रविवार, 7 अक्टूबर 2012

मोटा भाई

मोटा भाई सोलंकी अलग किस्म के इन्सान थे. लोग तो उन्हें ‘लाखों में एक’ की उपाधि भी दिया करते थे. उनका व्यक्तित्व था ही कुछ ऐसा. शक्ल-सूरत से बिलकुल चाइनीज से दिखते थे, गोल थोबड़े पर छोटी-छोटी गोल आँखें देखती कम थी टिमटिमाती ज्यादा थी.

मोटा भाई नवसारी, गुजरात, के मूल निवासी थे. वे एक गरीब परिवार में जन्मे थे, पर उनके जीवन का सफर आम गरीब लोगों से अलग था. वे अकसर अपने लिए ‘सेल्फ-मेड’ शब्द का प्रयोग किया करते थे. रेलवे में एक लोअर डिविजन क्लर्क के बतौर उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था, पेंशन योग्य होने पर २० साल की नौकरी करके किसी प्राइवेट कंपनी में रेलवे मैटर्स के सलाहकार बन गए.

यहाँ उनकी मुलाक़ात एक ‘जीवन बीमा डेवलपमेंट ऑफिसर से हुई, जो उनके जीवन में नया मोड़ ले आया. वे जीवन बीमा एजेंट बन गए. अपनी मेहनत और अध्यवसाय से वे इस क्षेत्र में बहुत सफल एजेंट गिने जाने लगे. चंद वर्षों में उन्होंने बीमा करने का नया रिकार्ड बना डाला. सं १९७० के दशक में वे पहले करोड़पति एजेंट के रूप में प्रसिद्धि पा गए और जीवन बीमा निगम की तरफ से सम्मानित भी किये गए. उन्होंने निकटवर्ती औद्योगिक शहर कोटा, राजस्थान, को अपना स्थाई कार्यक्षेत्र बना लिया वहां पर बीमा धारकों की अपार संभावनाएं थी.

मोटा भाई की विशेषता यह थी कि वे जिस व्यक्ति के पीछे पड़ जाते थे, उसका बीमा किये बगैर नहीं मानते थे. वे रात दिन अपने लक्ष्य का पीछा करते रहते थे. बहुत से लोग तो तंग आकर भी उनसे पॉलिसी ले लेते थे. कभी कभी तो एजेंटों की प्रतिस्पर्धा में वे पहली तीन किश्तें अपनी जेब से देकर ग्राहक पटा लेते थे. जीवन बीमा के लाभ बताने के लिए वे स्टीरियो की तरह चालू हो जाते थे. यद्यपि लंबे समय के बचत की दृष्टि से बीमा में निवेश की जाने वाली राशि बहुत घाटे का सौदा होता है, लेकिन विपदा में सहारा मिलने की संभावना होती है. जिसका खूब प्रचार-प्रसार भी होता है. मोटा भाई अच्छे विक्रेता यानि सेल्समैन साबित हुए. हालाँकि लोग उनके पीठ पीछे उनको जोंक, चिपकू, गोन्द या लेसूड़ा आदि उपनाम से भी पुकारने लगे थे.

निजी जीवन में मोटा भाई महान कंजूस, मक्खीचूस, व कृपण रहे. उन्होंने उस सस्ती अवधि में कोटा के विज्ञान नगर में एक उच्च आयवर्ग नगर परिषद द्वारा निर्मित मकान महज एक लाख रुपयों में खरीदा, पर २५ वर्ष तक रहने पर भी उसमें कोई रंगाई पुताई या मरम्मत नहीं करवाई. मोटा भाई पैसे को पकड़ते थे. वही उनका भगवान होता था. वे अपनी धन-संपत्ति का श्रेय अपनी धर्मपत्नी वीणा बेन को दिया करते थे. उसे वे लक्ष्मी नाम से ही पुकारते थे. उनकी कंजूसी पर जब कोई कटाक्ष करता था तो वे एक मजेदार किस्सा सुनाया करते थे कि –एक आदमी अपने मित्र से बोला, “मेरे पास २० साल पुराना आचार है, जो अनेक रोगों की दवा बन गया है.” तब मित्र ने कहा, "कभी हमको भी तो चखाना.” इस पर वह बोला, “माफ़ कीजिये, ऐसे चखाते रहते तो आचार २० साल तक कहाँ बचता.”

उनका एक बेटा तो बचपन में ही किसी दुर्घटना का शिकार हो गया था, और दूसरा बोरीवली, मुम्बई में अपने नाना-नानी के पास ही पला बड़ा. वह अपने पिता की कंजूसी वाली फितरत के कारण ही उनके पास नहीं रहा. इस प्रकार मोटा भाई का पारिवारिक जीवन बहुत सुखद नहीं रहा. वीणा बेन को उन्होंने अपनी ही आदतों में ढाल कर रखा, जो सब कुछ होते हुए भी उपयुक्त ईलाज के अभाव में १९९० के दशक में उनको अकेला छोड़कर चल बसी.

७० वर्ष की उम्र में विधुर होना बड़ा अभिशाप सा होता है, वह भी उन परिस्थितियों में जब परिवार का कोई अन्य सदस्य पास में ना हो. यद्यपि इस सब के लिए मोटा भाई खुद जिम्मेदार थे क्योंकि अपनी कृपणता के चलते उन्होंने किसी नाते-रिश्तेदार या दोस्त से घनिष्ट सम्बन्ध रखने की जुर्रत नहीं समझी.

उनको जीवन बीमा निगम से नियमानुसार कमीशन से एक लाख से अधिक रुपये आमदनी के रूप में प्राप्य थी. इसके अलावा शेयर बाजार में किये गए निवेश का भी लाभ मिला करता था, पर सन्तोष नहीं होने से तथा धन का उपभोग नहीं होने से उनकी स्थिति खजाने पर कुंडली मार कर बैठे हुए नागराज की तरह हो गयी.

वे अन्तिम दिनों में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए थे. अपनी देखभाल के लिए एक के बाद एक कई स्थानीय नौकरानियां भी रखी गयी पर कोई टिकी नहीं क्योंकि नमक से लेकर आटा-चावल तथा मसाले तक अपने हाथों से निकाल कर दिया करते थे, ऐसे में कौन सेवक टिकता है? एकाकी जीवन का बड़ा दुखद अंत हुआ. उनके देहावसान पर उनका पुत्र आया और दो करोड़ रुपयों में मकान व अन्य संपत्ति बेच गया. पिता की अन्य वित्तीय प्रतिभूतियों को उत्तराधिकारी के रूप में विधिवत अपने नाम करके मुम्बई लौट गया.

धन कमाना तो बहुतों को आता है पर उसका उपभोग करना सबके भाग्य में नहीं होता है.
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