श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह पश्चिम रेलवे के डिविजनल हैडक्वार्टर पर जनरल मैनेजर एच.आर.ए. (ह्यूमन रिसोर्सेज ऐडमिनिस्ट्रेशन) के जिम्मेदार पद पर आसीन हैं. सिंह साहब मूल रूप से बनारस के निकट एक जमींदार खानदान से हैं. पिछले पच्चीस वर्षों से काम करते हुए एक अनुभवी ऑफीसर माने जाते हैं.
सिंह साहब की तारीफ़ यह है कि वे पूरे डिविजन के कर्मचारियों को नाम लेकर पुकारते हैं. वे छोटे से छोटे कर्मचारी को जानते हैं. उनके दुःख-दर्द में शामिल होने से नहीं चूकते हैं पर प्रशासनिक मामलों में वे बहुत कठोर आदमी हैं. अनुशासनहीनता पर वे कतई दया नहीं दिखाते. कुछ लोग पीठ पीछे उनको ‘हेकड़ सिंह’ भी बोलते हैं. इसलिए लोग उनसे भय भी खाते हैं. डी.आर.एम. तक भी सिंह साहब की कलम की ताकत को पहचानते हैं. रेलवे स्टाफ तथा कर्मचारी युनियनों को मानो उन्होंने अपनी जेब में रखा होता है. कहने को वे युनियन वालों से कहते हैं कि उनकी win-win policy ही उनकी सफलता की कुंजी है, जिसके अनुसार वे युनियन वालों की भी फजीहत नहीं होने देते हैं. प्रशासक के तमाम गुण होते हुए भी सिंह साहब की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वे शराब पीने के बड़े शौक़ीन हैं. अदना सा कर्मचारी भी उन्हें दारू पार्टी का निमंत्रण देता है तो वे कभी अस्वीकार नहीं करते. यहाँ तक कि कुलियों के साथ भी उनको शराब पीते हुए देखा गया है. पर उनके प्रशंसक कहते हैं कि यह उनकी उस्तादी है, इस तरीके से वे अपना नेटवर्क चलाते हैं.
होली-दीवाली पर मिठाइयों और मेवे के इतने डिब्बे उनके बंगले पर आते हैं मानो एक बड़ी दूकान सज गयी हो. उनकी विशेषता यह भी है कि उन मिठाई के डिब्बों को दूर दूर के रेलवे स्टेशनों तक बाँटते है. हाँ भेंट में जो स्कॉच, वोदका या ह्विस्की की बोतलें आती हैं, उनको अपने ‘बार’ में जमा कर लेते हैं.
श्रीमती सिंह अच्छी गृहिणी हैं. वे अपने पति के रोजनामचे में कभी भी दखलन्दाजी नहीं करती हैं, पर शराब तो शराब ही है, सभी लोग खराब ही कहते हैं. ठकुराइन शुरू में तो जरूर परेशान रहती होंगी, पर अब आदत में आ गया है. उनका इकलौता बेटा अनमोल प्रसाद सिंह बाल्यकाल से होनहार व बुद्धिमान रहा है, उसको उन्होंने चित्तौड़ के सैनिक स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दिलवाई और आगे जाकर वह भारतीय सेना में लेफ्टीनेंट और बाद में मेजर हो गया है. कहते हैं कि ‘तुख्मे तासीर-सोहबते असर’ अवश्य होता है. अनमोल भी पिता की राह पर शराब का शौक़ीन हो गया. वह अब इस स्तर पर पहुँच गया कि किसी के समझाने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं रहा. सिंह साहब के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं थी, लेकिन ठकुराइन को बड़ी तकलीफ थी, वह चाहने लगी कि जल्दी से जल्दी बेटे के पैरों में बेडियाँ डाल दी जाएँ ताकि अपने आप सुधरने की नौबत आ जाये. ऊंचे स्तर पर ही लड़की की तलाश की गयी.
सिंह साहब की तारीफ़ यह है कि वे पूरे डिविजन के कर्मचारियों को नाम लेकर पुकारते हैं. वे छोटे से छोटे कर्मचारी को जानते हैं. उनके दुःख-दर्द में शामिल होने से नहीं चूकते हैं पर प्रशासनिक मामलों में वे बहुत कठोर आदमी हैं. अनुशासनहीनता पर वे कतई दया नहीं दिखाते. कुछ लोग पीठ पीछे उनको ‘हेकड़ सिंह’ भी बोलते हैं. इसलिए लोग उनसे भय भी खाते हैं. डी.आर.एम. तक भी सिंह साहब की कलम की ताकत को पहचानते हैं. रेलवे स्टाफ तथा कर्मचारी युनियनों को मानो उन्होंने अपनी जेब में रखा होता है. कहने को वे युनियन वालों से कहते हैं कि उनकी win-win policy ही उनकी सफलता की कुंजी है, जिसके अनुसार वे युनियन वालों की भी फजीहत नहीं होने देते हैं. प्रशासक के तमाम गुण होते हुए भी सिंह साहब की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वे शराब पीने के बड़े शौक़ीन हैं. अदना सा कर्मचारी भी उन्हें दारू पार्टी का निमंत्रण देता है तो वे कभी अस्वीकार नहीं करते. यहाँ तक कि कुलियों के साथ भी उनको शराब पीते हुए देखा गया है. पर उनके प्रशंसक कहते हैं कि यह उनकी उस्तादी है, इस तरीके से वे अपना नेटवर्क चलाते हैं.
होली-दीवाली पर मिठाइयों और मेवे के इतने डिब्बे उनके बंगले पर आते हैं मानो एक बड़ी दूकान सज गयी हो. उनकी विशेषता यह भी है कि उन मिठाई के डिब्बों को दूर दूर के रेलवे स्टेशनों तक बाँटते है. हाँ भेंट में जो स्कॉच, वोदका या ह्विस्की की बोतलें आती हैं, उनको अपने ‘बार’ में जमा कर लेते हैं.
श्रीमती सिंह अच्छी गृहिणी हैं. वे अपने पति के रोजनामचे में कभी भी दखलन्दाजी नहीं करती हैं, पर शराब तो शराब ही है, सभी लोग खराब ही कहते हैं. ठकुराइन शुरू में तो जरूर परेशान रहती होंगी, पर अब आदत में आ गया है. उनका इकलौता बेटा अनमोल प्रसाद सिंह बाल्यकाल से होनहार व बुद्धिमान रहा है, उसको उन्होंने चित्तौड़ के सैनिक स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दिलवाई और आगे जाकर वह भारतीय सेना में लेफ्टीनेंट और बाद में मेजर हो गया है. कहते हैं कि ‘तुख्मे तासीर-सोहबते असर’ अवश्य होता है. अनमोल भी पिता की राह पर शराब का शौक़ीन हो गया. वह अब इस स्तर पर पहुँच गया कि किसी के समझाने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं रहा. सिंह साहब के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं थी, लेकिन ठकुराइन को बड़ी तकलीफ थी, वह चाहने लगी कि जल्दी से जल्दी बेटे के पैरों में बेडियाँ डाल दी जाएँ ताकि अपने आप सुधरने की नौबत आ जाये. ऊंचे स्तर पर ही लड़की की तलाश की गयी.
संयोग से राजस्थान स्टेट डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के डायरेक्टर विष्णुप्रताप सिंह I.A.S. की पुत्री सुनंदा सिंह के साथ रिश्ता तय हो गया सुनंदा सिंह जयपुर में भौतिक शास्त्र में PhD कर रही थी. बड़े लोगों की बड़ी बातें, सब कुछ शाही अंदाज में हो रहा था. सगाई की रस्म नाते-रिश्तेदारों की उपस्थिति में धूमधाम से जयपुर में संपन्न हुई. लेनदेन की रकम बाहर नहीं बताई गयी, लेकिन अंदाजा है कि बहुत बड़ी रही होगी क्योंकि विष्णुप्रसाद सिंह की कमाई कम नहीं थी. उनकी कुर्सी ही ऐसी है.
सब कुछ बदस्तूर हुआ. बारात में १५० बाराती लाने की बात हुई थी, पर सिंह साहब तो हरदिल अजीज थे. कुली, मजदूर, टी.टी.ई., ड्राईवर, यूनियनों के कारिंदे, आदि कई लोग बिना निमंत्रण के ही जयपुर पहुँच गए. करीब ४०० बाराती जमा हो गए. वधु पक्ष वाले हक्का-बक्का रह गए. खैर, आनन्-फानन में दो-तीन गेस्ट हाउस व बेन्क्विट हॉल बुक किये गए. आमन्त्रित लोगों के लिए बड़े होटलों में ठहराने की अच्छी व्यवस्था थी. जनवासे के रूप में एक बड़े नामी होटल में व्यवस्था थी, जहाँ बारातियों के लिए भरपूर नाश्ते, चाट, चाय-काफी उपलब्ध थी. साथ ही मदिरा के शौकीनों के लिए बार भी खुला था, जिसमें बीस-बीस लीटर की टैप लगी कांच की बोतलें सुसज्जित थी. सभ्य समाज में मदिरा पीने का भी सलीका होता है, पर यहाँ तो रामद्वारा था, जितना मर्जी पियो. फिर क्या था? शाम होते ही पीने का दौर शुरू हो गया. सब तरफ गहमा-गहमी थी. दूल्हे राजा के साथ उनके आर्मी के एक दर्जन दोस्त भी आये थे, सबने पी और अनमोल भी उनके साथ शुगल में शामिल हो गया.
बाद में जब जयमाला के लिए यह शिव-बारात चली तो बहुत लोग अपने होश में नहीं थे. तोरण मारने की रस्म अदा करते समय खुद दूल्हा खड़ा नहीं हो पा रहा था. जब यह खबर सुनंदा तक पहुँची तो उसने खुले में आकर विद्रोह कर दिया कि वह शराबी व्यक्ति को जयमाला नहीं पहनाएगी. वातावरण में सनसनी व झगड़े की नौबत आ गयी. सयाने लोगों ने बीच बचाव किया. माँ-बाप ने सुनंदा को समझाया और स्थिति बिगड़ने से बचा लिया. बहरहाल सारा मजा किरकिरा तो हो ही गया. दूल्हे का नशा उतारने के लिए नीबू-पानी पिलाया गया. थोड़ा संयत होने के बाद ही रात तीन बजे फेरों की रस्म पूरी हो सकी.
बारात में न पीने वाले तथा सभ्य लोग भी थे. वे चुपचाप भोजन करके अपने ठिकानों पर विश्राम करने चले गए. बहुत से लोग उस दावत का मजा नहीं ले सके. सुबह मालूम हुआ कि कुछ बाराती गेस्ट हाउस में रातभर हुल्लड़ करते रहे. दो तीन ने तो सिगरेट पीते हुए बिस्तर भी जला डाले. पूरे रेलवे डिविजन को नियंत्रण में रखने वाले सिंह साहब यहाँ फेल हो गए. सुबह जो जैसा था अपनी तरह से तैयार हुआ और विदाई से पूर्व बारातियों को छोले-भटूरे और दही का नाश्ता परोसा गया.
दूल्हे को नाश्ता करवाने की विशेष पारंपरिक रस्म इस ठाकुर परिवार में होनी थी, जहाँ दूल्हा कन्या पक्ष से कोई भेंट की मांग कर सकता है. आम बारातियों को यह मालूम नहीं था. बड़ी देर से खुसर-पुसर हो रही थी, और फिर मालूम हुआ कि दूल्हे ने एक बुलेट मोटर साईकिल की मांग रख दी है. जब तक ‘हाँ’ नहीं हो उसने नाश्ते को नहीं छुआ. कन्या पक्ष ने इस तरह की मांग को गलत करार दिया. निकट रिश्तेदारों ने भी इस मांग को नहीं सराहा, पर दूल्हा तो अड़ा हुआ था और ऐसा लगा कि इसमें उसके पूज्य पिता जी की शह थी. उधर ट्रक में दहेज का सामान चढ़ाया जा रहा था, घर की महिलायें विदाई की तैयारी कर रही थी.
अचानक सुनंदा प्रकट हुई. उसने चिल्ला चिल्ला कर कहा, “मैं इस शादी को अस्वीकार कर रही हूँ. मुझे इन शराबी और लालची लोगों से रिश्ता नहीं रखना है.”
सब लोग सन्न रह गए. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. मामला गंभीर हो गया. स्वयं लड़की के पिता ने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा, “सबकी असुविधा के लिए मुझे बेहद अफ़सोस है.”
रामेश्वरप्रसाद सिंह जब तक स्थिति की गंभीरता को समझते खेल पूरी तरह बिगड़ चुका था. उन्होंने विष्णुप्रताप सिंह को समझाने की कोशिश की, पर दूध में खटाई पड़ चुकी थी, वह नहीं माने. और दहेज की मांग पर पुलिस में रिपोर्ट करने की धमकी देने लगे.
बारात बिखरते हुए बिना दुल्हन के बड़ी फजीहत कराके बैरंग लौट गयी. सिंह साहब की सारी हेकड़ी धरी रह गयी. सबको अनुशासन में रखने वाले के लिए यह आत्म अनुशासन का बड़ा भारी सबक था.
इस बीच दोनों पक्षों के शुभचिंतकों ने आपस में मंत्रणाएं की. सबको घटना पर दु:ख था. ‘माफ करो और भूल जाओ’ की बात पर सुनंदा को समझाया गया. सबको सद्बुद्धि आई. १५ दिनों के बाद जयपुर जाकर फिर विदाई की रस्म पूरी हुई.
इस प्रकार कहानी का सुखद अंत हुआ.
सब कुछ बदस्तूर हुआ. बारात में १५० बाराती लाने की बात हुई थी, पर सिंह साहब तो हरदिल अजीज थे. कुली, मजदूर, टी.टी.ई., ड्राईवर, यूनियनों के कारिंदे, आदि कई लोग बिना निमंत्रण के ही जयपुर पहुँच गए. करीब ४०० बाराती जमा हो गए. वधु पक्ष वाले हक्का-बक्का रह गए. खैर, आनन्-फानन में दो-तीन गेस्ट हाउस व बेन्क्विट हॉल बुक किये गए. आमन्त्रित लोगों के लिए बड़े होटलों में ठहराने की अच्छी व्यवस्था थी. जनवासे के रूप में एक बड़े नामी होटल में व्यवस्था थी, जहाँ बारातियों के लिए भरपूर नाश्ते, चाट, चाय-काफी उपलब्ध थी. साथ ही मदिरा के शौकीनों के लिए बार भी खुला था, जिसमें बीस-बीस लीटर की टैप लगी कांच की बोतलें सुसज्जित थी. सभ्य समाज में मदिरा पीने का भी सलीका होता है, पर यहाँ तो रामद्वारा था, जितना मर्जी पियो. फिर क्या था? शाम होते ही पीने का दौर शुरू हो गया. सब तरफ गहमा-गहमी थी. दूल्हे राजा के साथ उनके आर्मी के एक दर्जन दोस्त भी आये थे, सबने पी और अनमोल भी उनके साथ शुगल में शामिल हो गया.
बाद में जब जयमाला के लिए यह शिव-बारात चली तो बहुत लोग अपने होश में नहीं थे. तोरण मारने की रस्म अदा करते समय खुद दूल्हा खड़ा नहीं हो पा रहा था. जब यह खबर सुनंदा तक पहुँची तो उसने खुले में आकर विद्रोह कर दिया कि वह शराबी व्यक्ति को जयमाला नहीं पहनाएगी. वातावरण में सनसनी व झगड़े की नौबत आ गयी. सयाने लोगों ने बीच बचाव किया. माँ-बाप ने सुनंदा को समझाया और स्थिति बिगड़ने से बचा लिया. बहरहाल सारा मजा किरकिरा तो हो ही गया. दूल्हे का नशा उतारने के लिए नीबू-पानी पिलाया गया. थोड़ा संयत होने के बाद ही रात तीन बजे फेरों की रस्म पूरी हो सकी.
बारात में न पीने वाले तथा सभ्य लोग भी थे. वे चुपचाप भोजन करके अपने ठिकानों पर विश्राम करने चले गए. बहुत से लोग उस दावत का मजा नहीं ले सके. सुबह मालूम हुआ कि कुछ बाराती गेस्ट हाउस में रातभर हुल्लड़ करते रहे. दो तीन ने तो सिगरेट पीते हुए बिस्तर भी जला डाले. पूरे रेलवे डिविजन को नियंत्रण में रखने वाले सिंह साहब यहाँ फेल हो गए. सुबह जो जैसा था अपनी तरह से तैयार हुआ और विदाई से पूर्व बारातियों को छोले-भटूरे और दही का नाश्ता परोसा गया.
दूल्हे को नाश्ता करवाने की विशेष पारंपरिक रस्म इस ठाकुर परिवार में होनी थी, जहाँ दूल्हा कन्या पक्ष से कोई भेंट की मांग कर सकता है. आम बारातियों को यह मालूम नहीं था. बड़ी देर से खुसर-पुसर हो रही थी, और फिर मालूम हुआ कि दूल्हे ने एक बुलेट मोटर साईकिल की मांग रख दी है. जब तक ‘हाँ’ नहीं हो उसने नाश्ते को नहीं छुआ. कन्या पक्ष ने इस तरह की मांग को गलत करार दिया. निकट रिश्तेदारों ने भी इस मांग को नहीं सराहा, पर दूल्हा तो अड़ा हुआ था और ऐसा लगा कि इसमें उसके पूज्य पिता जी की शह थी. उधर ट्रक में दहेज का सामान चढ़ाया जा रहा था, घर की महिलायें विदाई की तैयारी कर रही थी.
अचानक सुनंदा प्रकट हुई. उसने चिल्ला चिल्ला कर कहा, “मैं इस शादी को अस्वीकार कर रही हूँ. मुझे इन शराबी और लालची लोगों से रिश्ता नहीं रखना है.”
सब लोग सन्न रह गए. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. मामला गंभीर हो गया. स्वयं लड़की के पिता ने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा, “सबकी असुविधा के लिए मुझे बेहद अफ़सोस है.”
रामेश्वरप्रसाद सिंह जब तक स्थिति की गंभीरता को समझते खेल पूरी तरह बिगड़ चुका था. उन्होंने विष्णुप्रताप सिंह को समझाने की कोशिश की, पर दूध में खटाई पड़ चुकी थी, वह नहीं माने. और दहेज की मांग पर पुलिस में रिपोर्ट करने की धमकी देने लगे.
बारात बिखरते हुए बिना दुल्हन के बड़ी फजीहत कराके बैरंग लौट गयी. सिंह साहब की सारी हेकड़ी धरी रह गयी. सबको अनुशासन में रखने वाले के लिए यह आत्म अनुशासन का बड़ा भारी सबक था.
इस बीच दोनों पक्षों के शुभचिंतकों ने आपस में मंत्रणाएं की. सबको घटना पर दु:ख था. ‘माफ करो और भूल जाओ’ की बात पर सुनंदा को समझाया गया. सबको सद्बुद्धि आई. १५ दिनों के बाद जयपुर जाकर फिर विदाई की रस्म पूरी हुई.
इस प्रकार कहानी का सुखद अंत हुआ.
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सही निर्णय लिया, आदतों पर नियन्त्रण बना रहे।
जवाब देंहटाएंअनुशासनहीनता पर वे कत्तई(कतई ) दया नहीं दिखाते. कुछ लोग पीठ पीछे उनको ‘हेकड़ सिंह’ भी बोलते हैं. इसलिए लोग उनसे भय भी ....
जवाब देंहटाएंयूनियन .....पुरुषोत्तम पांडे जी बहुत सशक्त रचनाएं लातें हैं समाज की सच्चाइयों की परतों से बावस्ता करवाती हुईं .हमें इनसे शिकायत है ये अपना स्पिम बोक्स चेक नहीं करते .आजकल कोयला खोरों की तरह यह भी टिपण्णी खोर हो रहा है .
ऐसे आचरण वाले लालची लोगों के साथ यही होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिये …………अति हर चीज़ की बुरी होती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सही हुआ ... ऐसा होना भी चाहिए
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