोग तो तंग आकर भी उनसे पॉलिसी ले लेते थे. कभी कभी तो एजेंटों की प्रतिस्पर्धा में वे पहली तीन किश्तें अपनी जेब से देकर ग्राहक पटा लेते थे. जीवन बीमा के लाभ बताने के लिए वे स्टीरियो की तरह चालू हो जाते थे. यद्यपि लंबे समय के बचत की दृष्टि से बीमा में निवेश की जाने वाली राशि बहुत घाटे का सौदा होता है, लेकिन विपदा में सहारा मिलने की संभावना होती है. जिसका खूब प्रचार-प्रसार भी होता है. मोटा भाई अच्छे विक्रेता यानि सेल्समैन साबित हुए. हालाँकि लोग उनके पीठ पीछे उनको जोंक, चिपकू, गोन्द या लेसूड़ा आदि उपनाम से भी पुकारने लगे थे.

निजी जीवन में मोटा भाई महान कंजूस, मक्खीचूस, व कृपण रहे. उन्होंने उस सस्ती अवधि में कोटा के विज्ञान नगर में एक उच्च आयवर्ग नगर परिषद द्वारा निर्मित मकान महज एक लाख रुपयों में खरीदा, पर २५ वर्ष तक रहने पर भी उसमें कोई रंगाई पुताई या मरम्मत नहीं करवाई. मोटा भाई पैसे को पकड़ते थे. वही उनका भगवान होता था. वे अपनी धन-संपत्ति का श्रेय अपनी धर्मपत्नी वीणा बेन को दिया करते थे. उसे वे लक्ष्मी नाम से ही पुकारते थे. उनकी कंजूसी पर जब कोई कटाक्ष करता था तो वे एक मजेदार किस्सा सुनाया करते थे कि –एक आदमी अपने मित्र से बोला, “मेरे पास २० साल पुराना आचार है, जो अनेक रोगों की दवा बन गया है.” तब मित्र ने कहा, "कभी हमको भी तो चखाना.” इस पर वह बोला, “माफ़ कीजिये, ऐसे चखाते रहते तो आचार २० साल तक कहाँ बचता.”

उनका एक बेटा तो बचपन में ही किसी दुर्घटना का शिकार हो गया था, और दूसरा बोरीवली, मुम्बई में अपने नाना-नानी के पास ही पला बड़ा. वह अपने पिता की कंजूसी वाली फितरत के कारण ही उनके पास नहीं रहा. इस प्रकार मोटा भाई का पारिवारिक जीवन बहुत सुखद नहीं रहा. वीणा बेन को उन्होंने अपनी ही आदतों में ढाल कर रखा, जो सब कुछ होते हुए भी उपयुक्त ईलाज के अभाव में १९९० के दशक में उनको अकेला छोड़कर चल बसी.

७० वर्ष की उम्र में विधुर होना बड़ा अभिशाप सा होता है, वह भी उन परिस्थितियों में जब परिवार का कोई अन्य सदस्य पास में ना हो. यद्यपि इस सब के लिए मोटा भाई खुद जिम्मेदार थे क्योंकि अपनी कृपणता के चलते उन्होंने किसी नाते-रिश्तेदार या दोस्त से घनिष्ट सम्बन्ध रखने की जुर्रत नहीं समझी.

उनको जीवन बीमा निगम से नियमानुसार कमीशन से एक लाख से अधिक रुपये आमदनी के रूप में प्राप्य थी. इसके अलावा शेयर बाजार में किये गए निवेश का भी लाभ मिला करता था, पर सन्तोष नहीं होने से तथा धन का उपभोग नहीं होने से उनकी स्थिति खजाने पर कुंडली मार कर बैठे हुए नागराज की तरह हो गयी.

वे अन्तिम दिनों में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए थे. अपनी देखभाल के लिए एक के बाद एक कई स्थानीय नौकरानियां भी रखी गयी पर कोई टिकी नहीं क्योंकि नमक से लेकर आटा-चावल तथा मसाले तक अपने हाथों से निकाल कर दिया करते थे, ऐसे में कौन सेवक टिकता है? एकाकी जीवन का बड़ा दुखद अंत हुआ. उनके देहावसान पर उनका पुत्र आया और दो करोड़ रुपयों में मकान व अन्य संपत्ति बेच गया. पिता की अन्य वित्तीय प्रतिभूतियों को उत्तराधिकारी के रूप में विधिवत अपने नाम करके मुम्बई लौट गया.

धन कमाना तो बहुतों को आता है पर उसका उपभोग करना सबके भाग्य में नहीं होता है.
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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

रेबीज - एक मारक रोग

दिनेशसिंह बिष्ट, उम्र ३६ वर्ष, पेशे से अध्यापक, निवासी – ग्राम दौलतपुर जिला नैनीताल. तीन स्कूल जाने वाले बच्चे व शुभांगी पत्नी, सब कुशल मंगल था. वह गर्मियों की छुट्टियों में अपने ससुराल कोटाबाग मिलने गया तो वापसी में एक प्यारा सा देसी कुत्ते का पिल्ला भी साथ ले आया. पिल्ला आ जाने से बच्चे बहुत खुश हुए. उसके साथ खेलते थे, गोद में उठाते थे, उसे छेड़ते भी रहते थे.छेड़छाड़ से वह थोड़ा कटखना भी हो गया था. तीनों बच्चों के पैरों में उसने अपने पैने दांत चुभो दिये थे पर बच्चे तो बच्चे होते हैं, कहाँ परवाह करते हैं?

एक दिन दिनेशसिंह को भी उसने चलते चलते बिना छेड़े ही आकर काट डाला तो उसकी थोड़ी पिटाई कर दी गयी. सोच यों थी कि घर का पला हुआ छोटा बच्चा है. उसके पागल होने अर्थात रेबीज संक्रमित होने की संभावना पर कोई विचार नहीं हुआ. पिल्ला कुछ अनियमित व्यवहार करते हुए तीसरे दिन मर गया तो भी इस जानलेवा विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया. हाँ, दिनेशसिंह को कुछ शंका-संदेह जरूर हुआ उसने अपनी पत्नी से इस बारे में चर्चा भी की.

दस दिनों के अंतराल में दिनेशसिंह को रेबीज के लक्षण प्रकट होने लगे, वह प्रलाप करने लगा, आँखों की रोशनी कम हो गयी, हल्का बुखार हो गया तो उसके भाईयों ने आकर उसे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया. उसकी जाँच-पड़ताल हुई, पूछताछ की गयी तो यह सिद्ध कर दिया गया कि उसे रेबीज के वायरस ने जकड़ लिया है और ऐसी स्थिति में आ गया था कि उसका बचना मुश्किल जान पडता था. डॉक्टर ने भी असाध्य बता कर आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, को रेफर कर दिया. घरवाले चिंतित थे, टैक्सी करके तुरन्त दिल्ली को रवाना हो गए पर वहाँ पहुँचते पहुँचते उसने दम तोड़ दिया.
परिवार पर जो बीती वह अकथनीय पीड़ाजनक है. चिंता इस बात की हो गयी कि पिल्ले ने तीनों बच्चों को भी काटा था. अब एक तरफ दिनेशसिंह के अन्तिम संस्कार की तैयारी चल रही थी दूसरी तरफ तीनों बच्चों को अस्पताल मे ऐंटीरेबीज इंजेक्शन व इम्यूनाइजेशन की दवाएं दी जा रही थी. बहरहाल बच्चों पर अभी तक उस मारक वायरस के कोई लक्षण प्रकट नहीं हुए थे.

यह एक सत्य घटना है. इस प्रस्तुति द्वारा लेखक रेबीज की भयानकता तथा इस बारे में लापरवाहियों व सावधानियों पर चर्चा करना चाहता है. यह बहुत प्राचीन रोग है. हमारे अथर्ववेद में इसका वर्णन मिलता है. पागल जानवरों के काटने से उनके लार में उपस्थित वायरस के कारण यह मनुष्यों या अन्य जानवरों के लिए मारक होता है. वायरस का सीधा असर मस्तिष्क पर होता है जहाँ सूजन आ जाती है.

वाग्भट्ट में इसे ‘अलर्क विष’ कहा गया है. तमाम आयुर्वैदिक ग्रंथों में इसका सन्दर्भ मिलता है.

रेबीज वायरस मुख्यतः संक्रमित कुत्ते की लार में होता है. कुत्तों के अलावा बिल्ली, गीदड़, सियार, नेवले. रेकून, चमगादड़ आदि जानवरों में भी संक्रमण पाया जाता है. इनके काटने से जो घाव बनते हैं या चमड़ी कट जाती है वहीं से वायरस प्रविष्ट होता है. गाय, भैंस घोड़ा आदि पालतू जानवर भी इस वायरस की चपेट में आ जाते हैं.

संक्रमित कुत्ते आदि जानवर पागल होकर जल्दी मर भी जाते हैं. उनके पागलपन को उनके अनियमित व्यवहार से पहचाना जाता है, जिसमें पूंछ आदि शारीरिक अंग शिथिल हो जाते है, मुँह से निरंतर लार टपकती है, और अंधे-बहरे होकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं. इसीलिये पालतू जानवरों को संक्रमण से बचाए रखने के लिए ‘ऐंटीरेबीज वायरस’ के टीके समय समय पर नियमानुसार जरूर लगवा लेना चाहिए.

रेबीज का इनक्यूबेशन पीरियड दस दिनों से लेकर सात साल तक का होता है. अत: सावधानी बरतते हुए तुरन्त ऐंटीवायरस वैक्सीन लगवा लेना चाहिए.

रेबीस से संक्रमित व्यक्ति अनियमित व्यवहार करने लगता है. उसकी मांसपेशियां शिथिल हो जाती है. वह तनावग्रस्त हो जाता है, मारने-काटने का प्रयास करने लगता है, तथा कुत्ते की तरह आवाज भी निकालने लगता है. पानी को देख कर भयभीत हो जाता है, जिसे जल-संत्रास (हाइड्रोफोबिया) कहा जाता है. एक बार ये लक्षण प्रकट हो जाते हैं तो बीमारी असाध्य हो जाती है. जिस स्थान पर पागल कुत्ते ने काटा हो वह सुन्न हो जाता है. आयुर्वेद में ब्रंण साफ़ करके लाल मिर्च का लेप लगाने का निर्देश दिया गया है, इससे सुन्न होने का भी पता चल जाता है. घाव को ऐंटीसेप्टिक से साफ़ करके योग्य डाक्टर से सलाह लेनी आवश्यक है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने वैक्सीन व ‘ह्यूमन रेबीज इम्यून ग्लोब्यूलिन' (H R I G) जैसी व्यवस्था विश्व भर में उपलब्ध करवाई है इसका लाभ लेना चाहिए.

कहा जाता है कि ‘खोज करने से पहरा अच्छा’ इसलिए अनजान कुत्तों से संपर्क करने से बचना चाहिए. आवारा कुत्तों के लिए प्रशासन से यथोचित व्यवस्था करवानी चाहिए. दिनेशसिंह बिष्ट के परिवार का सा दुर्भाग्य कहीं भी नहीं दोहराया जाये, यह संकल्प होना चाहिए.

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बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

बैरंग

श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह पश्चिम रेलवे के डिविजनल हैडक्वार्टर पर जनरल मैनेजर एच.आर.ए. (ह्यूमन रिसोर्सेज ऐडमिनिस्ट्रेशन) के जिम्मेदार पद पर आसीन हैं. सिंह साहब मूल रूप से बनारस के निकट एक जमींदार खानदान से हैं. पिछले पच्चीस वर्षों से काम करते हुए एक अनुभवी ऑफीसर माने जाते हैं.

सिंह साहब की तारीफ़ यह है कि वे पूरे डिविजन के कर्मचारियों को नाम लेकर पुकारते हैं. वे छोटे से छोटे कर्मचारी को जानते हैं. उनके दुःख-दर्द में शामिल होने से नहीं चूकते हैं पर प्रशासनिक मामलों में वे बहुत कठोर आदमी हैं. अनुशासनहीनता पर वे कतई दया नहीं दिखाते. कुछ लोग पीठ पीछे उनको ‘हेकड़ सिंह’ भी बोलते हैं. इसलिए लोग उनसे भय भी खाते हैं. डी.आर.एम. तक भी सिंह साहब की कलम की ताकत को पहचानते हैं. रेलवे स्टाफ तथा कर्मचारी युनियनों को मानो उन्होंने अपनी जेब में रखा होता है. कहने को वे युनियन वालों से कहते हैं कि उनकी win-win policy ही उनकी सफलता की कुंजी है, जिसके अनुसार वे युनियन वालों की भी फजीहत नहीं होने देते हैं. प्रशासक के तमाम गुण होते हुए भी सिंह साहब की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वे शराब पीने के बड़े शौक़ीन हैं. अदना सा कर्मचारी भी उन्हें दारू पार्टी का निमंत्रण देता है तो वे कभी अस्वीकार नहीं करते. यहाँ तक कि कुलियों के साथ भी उनको शराब पीते हुए देखा गया है. पर उनके प्रशंसक कहते हैं कि यह उनकी उस्तादी है, इस तरीके से वे अपना नेटवर्क चलाते हैं.

होली-दीवाली पर मिठाइयों और मेवे के इतने डिब्बे उनके बंगले पर आते हैं मानो एक बड़ी दूकान सज गयी हो. उनकी विशेषता यह भी है कि उन मिठाई के डिब्बों को दूर दूर के रेलवे स्टेशनों तक बाँटते है. हाँ भेंट में जो स्कॉच, वोदका या ह्विस्की की बोतलें आती हैं, उनको अपने ‘बार’ में जमा कर लेते हैं.

श्रीमती सिंह अच्छी गृहिणी हैं. वे अपने पति के रोजनामचे में कभी भी दखलन्दाजी नहीं करती हैं, पर शराब तो शराब ही है, सभी लोग खराब ही कहते हैं. ठकुराइन शुरू में तो जरूर परेशान रहती होंगी, पर अब आदत में आ गया है. उनका इकलौता बेटा अनमोल प्रसाद सिंह बाल्यकाल से होनहार व बुद्धिमान रहा है, उसको उन्होंने चित्तौड़ के सैनिक स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दिलवाई और आगे जाकर वह भारतीय सेना में लेफ्टीनेंट और बाद में मेजर हो गया है. कहते हैं कि ‘तुख्मे तासीर-सोहबते असर’ अवश्य होता है. अनमोल भी पिता की राह पर शराब का शौक़ीन हो गया. वह अब इस स्तर पर पहुँच गया कि किसी के समझाने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं रहा. सिंह साहब के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं थी, लेकिन ठकुराइन को बड़ी तकलीफ थी, वह चाहने लगी कि जल्दी से जल्दी बेटे के पैरों में बेडियाँ डाल दी जाएँ ताकि अपने आप सुधरने की नौबत आ जाये. ऊंचे स्तर पर ही लड़की की तलाश की गयी.

संयोग से राजस्थान स्टेट डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के डायरेक्टर विष्णुप्रताप सिंह I.A.S. की पुत्री सुनंदा सिंह के साथ रिश्ता तय हो गया सुनंदा सिंह जयपुर में भौतिक शास्त्र में PhD कर रही थी. बड़े लोगों की बड़ी बातें, सब कुछ शाही अंदाज में हो रहा था. सगाई की रस्म नाते-रिश्तेदारों की उपस्थिति में धूमधाम से जयपुर में संपन्न हुई. लेनदेन की रकम बाहर नहीं बताई गयी, लेकिन अंदाजा है कि बहुत बड़ी रही होगी क्योंकि विष्णुप्रसाद सिंह की कमाई कम नहीं थी. उनकी कुर्सी ही ऐसी है.

सब कुछ बदस्तूर हुआ. बारात में १५० बाराती लाने की बात हुई थी, पर सिंह साहब तो हरदिल अजीज थे. कुली, मजदूर, टी.टी.ई., ड्राईवर, यूनियनों के कारिंदे, आदि कई लोग बिना निमंत्रण के ही जयपुर पहुँच गए. करीब ४०० बाराती जमा हो गए. वधु पक्ष वाले हक्का-बक्का रह गए. खैर, आनन्-फानन में दो-तीन गेस्ट हाउस व बेन्क्विट हॉल बुक किये गए. आमन्त्रित लोगों के लिए बड़े होटलों में ठहराने की अच्छी व्यवस्था थी. जनवासे के रूप में एक बड़े नामी होटल में व्यवस्था थी, जहाँ बारातियों के लिए भरपूर नाश्ते, चाट, चाय-काफी उपलब्ध थी. साथ ही मदिरा के शौकीनों के लिए बार भी खुला था, जिसमें बीस-बीस लीटर की टैप लगी कांच की बोतलें सुसज्जित थी. सभ्य समाज में मदिरा पीने का भी सलीका होता है, पर यहाँ तो रामद्वारा था, जितना मर्जी पियो. फिर क्या था? शाम होते ही पीने का दौर शुरू हो गया. सब तरफ गहमा-गहमी थी. दूल्हे राजा के साथ उनके आर्मी के एक दर्जन दोस्त भी आये थे, सबने पी और अनमोल भी उनके साथ शुगल में शामिल हो गया.

बाद में जब जयमाला के लिए यह शिव-बारात चली तो बहुत लोग अपने होश में नहीं थे. तोरण मारने की रस्म अदा करते समय खुद दूल्हा खड़ा नहीं हो पा रहा था. जब यह खबर सुनंदा तक पहुँची तो उसने खुले में आकर विद्रोह कर दिया कि वह शराबी व्यक्ति को जयमाला नहीं पहनाएगी. वातावरण में सनसनी व झगड़े की नौबत आ गयी. सयाने लोगों ने बीच बचाव किया. माँ-बाप ने सुनंदा को समझाया और स्थिति बिगड़ने से बचा लिया. बहरहाल सारा मजा किरकिरा तो हो ही गया. दूल्हे का नशा उतारने के लिए नीबू-पानी पिलाया गया. थोड़ा संयत होने के बाद ही रात तीन बजे फेरों की रस्म पूरी हो सकी.

बारात में न पीने वाले तथा सभ्य लोग भी थे. वे चुपचाप भोजन करके अपने ठिकानों पर विश्राम करने चले गए. बहुत से लोग उस दावत का मजा नहीं ले सके. सुबह मालूम हुआ कि कुछ बाराती गेस्ट हाउस में रातभर हुल्लड़ करते रहे. दो तीन ने तो सिगरेट पीते हुए बिस्तर भी जला डाले. पूरे रेलवे डिविजन को नियंत्रण में रखने वाले सिंह साहब यहाँ फेल हो गए. सुबह जो जैसा था अपनी तरह से तैयार हुआ और विदाई से पूर्व बारातियों को छोले-भटूरे और दही का नाश्ता परोसा गया.

दूल्हे को नाश्ता करवाने की विशेष पारंपरिक रस्म इस ठाकुर परिवार में होनी थी, जहाँ दूल्हा कन्या पक्ष से कोई भेंट की मांग कर सकता है. आम बारातियों को यह मालूम नहीं था. बड़ी देर से खुसर-पुसर हो रही थी, और फिर मालूम हुआ कि दूल्हे ने एक बुलेट मोटर साईकिल की मांग रख दी है. जब तक ‘हाँ’ नहीं हो उसने नाश्ते को नहीं छुआ. कन्या पक्ष ने इस तरह की मांग को गलत करार दिया. निकट रिश्तेदारों ने भी इस मांग को नहीं सराहा, पर दूल्हा तो अड़ा हुआ था और ऐसा लगा कि इसमें उसके पूज्य पिता जी की शह थी. उधर ट्रक में दहेज का सामान चढ़ाया जा रहा था, घर की महिलायें विदाई की तैयारी कर रही थी.

अचानक सुनंदा प्रकट हुई. उसने चिल्ला चिल्ला कर कहा, “मैं इस शादी को अस्वीकार कर रही हूँ. मुझे इन शराबी और लालची लोगों से रिश्ता नहीं रखना है.”

सब लोग सन्न रह गए. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. मामला गंभीर हो गया. स्वयं लड़की के पिता ने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा, “सबकी असुविधा के लिए मुझे बेहद अफ़सोस है.”

रामेश्वरप्रसाद सिंह जब तक स्थिति की गंभीरता को समझते खेल पूरी तरह बिगड़ चुका था. उन्होंने विष्णुप्रताप सिंह को समझाने की कोशिश की, पर दूध में खटाई पड़ चुकी थी, वह नहीं माने. और दहेज की मांग पर पुलिस में रिपोर्ट करने की धमकी देने लगे.

बारात बिखरते हुए बिना दुल्हन के बड़ी फजीहत कराके बैरंग लौट गयी. सिंह साहब की सारी हेकड़ी धरी रह गयी. सबको अनुशासन में रखने वाले के लिए यह आत्म अनुशासन का बड़ा भारी सबक था.

इस बीच दोनों पक्षों के शुभचिंतकों ने आपस में मंत्रणाएं की. सबको घटना पर दु:ख था. ‘माफ करो और भूल जाओ’ की बात पर सुनंदा को समझाया गया. सबको सद्बुद्धि आई. १५ दिनों के बाद जयपुर जाकर फिर विदाई की रस्म पूरी हुई.

इस प्रकार कहानी का सुखद अंत हुआ.

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सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

चुहुल - ३३

(१)
एक नेता जी अपने चुनाव क्षेत्र के दौरे पर थे, ग्राम सभा की मीटिंग खुले आसमान के नीचे चल रही थी. इसी दौरान एक छोटा विमान ऊपर से उड़ कर जा रहा था.
एक ग्रामीण ने विमान को इंगित करते हुए नेता जी से पूछा, “नेता जी, वो क्या है?”
नेता जी को उसकी अज्ञानता पर बड़ी दया आई, बोले, "यह हवाई जहाज है. इसमें आदमी बैठते हैं और बड़ी तेजी अपने गंतव्य पर पँहुच जाते हैं.”
ग्रामीण ने पुन: कहा, “वो तो ठीक है, मेरा मतलब है कि ये मिग है, या एफ-१६ है?”
नेता जी उसकी तरफ देखते ही रह गए.

(२)
सुरेखा ने गलती से अपने बॉयफ्रेंड को अपने घर का पता दे दिया और वह अगले ही दिन घर पर दस्तक देने आ गया. उसने घंटी बजाई. एक उम्रदार औरत ने दरवाजा खोला. लड़के ने कहा, “सुरेखा घर में है?”
औरत ने आगंतुक से पूछा, “आप कौन?”
बॉयफ्रेंड इस पूछताछ से कुछ घबरा गया और बोला, “मैं सुरेखा का भाई हूँ.”
महिला मुस्कुराई और बोली, "अन्दर आ जाओ, बेटा. मैं सुरेखा की माँ हूँ. तुम्हारे पिता जी भी घर में ही हैं.”

(३)
मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के दुमंजिले में थे. नीचे राह पर से एक भिखारी ने आवाज दी तो मुल्ला ने खिड़की खोल कर देखा और पूछा, “क्या चाहिए?”
भिखारी ने तुरन्त कहा, “नीचे आओ तो बताऊंगा.”
मुल्ला नीचे आया तो भिखारी ने कहा, “एक सिक्का चाहिए.”
मुल्ला लौट कर ऊपर की मंजिल में गया और खिड़की से बाहर सिर निकाल कर बोला, “ऊपर आ जाओ.”
भिखारी बड़े उत्साह से सीढियां चढ़ गया, पर वहाँ जाने पर मुल्ला ने उससे कहा, “खुला सिक्का नहीं है.”

(४)
एक महिला अपने बच्चों के साथ बस में चढ़ी. कंडक्टर से पूछने लगी “बच्चों का हाफ टिकट लगेगा?”
कंडक्टर ने जवाब दिया, “हाँ, अगर १२ से कम हो.’
महिला बड़ी तसल्ली से बोली, “तब ठीक है, मेरे तो पाँच ही हैं.”

(५)
एक सज्जन अपने मित्र के घर अतिथि बन कर गया. मित्र की पत्नी रात के खाने की तैयारी कर रही थी. अन्य दिनों तो वह अपने पति से रोटी बेलवाने का काम करवा लेती थी, पर आज वह अतिथि के साथ व्यस्त हो गया था. आटा भी थोड़ा ढीला ही बना था. जब रोटियाँ भोजन की टेबल पर आई तो टेड़ी-मेढ़ी, कोने निकली हुई देख कर अतिथि ने बहुत शालीनता से चुटकी ली, “वाह! भाभी जी बहुत बढ़िया! आपने तो सारी समस्या हल कर दी.”
मित्र ने पूछा “वह कैसे?”
अतिथि ने मुस्कुराते हुए कहा, “अरे भाई, मेरी पत्नी तो ऐसी गोल रोटी बना देती है कि कहाँ से तोड़ना हो इसके लिए सोचना पड़ता है. भाभी जी ने तो बढ़िया ढंग से कोने निकाल रखे हैं.”
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