हमारा देश इतनी विविधताओं से भरा है कि हम इनका पूरा अवलोकन नहीं कर सकते हैं, फिर भी जो देख पाते हैं, वह कई बार हमारी कल्पनाओं से परे होता है. मुझे दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के धुर उत्तर जिला गुलबर्गा (स्थानीय लोग उसे कल्बुर्गी भी कहते हैं) के शाहाबाद औद्योगिक परिसर में पूरे चार साल रहने का सुअवसर संन १९७० से १९७४ के बीच मिला. तब मेरी उम्र तीस वर्ष थी. मैं ए.सी.सी. सीमेंट की लाखेरी (राजस्थान) इकाई से शाहाबाद इकाई को स्थानांतरित किया गया था. स्थानांतरण का कारण मेरे ट्रेड युनियन के कार्यकलाप थे, जिसका खुलासा मैंने पूर्व में इसी ब्लॉग में ‘मगर से बैर’ शीर्षक वाले संस्मरण में किया हुआ है.
शाहाबाद बहुत सुन्दर जगह है. कम्पनी ने सीमेंट फैक्ट्री के बगल में एक बड़ा हैवी इन्जीनियरिंग कारखाना भी लगाया था, जिसमें बड़ी बड़ी मशीनें बनती थी. मुम्बई-चेन्नई में रेल मार्ग के मध्य में शाहाबाद कस्बा लाइम स्टोन यानि चूना पत्थर के चट्टान पर बसा हुआ है. वहाँ मकान भी इन्ही चूना पत्थर से बने थे. कारखाने के लिए कुछ दूरी पर पत्थरों की खदानें खोदी गयी थी. इस पूरे चितापुर तालुके की बेल्ट में हाई ग्रेड लाइम स्टोन भरा पड़ा था, जो सीमेंट बनाने में काम आता है.
बगल में मीठे पानी वाली कगीना नदी (भीमा नदी की ट्रीब्युटरी) बहती थी. जिला मुख्यालय गुलबर्गा शहर भव्य मंदिर व मस्जिद के साथ साथ इन्जीनियरिंग कॉलेज व कृषि विज्ञान कॉलेज वाला खूबसूरत साधन संम्पन्न था/है. पूर्व मुख्य मन्त्री स्व. वीरेंद्र पाटिल का चुनाव क्षेत्र होने से सब प्रकार से आधुनिकता संपन्न भी था. लेकिन जब मैं शाहाबाद गया तो वहाँ पर राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के मुकाबले बहुत गरीबी और पिछड़ापन लगा. फैक्ट्री कर्मचारियों के अलावा बाकी आम निवासी बेहद गरीबी और भुखमरी के शिकार लगते थे. कारण यह भी हो सकता है कि उस इलाके में कुछ वर्षों से बिलकुल वर्षा ना होने से अकाल की स्थिति थी. घरों मे काम करने वाली महरी मात्र पन्द्रह रूपये माहवार पर उपलब्ध होती थी.
कस्बे में पुराने जमे हुए मारवाड़ी व्यापारी बहुत थे. बाजार आम देहाती बाजारों की तरह ही सजा रहता था. फैक्ट्री की आवासीय कॉलोनी बहुत बढ़िया ढंग से बसाई गयी थी लेकिन उसके बगल में बहुत बड़ी झोपड़पट्टी वाली बस्ती थी जिसे ‘मड्डी’ कहा जाता था/है. इस बस्ती में तब नागरिक सुविधाएँ नहीं के बराबर थी. बहुत से फैक्ट्री मजदूर भी वहाँ निवास करते थे. सब तरह के लोग खिचड़ी की तरह साथ रहते थे. जिनमें अधिकांश हरिजन, मुस्लिम या लम्बाड़ी जाति के हिन्दू थे जो अपने आपको आज भी महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं. इनकी महिलायें ‘कालबेलिया’ औरतों की तरह पहनावा पहनती हैं. इनकी अलग बोली भी है, पर आम तौर पर सभी लोग कन्नड़ बोलते है.
किसी समय यह इलाका तेलंगाना में था और हैदराबाद राज्य का हिस्सा हुआ करता था. इसलिए यहाँ मुस्लिम आबादी भी बहुत है जो कन्नड़ के साथ साथ उर्दू भी जानते हैं. हाँ, लहजा दखिनी होता है.
इस मड्डी में से ही अनेक राजनेता उभर कर आये हैं. वर्तमान में राज्यसभा सदस्य मेरे मित्र के.बी.शानप्पा (सी.पी.आई) तब हैवी इन्जीनियरिंग फैक्ट्री में काम करते थे. मेरे युनियन में असिस्टेंट गुरुनाथ, जो बाद में कर्नाटक कई संयुक्त सरकार में लेबर मिनिस्टर बने मड्डी में ही निवास करते थे.
मड्डी को बदनाम बस्ती के रूप में भी जाना जाता था, जहाँ जुआ, शराब(सैंदी/ताड़ी), शबाब सब उपलब्ध रहता था. अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी ने बहुत से नौजवानों में अपराधवृत्ति भी पैदा की हुयी थी. खुले आम चलती मालगाड़ी के डिब्बों को खोलकर सामान गिरा लेना, कोयले के खुले वैगनों में से कोयला गिरा कर ले जाना तथा कॉलोनी में भी घरवालों की अनुपस्थिति में सामान निकाल लेना बहुत आम बात थी. मुझे युनियन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर रहते हुए विधान सभा के चुनावों के दौरान पार्टी उम्मीदवार के साथ इस बस्ती में घूमने का अवसर मिला, जो मेरे लिए अलग किस्म का अनुभव था.
मुझे याद है पिछले एक मुख्यमन्त्री श्री धर्मसिंह राठौर जो चितापुर में रहते थे, मेरे अच्छे मित्र बन गए थे. वे अपना मूल उत्तर भारत ही बताते थे. तात्कालीन विधायक कामरेड रोचय्या भी चीतापुर के निवासी थे. मैं अपने प्रेसीडेंट कामरेड श्रीनिवास गुडी के साथ कई कार्यक्रमों में उनके साथ रहा, पर सब कुछ, यानि पद और आदर, पाने के बावजूद मैं स्वयं को उस वातावरण में आत्मसात नहीं कर पाया. इसलिए मैंने वापस लाखेरी, राजस्थान के लिए स्थानांतरण चाहा और ठीक चार वर्ष वहाँ रह कर लाखेरी आ गया.
सं १९७० में शाहाबाद पंहुचते ही जो मजेदार घटना मेरे साथ घटी, मैं उसका जिक्र जरूर करना चाहूँगा कि मैं अपने परिवार और नौ अदद सामानों के साथ जब रेल से शाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मुझे लेने के लिए कम्पनी का एक सिक्योरिटी हवलदार बस लेकर आया था, जो हमें आवासीय कॉलोनी में ले गया. बस ने मेरे भावी निवास के निकटतम स्थान पर अपने नियत स्टाप पर हमें उतार दिया. बस से उतरते ही एक १५-१६ साल का तगड़ा लड़का सामने आया, बोला, “साब, सामान क्वार्टर पर पहुंचाना है?” मैंने पूछा, “कितने रूपये लेगा?” उसने कहा, “सारा सामान ५ रुपयों में पहुंचा दूंगा.” (उन दिनों ५ रुपयों की बहुत कीमत होती थी.) मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” उसने बताया, “अब्बास”. “ले चलो,” मैंने कहा, तथा हम सबने भी मिलकर सामान उठाया. सिक्योरिटी वाले ने भी मदद की. सामान चर्च के पास एक टी.आर.टी क्वार्टर में पहुच गया. मैंने शुक्रिया कहते हुए उसको ५ रुपये दे दिये और वह चला गया.
हम नए घर में व्यवस्थित होने लगे. एक घंटे बाद मैं अपने कार्यस्थल देखने फैक्ट्री गेट की तरफ गया तो मेरे पीछे से अब्बास ने आकर मेरी पत्नी से हुज्जत करके ५ रूपये मांगे, जो उस वक्त मेरी पत्नी के पास नहीं थे. हल्ला गुल्ला सुन कर पड़ोस से एक सयानी महिला निकल कर आई, उसने मेरी पत्नी को ५ रूपये उधार देकर कृतार्थ किया. मैं जब लौट कर आया तो पत्नी ने नाराजी भरे स्वर में कहा कि “उस लड़के को आपने रूपये दे देने चाहिए थे. उसने बड़ा हुल्लड किया." मैंने बताया कि “रूपये तो मैंने उसको दे दिये थे.” मतलब साफ़ था कि वह लड़का मवाली था. मुझे उसका नाम याद था अत: मैं उसकी तलाश में तुरन्त निकल पड़ा.
कॉलोनी के बीच में कोऑपरेटिव स्टोर के पास एक पान की दूकान पर मैंने अब्बास के बारे में पूछा तो उसने मुझे उस साइकिल की दूकान का सही पता बता दिया जहाँ उसकी बैठक होती थी. पान वाले ने यह भी बताया कि ये लड़के बदमाश हैं, इनसे बच कर रहिये.” मैं सीधे साइकिल की दूकान पर पहुँचा, वहाँ मुझे अब्बास बैठा मिल गया. उसके साथ ४-५ नौजवान और भी थे. मैंने आव देखा ना ताव अब्बास का हाथ पकड़ कर बाहर खींचा और दो थप्पड़ रसीद कर दिये. उसकी हिमायत में एक और उठा तो मैंने उसे भी एक झापड मार दिया. अब्बास कांपने लगा. मैंने कहा”निकाल रूपये.” उसने पांच रूपये निकाल कर मुझे दे दिये. मैंने उससे कहा, “अब बता अपने दोस्तों को मैंने तुझे क्यों मारा?”
मैंने जब सारी बात बताई तो सबको जैसे सांप सूंघ गया हो. मैं अपने क्वार्टर पर लौट आया.
इस घटना ने मुझे फैक्ट्री के अन्दर-बाहर एक चर्चित व्यक्ति बना दिया. मुझे ‘दादा’ के रूप में देखा जाने लगा, जो बाद में वहाँ पर मेरे युनियन नेता बनने में सहायक सिद्ध हुआ और चार सालों तक किसी असामाजिक तत्व ने मुझसे सामना करने की हिमाकत नहीं की.
शाहाबाद बहुत सुन्दर जगह है. कम्पनी ने सीमेंट फैक्ट्री के बगल में एक बड़ा हैवी इन्जीनियरिंग कारखाना भी लगाया था, जिसमें बड़ी बड़ी मशीनें बनती थी. मुम्बई-चेन्नई में रेल मार्ग के मध्य में शाहाबाद कस्बा लाइम स्टोन यानि चूना पत्थर के चट्टान पर बसा हुआ है. वहाँ मकान भी इन्ही चूना पत्थर से बने थे. कारखाने के लिए कुछ दूरी पर पत्थरों की खदानें खोदी गयी थी. इस पूरे चितापुर तालुके की बेल्ट में हाई ग्रेड लाइम स्टोन भरा पड़ा था, जो सीमेंट बनाने में काम आता है.
बगल में मीठे पानी वाली कगीना नदी (भीमा नदी की ट्रीब्युटरी) बहती थी. जिला मुख्यालय गुलबर्गा शहर भव्य मंदिर व मस्जिद के साथ साथ इन्जीनियरिंग कॉलेज व कृषि विज्ञान कॉलेज वाला खूबसूरत साधन संम्पन्न था/है. पूर्व मुख्य मन्त्री स्व. वीरेंद्र पाटिल का चुनाव क्षेत्र होने से सब प्रकार से आधुनिकता संपन्न भी था. लेकिन जब मैं शाहाबाद गया तो वहाँ पर राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के मुकाबले बहुत गरीबी और पिछड़ापन लगा. फैक्ट्री कर्मचारियों के अलावा बाकी आम निवासी बेहद गरीबी और भुखमरी के शिकार लगते थे. कारण यह भी हो सकता है कि उस इलाके में कुछ वर्षों से बिलकुल वर्षा ना होने से अकाल की स्थिति थी. घरों मे काम करने वाली महरी मात्र पन्द्रह रूपये माहवार पर उपलब्ध होती थी.
कस्बे में पुराने जमे हुए मारवाड़ी व्यापारी बहुत थे. बाजार आम देहाती बाजारों की तरह ही सजा रहता था. फैक्ट्री की आवासीय कॉलोनी बहुत बढ़िया ढंग से बसाई गयी थी लेकिन उसके बगल में बहुत बड़ी झोपड़पट्टी वाली बस्ती थी जिसे ‘मड्डी’ कहा जाता था/है. इस बस्ती में तब नागरिक सुविधाएँ नहीं के बराबर थी. बहुत से फैक्ट्री मजदूर भी वहाँ निवास करते थे. सब तरह के लोग खिचड़ी की तरह साथ रहते थे. जिनमें अधिकांश हरिजन, मुस्लिम या लम्बाड़ी जाति के हिन्दू थे जो अपने आपको आज भी महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं. इनकी महिलायें ‘कालबेलिया’ औरतों की तरह पहनावा पहनती हैं. इनकी अलग बोली भी है, पर आम तौर पर सभी लोग कन्नड़ बोलते है.
किसी समय यह इलाका तेलंगाना में था और हैदराबाद राज्य का हिस्सा हुआ करता था. इसलिए यहाँ मुस्लिम आबादी भी बहुत है जो कन्नड़ के साथ साथ उर्दू भी जानते हैं. हाँ, लहजा दखिनी होता है.
इस मड्डी में से ही अनेक राजनेता उभर कर आये हैं. वर्तमान में राज्यसभा सदस्य मेरे मित्र के.बी.शानप्पा (सी.पी.आई) तब हैवी इन्जीनियरिंग फैक्ट्री में काम करते थे. मेरे युनियन में असिस्टेंट गुरुनाथ, जो बाद में कर्नाटक कई संयुक्त सरकार में लेबर मिनिस्टर बने मड्डी में ही निवास करते थे.
मड्डी को बदनाम बस्ती के रूप में भी जाना जाता था, जहाँ जुआ, शराब(सैंदी/ताड़ी), शबाब सब उपलब्ध रहता था. अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी ने बहुत से नौजवानों में अपराधवृत्ति भी पैदा की हुयी थी. खुले आम चलती मालगाड़ी के डिब्बों को खोलकर सामान गिरा लेना, कोयले के खुले वैगनों में से कोयला गिरा कर ले जाना तथा कॉलोनी में भी घरवालों की अनुपस्थिति में सामान निकाल लेना बहुत आम बात थी. मुझे युनियन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर रहते हुए विधान सभा के चुनावों के दौरान पार्टी उम्मीदवार के साथ इस बस्ती में घूमने का अवसर मिला, जो मेरे लिए अलग किस्म का अनुभव था.
मुझे याद है पिछले एक मुख्यमन्त्री श्री धर्मसिंह राठौर जो चितापुर में रहते थे, मेरे अच्छे मित्र बन गए थे. वे अपना मूल उत्तर भारत ही बताते थे. तात्कालीन विधायक कामरेड रोचय्या भी चीतापुर के निवासी थे. मैं अपने प्रेसीडेंट कामरेड श्रीनिवास गुडी के साथ कई कार्यक्रमों में उनके साथ रहा, पर सब कुछ, यानि पद और आदर, पाने के बावजूद मैं स्वयं को उस वातावरण में आत्मसात नहीं कर पाया. इसलिए मैंने वापस लाखेरी, राजस्थान के लिए स्थानांतरण चाहा और ठीक चार वर्ष वहाँ रह कर लाखेरी आ गया.
सं १९७० में शाहाबाद पंहुचते ही जो मजेदार घटना मेरे साथ घटी, मैं उसका जिक्र जरूर करना चाहूँगा कि मैं अपने परिवार और नौ अदद सामानों के साथ जब रेल से शाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मुझे लेने के लिए कम्पनी का एक सिक्योरिटी हवलदार बस लेकर आया था, जो हमें आवासीय कॉलोनी में ले गया. बस ने मेरे भावी निवास के निकटतम स्थान पर अपने नियत स्टाप पर हमें उतार दिया. बस से उतरते ही एक १५-१६ साल का तगड़ा लड़का सामने आया, बोला, “साब, सामान क्वार्टर पर पहुंचाना है?” मैंने पूछा, “कितने रूपये लेगा?” उसने कहा, “सारा सामान ५ रुपयों में पहुंचा दूंगा.” (उन दिनों ५ रुपयों की बहुत कीमत होती थी.) मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” उसने बताया, “अब्बास”. “ले चलो,” मैंने कहा, तथा हम सबने भी मिलकर सामान उठाया. सिक्योरिटी वाले ने भी मदद की. सामान चर्च के पास एक टी.आर.टी क्वार्टर में पहुच गया. मैंने शुक्रिया कहते हुए उसको ५ रुपये दे दिये और वह चला गया.
हम नए घर में व्यवस्थित होने लगे. एक घंटे बाद मैं अपने कार्यस्थल देखने फैक्ट्री गेट की तरफ गया तो मेरे पीछे से अब्बास ने आकर मेरी पत्नी से हुज्जत करके ५ रूपये मांगे, जो उस वक्त मेरी पत्नी के पास नहीं थे. हल्ला गुल्ला सुन कर पड़ोस से एक सयानी महिला निकल कर आई, उसने मेरी पत्नी को ५ रूपये उधार देकर कृतार्थ किया. मैं जब लौट कर आया तो पत्नी ने नाराजी भरे स्वर में कहा कि “उस लड़के को आपने रूपये दे देने चाहिए थे. उसने बड़ा हुल्लड किया." मैंने बताया कि “रूपये तो मैंने उसको दे दिये थे.” मतलब साफ़ था कि वह लड़का मवाली था. मुझे उसका नाम याद था अत: मैं उसकी तलाश में तुरन्त निकल पड़ा.
कॉलोनी के बीच में कोऑपरेटिव स्टोर के पास एक पान की दूकान पर मैंने अब्बास के बारे में पूछा तो उसने मुझे उस साइकिल की दूकान का सही पता बता दिया जहाँ उसकी बैठक होती थी. पान वाले ने यह भी बताया कि ये लड़के बदमाश हैं, इनसे बच कर रहिये.” मैं सीधे साइकिल की दूकान पर पहुँचा, वहाँ मुझे अब्बास बैठा मिल गया. उसके साथ ४-५ नौजवान और भी थे. मैंने आव देखा ना ताव अब्बास का हाथ पकड़ कर बाहर खींचा और दो थप्पड़ रसीद कर दिये. उसकी हिमायत में एक और उठा तो मैंने उसे भी एक झापड मार दिया. अब्बास कांपने लगा. मैंने कहा”निकाल रूपये.” उसने पांच रूपये निकाल कर मुझे दे दिये. मैंने उससे कहा, “अब बता अपने दोस्तों को मैंने तुझे क्यों मारा?”
मैंने जब सारी बात बताई तो सबको जैसे सांप सूंघ गया हो. मैं अपने क्वार्टर पर लौट आया.
इस घटना ने मुझे फैक्ट्री के अन्दर-बाहर एक चर्चित व्यक्ति बना दिया. मुझे ‘दादा’ के रूप में देखा जाने लगा, जो बाद में वहाँ पर मेरे युनियन नेता बनने में सहायक सिद्ध हुआ और चार सालों तक किसी असामाजिक तत्व ने मुझसे सामना करने की हिमाकत नहीं की.
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वाह, प्रथम परिचय में नियम स्पष्ट हो जाने चाहिये।
जवाब देंहटाएं"सलाम शाहाबाद" लेख पढ़कर आपने हमारी १९९०-९१ की यादों को ताजा कर दिया.वाड़ी सीमेंट फैक्ट्री से स्थानांतरण होने पर,मुझे Mgr Q & P C के पद पर कार्य करने का सौभाग्य यही पे मिला. एक बात का जिक्र करना चाहूँगा की जब यहाँ से हमारा मदुक्कारै स्थानांतरण हुआ तब गुरुनाथजी (मिनिस्टर होने के पाहिले ) स्वीट का पैकेट देने वाड़ी स्टेशन बिदा करने आये थे.
जवाब देंहटाएंभास्कर आगटे
कितना अच्छा हो सब लोग ऐसा ही करें !
जवाब देंहटाएंवाह, ज़रूरी था।
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