सोमवार, 15 अप्रैल 2013

दिल की लगी

अब तो मैं ७५ साल की हो चुकी हूँ. मेरा बचपन का नाम सावित्री था, पर घर-गाँव वाले मुझे साबुली कह कर बुलाते थे. उम्र के इस पड़ाव पर अब मेरे अलावा किसी को भी मेरा नाम याद नहीं है. मैं घर में अब ‘छोटी आमा’ के नाम से पुकारी-जानी जाती हूँ क्योंकि बड़ी आमा यानि मेरी अस्सी वर्षीय जेठानी अभी जीवित है.

हमारा भरा-पूरा परिवार है. जेठानी के पाँच बेटे हैं, जो अलग अलग कारोबार करते हैं. मेरा एक ही बेटा है, जो नैनीताल में एक ऑटोमोबाइल कम्पनी का एजेंट है. सभी बेटे शादीशुदा और अच्छी तरह व्यवस्थित हैं. खेती का काम मेरी जेठानी के दो लड़के देखा करते हैं. हम लोग मूलरूप से पहाड़ी हैं. मेरा बचपन पिथौरागढ़ के सानीउडीयार के पास एक गाँव में बीता था. मेरे पिता स्वर्गीय गोवर्धन तिवारी आर्मी से रिटायर्ड आनरेरी कैप्टेन थे. वे सपरिवार सन १९७० में तराई में आकर बस गए थे. उन्ही की प्रेरणा से मेरे ससुराल वाले, जो कत्यूर घाटी के बाशिंदे थे, भी तराई में आकर खेतीबाड़ी करने लगे थे.

ये तो था मेरा परिचय. अब मैं अपने दिल की लगी आपको सुनाती हूँ. गाँव में आम लड़की की तरह मेरा अल्हड़ बचपन बीत रहा था. पिता मेरी १५ साल की उम्र होते ही शादी की फ़िक्र करने लगे थे. मेरी छोटी बुआ की रिश्तेदारी में बिचला कत्यूर पट्टी में एक शादी योग्य लड़का था, सो, कोई ज्यादा खोज खबर किये बिना ही मेरा विवाह लक्ष्मीदत्त जोशी के साथ तय हो गया. जैसा कि उस उम्र में होता है, मैं बहुत खुश थी, और भविष्य के अपने सुनहरे सपने बुनने लगी थी.

सर्दियों के दिन थे. बारात ढोल-नगाड़ों व बीन-बाजे के साथ सांझ होने से पहले ही मेरे घर के निकट पहुँच गयी थी. मैं चुपके से शॉल ओढ़कर दुमंजिले की छज्जे पर बैठ कर बारात देख रही थी. जब बारात हमारे आगंन में पहुँची तब तक मैं अपने दूल्हे के बारे में अनेक कल्पनाएँ कर रही थी. हमारे पुरोहित पण्डित गंगादत्त पन्त बारात में से किसी जिम्मेदार बाराती से दूल्हे को ‘धूलि-अर्घ’ में लाने के लिए बार बार आग्रह कर रहे थे. उनके अनुसार धूलि-अर्घ का कर्म गो-धूलि  बेला में उजाले के रहते हो जाना चाहिए था. मैंने देखा कि मेरा छोटा भाई एक रंगीन छाता लेकर दूल्हे के स्वागत के लिए गया. आँगन के पहले ही छातों की अदला-बदली की गयी. मेरे होने वाले पति ने अपने मुकुट से झालर एक तरफ किया और ठीक मेरी नजर के सामने आगंन के पटान में लाल मिट्टी से लिपी-पुती जगह पर लकड़ी के पट्टे के ऊपर खड़े हो गए. मेरे पिता ने उनके पैर धोए, पूजन किया . दोनों तरफ के पुरोहित संस्कृत के श्लोकों द्वारा विधिवत गोत्रादि का परिचय कराने लगे, पर मुझे सिर्फ इस बात की उत्कंठा थी कि मेरा दूल्हा देखने में कैसा है? और सच कहूँ उनका चेहरा देखकर बहुत मायूसी सी हुयी. क्योंकि मेरे होने वाले पति का रंग गोरा नहीं था और न चेहरे के नाकनक्श सुन्दर थे. लेकिन अब क्या हो सकता था, भाग्य में जो लिखा था वही हो रहा था.

दूल्हे की छतरी जिस लड़के ने थामी हुई थी, वह बहुत सुन्दर, गोरा, लंबा, छरहरा, घुँघराले बालों वाला था. वह बढ़िया चमकदार अंग्रेजी पोशाक में था. उसका नीला सर्ज का कोट बहुत प्यारा लग रहा था. मैं एक बार ये भी सोचने लगी थी कि ‘काश, ये मेरा दूल्हा होता.’ उसने खड़े खड़े कई बार ऊपर छज्जे की तरफ देखा और मुझसे आँखें मिलाई. मैं सोचने लगी कि अब तो मैं उससे ससुराल में जाकर ही मिल पाऊँगी. विधिवत कन्यादान-विवाह हो गया. मैं अपने ससुराल आ गयी. द्वाराचार, नौलापूजन आदि सभी कर्म हुए. मैं नवेली दुल्हन सबकी आँखों में थी, पर मेरी आँखें उस छतरी वाले लड़के को खोज रही थी. उसकी सलोनी सूरत मेरे मन मस्तिष्क पर छाई हुयी थी, लेकिन वह कहीं भी नजर नहीं आया.

कुछ दिनों के बाद मैंने अपने चोर मन की बात अपने पति से पूछ ही ली कि “वह सूट-बूट वाला लड़का कौन था, जिसने आपका छाता थाम रखा था?” उन्होंने मुझे बताया कि उस लड़के का नाम विमल है, वह बिरादरी के रिश्ते में तुम्हारा देवर लगता है.” मेरे पति ने यह भी बताया कि “वह कॉलेज में पढ़ता है शायद इस गाँव में तुम उससे कभी नहीं मिल पाओगी क्योंकि उसका परिवार कहीं दूर हल्द्वानी में जा बस गया है.” इस प्रकार मेरा वह सपना टूट गया और मैं अपनी गृहस्थी की लम्बी दौड़ में उलझ गयी.

कुछ वर्षों के बाद हमारे गाँव के बहुत से परिवार पहाड़ से पलायन करके पंतनगर के निकट आकर बस गए और खेती करने लगे. बच्चे बड़े होकर पढ़े लिखे और खेती भी करते रहे. घर में समृद्धि आ गयी. पर मेरे मन के एक कोने में तब भी विमल की वह मूरत बैठी हुयी थी. मैं उसे भुला नहीं पाई. कभी कभी एकांत में जब उसका ख़याल आता था तो यों लगता था कि वह मुझसे बतियाना चाहता है, पर वह सब एक कल्पना मात्र थी  क्योंकि वह कहां है? कैसा है? इस बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है. शादी की घटना को अठावन वर्ष बीत चुके है.
***

मैं विमल जोशी, उम्र ७६ वर्ष, श्रम विभाग में काम करते हुए अब से अठारह वर्ष पूर्व लेबर कमिश्नर के रूप में सेवानिवृत्त हो गया था. मैं हल्द्वानी के जज फ़ार्म में रहता हूँ. मेरी पत्नी भी सरकारी इण्टर कॉलेज में प्रिंसिपल थी, उसे भी रिटायर हुए लगभग १५ वर्ष हो चुके हैं. हमारे दोनों बेटे पन्त नगर युनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन करके पिछले आठ-दस सालों से अमेरिका में नौकरी करते हैं. दोनों विवाहित हैं.

मेरी छोटी बहन रजनी पिछले महीने मिलने आई थी. वह अपने परिवार के साथ लखनऊ में स्थाई रूप से रहती है. रजनी की उम्र भी अब सत्तर के करीब हो गयी है. इस बार वह दो सप्ताह हमारे साथ रही. इस उम्र में उसके साथ इतने दिन रहना बहुत अच्छा लगा. हम दोनों भाई-बहन कम उम्र में माता-पिता के साथ बागेश्वर की कत्यूर घाटी से स्थान्तरण करके यहाँ आ बसे थे. फिर पढ़ाई व नौकरी की आपाधापी में साथ रहने का अवसर बहुत कम मिला. इस बार वह आई तो सुकून के साथ बैठ कर खूब गपशप की. बचपन की बहुत सी यादों को ताजा करते रहे. मेरी पत्नी भी हमारी बातों का खूब आनंद लेती रही. रजनी ने बातों बातों में मुझे बताया कि लच्छीदा (लक्ष्मीदत्त) की घरवाली उसे किसी विवाह समारोह में मिली थी और वह मेरी कुशल भी पूछ रही थी. उसने रजनी से कहा “मेरा मन एक बार विमल देवर जी से मिलने का हो रहा है. उनको मैंने केवल अपनी शादी के दिन देखा था.”

लच्छीदा हमारा दस दिनी बिरादर था. गाँव में घर पास पास थे, पर हमारा परिवार गाँव छोड़कर हल्द्वानी शहर में आ गया था. बचपन में साथ साथ खेले, बड़े हुए थे.  उसकी जब शादी हुए तो मैं कॉलेज में पढ़ रहा था और हॉस्टल में रहता था. वहीं से बरात में शामिल होकर सानीउडियार गया था. मैंने बरात के दौरान उसका वरछाता पकड़ा था. उसकी बरात की मुझे धुंधली सी याद है. कोई विशिष्ठ घटना नहीं हुई थी. न  मुझे भाभी यानि लच्छीदा की घरवाली को किसी तरह देखने की कोई याद है. जब रजनी ने लच्छीदा की घरवाली की दिल की लगी सी बात बताई तो एक अनबूझी पहेली सी मन में घूमने लगी. मन तो मन है एक बार उससे मिलने की ठान ली.

मैं अपनी गाड़ी स्वयं चला कर पूछते हुए उन बिरादरों के गांव तक पहुँच गया. वहाँ किसी बच्चे के नामकरण का समारोह हो रहा था. एक लड़के से मैंने लक्ष्मीदत्त के घर का पता पूछा तो उसने बताया कि लच्छीदा को गुजरे एक वर्ष से अधिक हो चुका है. वह मुझे उनके मकान तक ले गया.

सावित्री भाभी नामकरण समारोह में शामिल होने के लिए तैयार हो रही थी. मैंने उनको नमस्कार किया, वह ठिठक कर मुझे देखती ही रह गयी. मैंने कहा, “भाभी, मैं विमल हूँ. आपकी बरात के दिन लच्छीदा का छाता पकड़ने वाला.” वह बहुत भावुक होकर मुझ से लिपट गयी और मेरे चेहरे व खल्वाट सर पर लाड़ करते हुए हाथ फिराने लगी. बडी देर में उसके मुँह से बोल निकले, “बहुत बरस लगा दिये मिलने में तुमने देवर जी, मैं तो तुमको देखने को तरसती हूँ.”

जीवन के आख़िरी प्रहर में पहुँची सावित्री भाभी के उस प्रदर्शित स्नेह व प्यार को क्या नाम दूं? लेकिन ये उसकी ‘दिल की लगी’ ही है जो मुझे भी यहाँ तक खींच कर ले आई थी.
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6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन भावपूर्ण कहानी के रूप में संस्मरण.

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  2. क्‍या कहना पुरुषोत्‍तम जी! नि:शब्‍दता के अतिरिक्‍त यहां और कुछ नहीं है।

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १६ /४/ १३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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