इस्लाम धर्म में वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा तो नहीं है, पर जो आदमी जैसा पेशा करता है या जिसका जो खानदानी धन्धा होता है, उसी के अनुसार उसकी जाति बन गयी है. कुछ देश-काल का भी प्रभाव रहा है क्योंकि मुग़ल काल में बहुत से हिन्दुओं का धर्मांतरण हुआ था और उनके बहुत सी रीति रिवाज व आस्थाएं छूट नहीं पाए.
चाचा जलेब खां अब तो अस्सी साल की उमर पार कर गए हैं. वे हमारी म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद पर तैनात थे, उनके अलावा और पाँच लोग थे जो चमड़े के मशकों में कुँवे, बावडी, तालाब, या नदी से पानी भर के पीठ-कंधे में लाद कर लाते और घरों में पानी भर जाते थे. वे मेहतर को साथ लेकर गली की नालियों को धुलवाया भी करते थे. कारण यह था कि तब घरों में नल नहीं होते थे, पम्पों का इस्तेमाल भी नहीं हो सकता था क्योंकि बिजली केवल बड़े शहरों में या बरसात में आकाश में दिखाई देती थी. जेनरेटर नाम के यंत्र को भी लोग नहीं जानते थे.
इन ६०-७० वर्षों में दुनिया बहुत बदल गयी है. म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद खतम कर दिये गए हैं. भिश्तियों की आज की पीढ़ी, भिश्ती कहने पर नाखुश होती है. वे अपने नाम के आगे अब्बासी लगाते हैं. कहते हैं कि पैगम्बर साहब के चाचा अब्बास साहब को इनके पूर्वज पानी पिलाते थे और इसी आधार पर अब्बासी कहा जाता है.
चलो, भिश्ती शब्द अब म्यूजियम में चला गया है, पर हिन्दी, उर्दू और फारसी की पुरानी परी कथाओं में भिश्ती शब्द हमेशा ज़िंदा रहेगा. इसकी कुछ मीठी यादें भी अभी ताजी हैं.
बकरी की चमड़ी की बनी मशक ही भिश्ती की पहचान होती थी. इतिहास गवाह है कि मशक द्वारा नदी पार करा ने की मदद के बदले में बादशाह हुमायूँ ने निजाम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाया था.
कहीं कोई चोरी हो जाये तो ‘पुछ्यारा’ (नजूमी) बुलाया जाता था. उसके पास एक ‘हाजरात’ की डिब्बी होती थी, जो काले जूता-पालिश की तरह दिखती थी. ’पुछ्यारा’ मोहल्ले के किसी मासूम/निष्पाप बच्चे को बिठा कर उस काली डिब्बी को खोल कर उसकी आँखों के निकट ले जाकर हिप्नोटाइज सा कर देता था और क्रमवार बोलते हुए निम्न प्रक्रिया अपनाता था:
बच्चे को वह आदमी नजर आने लगता था, जिसके चोर होने की चर्चा उसके घर परिवार या साथियों के बीच सुनी होती थी.
बस चोर का नाम घोषित हो जाता था, यह सब एक टोटका जैसा भी होता था, आसपास किसी कच्चे चोर ने चोरी की हुई होती थी तो वह डर के मारे पहले ही चोरी की हुई चीज को घर में चुपके से कहीं फेंक जाता था. इस टोटके की कोई विश्वसनीयता नहीं होनी चाहिए, लेकिन अनपढ़-श्रद्धानवत लोग तो इसे मानते ही थे. इस प्रकरण में भिश्ती का पात्र भी नाटक में होने से चर्चा में रहता था.
एक आम कहावत भी है कि घर के सारे काम करने में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति को लोग ‘पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर’ की उपाधि से नवाजा करते हैं. इसमें भिश्ती जो चरित्र है वह मुग़ल काल से ही शहरी मुलाजिमों में होता था. जलेब खां तो भिश्ती शब्द की उत्पत्ति ‘बहिश्त’ यानि स्वर्ग से सम्बंधित बताते हैं.
बहरहाल ‘भिश्ती’ शब्द अब ऐतिहासिक हो चला है उसकी जो मशक थी, वह किसी छोटे चौपाये जानवर की साबुत खाल से बनी होती थी. जानवर की खाल को रेगर-चर्मकार इस तरह से बनाते थे कि वह एक बड़ा थैला होता था उसका एक मुँह होता था जिसे भिश्ती अपनी मुट्ठी से भींचे रहता था. उस चमड़े को पूरी तरह से अनुकूलित यानि कंडीशन्ड किया जाता था. मशक के पानी में चमड़े की गन्ध या रस मिश्रित नहीं रहता था.
चाचा जलेब खां अब तो अस्सी साल की उमर पार कर गए हैं. वे हमारी म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद पर तैनात थे, उनके अलावा और पाँच लोग थे जो चमड़े के मशकों में कुँवे, बावडी, तालाब, या नदी से पानी भर के पीठ-कंधे में लाद कर लाते और घरों में पानी भर जाते थे. वे मेहतर को साथ लेकर गली की नालियों को धुलवाया भी करते थे. कारण यह था कि तब घरों में नल नहीं होते थे, पम्पों का इस्तेमाल भी नहीं हो सकता था क्योंकि बिजली केवल बड़े शहरों में या बरसात में आकाश में दिखाई देती थी. जेनरेटर नाम के यंत्र को भी लोग नहीं जानते थे.
इन ६०-७० वर्षों में दुनिया बहुत बदल गयी है. म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद खतम कर दिये गए हैं. भिश्तियों की आज की पीढ़ी, भिश्ती कहने पर नाखुश होती है. वे अपने नाम के आगे अब्बासी लगाते हैं. कहते हैं कि पैगम्बर साहब के चाचा अब्बास साहब को इनके पूर्वज पानी पिलाते थे और इसी आधार पर अब्बासी कहा जाता है.
चलो, भिश्ती शब्द अब म्यूजियम में चला गया है, पर हिन्दी, उर्दू और फारसी की पुरानी परी कथाओं में भिश्ती शब्द हमेशा ज़िंदा रहेगा. इसकी कुछ मीठी यादें भी अभी ताजी हैं.
बकरी की चमड़ी की बनी मशक ही भिश्ती की पहचान होती थी. इतिहास गवाह है कि मशक द्वारा नदी पार करा ने की मदद के बदले में बादशाह हुमायूँ ने निजाम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाया था.
कहीं कोई चोरी हो जाये तो ‘पुछ्यारा’ (नजूमी) बुलाया जाता था. उसके पास एक ‘हाजरात’ की डिब्बी होती थी, जो काले जूता-पालिश की तरह दिखती थी. ’पुछ्यारा’ मोहल्ले के किसी मासूम/निष्पाप बच्चे को बिठा कर उस काली डिब्बी को खोल कर उसकी आँखों के निकट ले जाकर हिप्नोटाइज सा कर देता था और क्रमवार बोलते हुए निम्न प्रक्रिया अपनाता था:
झाड़ूवाले को बुलाओ.
बच्चे को झाड़ूवाला दिखने लगता था.
भिश्ती को बुलाओ.
बच्चे को मशक से पानी छिड़कने वाला गली का भिश्ती दिखने लगता था.
जाजम बिछानेवाले को बुलाओ.
बच्चे को दरी बिछानेवाला एक आदमी दरी बिछाते हुए नजर आता है.
चोर को बुलाओ.
बच्चे को वह आदमी नजर आने लगता था, जिसके चोर होने की चर्चा उसके घर परिवार या साथियों के बीच सुनी होती थी.
बस चोर का नाम घोषित हो जाता था, यह सब एक टोटका जैसा भी होता था, आसपास किसी कच्चे चोर ने चोरी की हुई होती थी तो वह डर के मारे पहले ही चोरी की हुई चीज को घर में चुपके से कहीं फेंक जाता था. इस टोटके की कोई विश्वसनीयता नहीं होनी चाहिए, लेकिन अनपढ़-श्रद्धानवत लोग तो इसे मानते ही थे. इस प्रकरण में भिश्ती का पात्र भी नाटक में होने से चर्चा में रहता था.
एक आम कहावत भी है कि घर के सारे काम करने में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति को लोग ‘पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर’ की उपाधि से नवाजा करते हैं. इसमें भिश्ती जो चरित्र है वह मुग़ल काल से ही शहरी मुलाजिमों में होता था. जलेब खां तो भिश्ती शब्द की उत्पत्ति ‘बहिश्त’ यानि स्वर्ग से सम्बंधित बताते हैं.
बहरहाल ‘भिश्ती’ शब्द अब ऐतिहासिक हो चला है उसकी जो मशक थी, वह किसी छोटे चौपाये जानवर की साबुत खाल से बनी होती थी. जानवर की खाल को रेगर-चर्मकार इस तरह से बनाते थे कि वह एक बड़ा थैला होता था उसका एक मुँह होता था जिसे भिश्ती अपनी मुट्ठी से भींचे रहता था. उस चमड़े को पूरी तरह से अनुकूलित यानि कंडीशन्ड किया जाता था. मशक के पानी में चमड़े की गन्ध या रस मिश्रित नहीं रहता था.
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