प्रिय, कलियों ने सी लिए हैं होंठ, तेरे खो जाने पर
गंधहीन खीझे से लगते खिलखिलाते सुरभित प्रसून.
अस्वस्थ से, डरावने लगते मेघों के घटते–बढ़ते बिम्ब,
भयभीत सी, झंकारविहीन बहती है अस्त-व्यस्त बयार
रस–रसना, रस-काव्य, स्वर लहरी, सब हो गए हैं अग्राह्य
तुम लुप्त दिवाकर या बीती बहारों की छटा नहीं हो
तुम बिसरी साँझों की याद नहीं, जो फिर फिर उभरेगी
तुम प्रस्तर हो गयी बिन श्राप, बिन अधर्म, बिन बताए,
सपना सा आकर खोया अपनापन इससे मीठी व्यथा नहीं
प्रिय! सह सकता था मैं, यह सब प्रतीक्षा के होने पर.
***
गंधहीन खीझे से लगते खिलखिलाते सुरभित प्रसून.
अस्वस्थ से, डरावने लगते मेघों के घटते–बढ़ते बिम्ब,
भयभीत सी, झंकारविहीन बहती है अस्त-व्यस्त बयार
रस–रसना, रस-काव्य, स्वर लहरी, सब हो गए हैं अग्राह्य
तुम लुप्त दिवाकर या बीती बहारों की छटा नहीं हो
तुम बिसरी साँझों की याद नहीं, जो फिर फिर उभरेगी
तुम प्रस्तर हो गयी बिन श्राप, बिन अधर्म, बिन बताए,
सपना सा आकर खोया अपनापन इससे मीठी व्यथा नहीं
प्रिय! सह सकता था मैं, यह सब प्रतीक्षा के होने पर.
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बहुत ही सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंsundar kawita....
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 15-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1033 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
कवि मन के भावों को प्रकृति के उपादानों पे थोप देता है उदास खुद होता है कहता है शाम बहुत उदास थी किसी के खो जाने की पीड़ा मुखरित है इस रचना में .प्रतिबिंबित है पग पग में .आपके ब्लॉग से मेरी टिपण्णी सदैव ही स्पैम बोक्स में चली जाती है मैं नियमित टिपण्णी कर रहा हूँ .
जवाब देंहटाएंसपना सा आकर खोया अपनापन इससे मीठी व्यथा नहीं
प्रिय! सह सकता था मैं, यह सब प्रतीक्षा के होने पर.