दिनेशसिंह बिष्ट, उम्र ३६ वर्ष, पेशे से अध्यापक, निवासी – ग्राम दौलतपुर जिला नैनीताल. तीन स्कूल जाने वाले बच्चे व शुभांगी पत्नी, सब कुशल मंगल था. वह गर्मियों की छुट्टियों में अपने ससुराल कोटाबाग मिलने गया तो वापसी में एक प्यारा सा देसी कुत्ते का पिल्ला भी साथ ले आया. पिल्ला आ जाने से बच्चे बहुत खुश हुए. उसके साथ खेलते थे, गोद में उठाते थे, उसे छेड़ते भी रहते थे.छेड़छाड़ से वह थोड़ा कटखना भी हो गया था. तीनों बच्चों के पैरों में उसने अपने पैने दांत चुभो दिये थे पर बच्चे तो बच्चे होते हैं, कहाँ परवाह करते हैं?
एक दिन दिनेशसिंह को भी उसने चलते चलते बिना छेड़े ही आकर काट डाला तो उसकी थोड़ी पिटाई कर दी गयी. सोच यों थी कि घर का पला हुआ छोटा बच्चा है. उसके पागल होने अर्थात रेबीज संक्रमित होने की संभावना पर कोई विचार नहीं हुआ. पिल्ला कुछ अनियमित व्यवहार करते हुए तीसरे दिन मर गया तो भी इस जानलेवा विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया. हाँ, दिनेशसिंह को कुछ शंका-संदेह जरूर हुआ उसने अपनी पत्नी से इस बारे में चर्चा भी की.
दस दिनों के अंतराल में दिनेशसिंह को रेबीज के लक्षण प्रकट होने लगे, वह प्रलाप करने लगा, आँखों की रोशनी कम हो गयी, हल्का बुखार हो गया तो उसके भाईयों ने आकर उसे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया. उसकी जाँच-पड़ताल हुई, पूछताछ की गयी तो यह सिद्ध कर दिया गया कि उसे रेबीज के वायरस ने जकड़ लिया है और ऐसी स्थिति में आ गया था कि उसका बचना मुश्किल जान पडता था. डॉक्टर ने भी असाध्य बता कर आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, को रेफर कर दिया. घरवाले चिंतित थे, टैक्सी करके तुरन्त दिल्ली को रवाना हो गए पर वहाँ पहुँचते पहुँचते उसने दम तोड़ दिया.
परिवार पर जो बीती वह अकथनीय पीड़ाजनक है. चिंता इस बात की हो गयी कि पिल्ले ने तीनों बच्चों को भी काटा था. अब एक तरफ दिनेशसिंह के अन्तिम संस्कार की तैयारी चल रही थी दूसरी तरफ तीनों बच्चों को अस्पताल मे ऐंटीरेबीज इंजेक्शन व इम्यूनाइजेशन की दवाएं दी जा रही थी. बहरहाल बच्चों पर अभी तक उस मारक वायरस के कोई लक्षण प्रकट नहीं हुए थे.
यह एक सत्य घटना है. इस प्रस्तुति द्वारा लेखक रेबीज की भयानकता तथा इस बारे में लापरवाहियों व सावधानियों पर चर्चा करना चाहता है. यह बहुत प्राचीन रोग है. हमारे अथर्ववेद में इसका वर्णन मिलता है. पागल जानवरों के काटने से उनके लार में उपस्थित वायरस के कारण यह मनुष्यों या अन्य जानवरों के लिए मारक होता है. वायरस का सीधा असर मस्तिष्क पर होता है जहाँ सूजन आ जाती है.
वाग्भट्ट में इसे ‘अलर्क विष’ कहा गया है. तमाम आयुर्वैदिक ग्रंथों में इसका सन्दर्भ मिलता है.
रेबीज वायरस मुख्यतः संक्रमित कुत्ते की लार में होता है. कुत्तों के अलावा बिल्ली, गीदड़, सियार, नेवले. रेकून, चमगादड़ आदि जानवरों में भी संक्रमण पाया जाता है. इनके काटने से जो घाव बनते हैं या चमड़ी कट जाती है वहीं से वायरस प्रविष्ट होता है. गाय, भैंस घोड़ा आदि पालतू जानवर भी इस वायरस की चपेट में आ जाते हैं.
संक्रमित कुत्ते आदि जानवर पागल होकर जल्दी मर भी जाते हैं. उनके पागलपन को उनके अनियमित व्यवहार से पहचाना जाता है, जिसमें पूंछ आदि शारीरिक अंग शिथिल हो जाते है, मुँह से निरंतर लार टपकती है, और अंधे-बहरे होकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं. इसीलिये पालतू जानवरों को संक्रमण से बचाए रखने के लिए ‘ऐंटीरेबीज वायरस’ के टीके समय समय पर नियमानुसार जरूर लगवा लेना चाहिए.
रेबीज का इनक्यूबेशन पीरियड दस दिनों से लेकर सात साल तक का होता है. अत: सावधानी बरतते हुए तुरन्त ऐंटीवायरस वैक्सीन लगवा लेना चाहिए.
रेबीस से संक्रमित व्यक्ति अनियमित व्यवहार करने लगता है. उसकी मांसपेशियां शिथिल हो जाती है. वह तनावग्रस्त हो जाता है, मारने-काटने का प्रयास करने लगता है, तथा कुत्ते की तरह आवाज भी निकालने लगता है. पानी को देख कर भयभीत हो जाता है, जिसे जल-संत्रास (हाइड्रोफोबिया) कहा जाता है. एक बार ये लक्षण प्रकट हो जाते हैं तो बीमारी असाध्य हो जाती है. जिस स्थान पर पागल कुत्ते ने काटा हो वह सुन्न हो जाता है. आयुर्वेद में ब्रंण साफ़ करके लाल मिर्च का लेप लगाने का निर्देश दिया गया है, इससे सुन्न होने का भी पता चल जाता है. घाव को ऐंटीसेप्टिक से साफ़ करके योग्य डाक्टर से सलाह लेनी आवश्यक है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने वैक्सीन व ‘ह्यूमन रेबीज इम्यून ग्लोब्यूलिन' (H R I G) जैसी व्यवस्था विश्व भर में उपलब्ध करवाई है इसका लाभ लेना चाहिए.
कहा जाता है कि ‘खोज करने से पहरा अच्छा’ इसलिए अनजान कुत्तों से संपर्क करने से बचना चाहिए. आवारा कुत्तों के लिए प्रशासन से यथोचित व्यवस्था करवानी चाहिए. दिनेशसिंह बिष्ट के परिवार का सा दुर्भाग्य कहीं भी नहीं दोहराया जाये, यह संकल्प होना चाहिए.
दस दिनों के अंतराल में दिनेशसिंह को रेबीज के लक्षण प्रकट होने लगे, वह प्रलाप करने लगा, आँखों की रोशनी कम हो गयी, हल्का बुखार हो गया तो उसके भाईयों ने आकर उसे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया. उसकी जाँच-पड़ताल हुई, पूछताछ की गयी तो यह सिद्ध कर दिया गया कि उसे रेबीज के वायरस ने जकड़ लिया है और ऐसी स्थिति में आ गया था कि उसका बचना मुश्किल जान पडता था. डॉक्टर ने भी असाध्य बता कर आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, को रेफर कर दिया. घरवाले चिंतित थे, टैक्सी करके तुरन्त दिल्ली को रवाना हो गए पर वहाँ पहुँचते पहुँचते उसने दम तोड़ दिया.
परिवार पर जो बीती वह अकथनीय पीड़ाजनक है. चिंता इस बात की हो गयी कि पिल्ले ने तीनों बच्चों को भी काटा था. अब एक तरफ दिनेशसिंह के अन्तिम संस्कार की तैयारी चल रही थी दूसरी तरफ तीनों बच्चों को अस्पताल मे ऐंटीरेबीज इंजेक्शन व इम्यूनाइजेशन की दवाएं दी जा रही थी. बहरहाल बच्चों पर अभी तक उस मारक वायरस के कोई लक्षण प्रकट नहीं हुए थे.
यह एक सत्य घटना है. इस प्रस्तुति द्वारा लेखक रेबीज की भयानकता तथा इस बारे में लापरवाहियों व सावधानियों पर चर्चा करना चाहता है. यह बहुत प्राचीन रोग है. हमारे अथर्ववेद में इसका वर्णन मिलता है. पागल जानवरों के काटने से उनके लार में उपस्थित वायरस के कारण यह मनुष्यों या अन्य जानवरों के लिए मारक होता है. वायरस का सीधा असर मस्तिष्क पर होता है जहाँ सूजन आ जाती है.
वाग्भट्ट में इसे ‘अलर्क विष’ कहा गया है. तमाम आयुर्वैदिक ग्रंथों में इसका सन्दर्भ मिलता है.
रेबीज वायरस मुख्यतः संक्रमित कुत्ते की लार में होता है. कुत्तों के अलावा बिल्ली, गीदड़, सियार, नेवले. रेकून, चमगादड़ आदि जानवरों में भी संक्रमण पाया जाता है. इनके काटने से जो घाव बनते हैं या चमड़ी कट जाती है वहीं से वायरस प्रविष्ट होता है. गाय, भैंस घोड़ा आदि पालतू जानवर भी इस वायरस की चपेट में आ जाते हैं.
संक्रमित कुत्ते आदि जानवर पागल होकर जल्दी मर भी जाते हैं. उनके पागलपन को उनके अनियमित व्यवहार से पहचाना जाता है, जिसमें पूंछ आदि शारीरिक अंग शिथिल हो जाते है, मुँह से निरंतर लार टपकती है, और अंधे-बहरे होकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं. इसीलिये पालतू जानवरों को संक्रमण से बचाए रखने के लिए ‘ऐंटीरेबीज वायरस’ के टीके समय समय पर नियमानुसार जरूर लगवा लेना चाहिए.
रेबीज का इनक्यूबेशन पीरियड दस दिनों से लेकर सात साल तक का होता है. अत: सावधानी बरतते हुए तुरन्त ऐंटीवायरस वैक्सीन लगवा लेना चाहिए.
रेबीस से संक्रमित व्यक्ति अनियमित व्यवहार करने लगता है. उसकी मांसपेशियां शिथिल हो जाती है. वह तनावग्रस्त हो जाता है, मारने-काटने का प्रयास करने लगता है, तथा कुत्ते की तरह आवाज भी निकालने लगता है. पानी को देख कर भयभीत हो जाता है, जिसे जल-संत्रास (हाइड्रोफोबिया) कहा जाता है. एक बार ये लक्षण प्रकट हो जाते हैं तो बीमारी असाध्य हो जाती है. जिस स्थान पर पागल कुत्ते ने काटा हो वह सुन्न हो जाता है. आयुर्वेद में ब्रंण साफ़ करके लाल मिर्च का लेप लगाने का निर्देश दिया गया है, इससे सुन्न होने का भी पता चल जाता है. घाव को ऐंटीसेप्टिक से साफ़ करके योग्य डाक्टर से सलाह लेनी आवश्यक है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने वैक्सीन व ‘ह्यूमन रेबीज इम्यून ग्लोब्यूलिन' (H R I G) जैसी व्यवस्था विश्व भर में उपलब्ध करवाई है इसका लाभ लेना चाहिए.
कहा जाता है कि ‘खोज करने से पहरा अच्छा’ इसलिए अनजान कुत्तों से संपर्क करने से बचना चाहिए. आवारा कुत्तों के लिए प्रशासन से यथोचित व्यवस्था करवानी चाहिए. दिनेशसिंह बिष्ट के परिवार का सा दुर्भाग्य कहीं भी नहीं दोहराया जाये, यह संकल्प होना चाहिए.
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gambheer sabal...
जवाब देंहटाएंउपयोगी सलाह..
जवाब देंहटाएंउत्तम जानकारी... सादर
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब! वाह!
जवाब देंहटाएंकृपया इसे भी देखें-
नाहक़ ही प्यार आया
आज 06-10-12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं.... आज की वार्ता में ... उधार की ज़िंदगी ...... फिर एक चौराहा ...........ब्लॉग 4 वार्ता ... संगीता स्वरूप.
बढ़िया जानकारी देती पोस्ट
जवाब देंहटाएंapprox 13 years before one dog attacked on my legs and i have done nothing as a treatment. there is any chance?????????? and what should do now???????????
जवाब देंहटाएंplz reply
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