स्वामी परमानंद बचपन में ही वैराग्य को प्राप्त हो गए थे. उनके गुरू ने दीक्षा में एक ही वाक्य दिया, “भगवद गीता से ज्ञान प्राप्त करो.” और उन्होंने लगन के साथ गीताध्ययन शुरू कर दिया. अनेक भाष्य और अनुवाद भी पढ़े. एक स्थिति ऐसी भी आई कि वे निष्काम भक्ति में पूरी तरह रम गए. भगवद गीता के अठारहों अध्याय कंठस्थ तो थे ही, वे उनका धाराप्रवाह गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगे.
छोटी सरयू के तट के निकट एक रमणीय स्थान तल्ल्लीहाट में उन्होंने अपना छोटा सा आश्रम बनाया. सप्ताह में एक दिन भिक्षार्थ निकट के गाँवों में जाते, बाकी समय या तो साधना में लीन रहते अथवा उपस्थित लोगों को गीता का ज्ञान देते रहते. उनकी वाणी में इतनी मिठास थी कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर कृष्णोपदेश सुनने के लिए अधिक से अधिक संख्या में आने लगे.
जब श्रोताओं को संत की भोजन-व्यवस्था के बारे में यह मालूम हुआ कि एक दिन की भिक्षा से सातों दिनों का काम चलाना पड़ता है तो वे भेंटस्वरुप नित्यप्रति कुछ न कुछ अनाज-आटा व खाद्य सामग्री लेकर आने लगे. नतीजा यह हुआ कि बाबा जी की कुटिया में आटा, दाल चावल की पोटलियों का ढेर लग गया. अनाज की उपलब्धि की खुशबू चूहों तक पहुंच गयी. देखते ही देखते दर्जनों चूहे पोटलियों को कुतरने पर आमदा हो गए.
भक्तजनों में इस विपदा की चर्चा हुई तो एक भक्त भण्डार की रक्षार्थ एक बिल्ली ले आया. बिल्ली ने हर्ष पूर्वक एक एक करके चूहों को खाना शुरू कर दिया. इस प्रकार एक महीने में सारे चूहों का अंत हो गया. अब बिल्ली के लिए वैकल्पिक भोजन की व्यवस्था करने के लिए सोचना पड़ा, यानि, अब दूध चाहिए था तो एक आत्मीय भक्त अपनी दुधारू गाय और उसकी बछिया को आश्रम में बाँध गया. गाय तो आ गयी पर चारे का इन्तजाम ज्यादा भारी पड़ने लगा. कुछ दिनों तक तो प्रवचन सुनने वाले गोमाता के लिए भी अपने घरों से चारा लाते रहे, लेकिन इसकी स्थाई व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. आन गाँव की गीतावली नाम की एक विधवा स्त्री को घास की व्यवस्था व गो-सेवा के लिए स्थाई रूप से रखना पड़ा.
मनुष्य का मन है, कई ऋषि-मुनि, देवी-देवता यहाँ तक कि देवताओं के गुरू बृहस्पति भी अपनी वासनाओं पर कमजोर सिद्ध हो गए थे, तो स्वामी परमानंद भी अपनी वैराग्य से फिसल गए. गीतावली ने अगले ही वर्ष एक पुत्र को जन्म दिया. इस प्रेमासक्ति पर लोगों ने बातें तो बनाई पर लोगों का क्या है, कहते ही रहते हैं. सँसार की इस माया में फंसे लोगों को देख कर कभी खी-खी करते हुए, कभी मुस्कुराते हुए या चटखारे लेते हुए धीरे धीरे शांत हो जाते हैं.
एक दिन परमानंद अपने इस छोटे बच्चे को कंधे पर लेकर टहला रहे थे. उनके कुछ श्रद्धालुजन कहीं दूर से आकर सामने टकरा गए. उन्होंने देखा कि गीताध्यायी वैरागी परमानंद जी के कंधे पर जो बालक था वह उनके ऊपर ही मल-मूत्र विसर्जन कर रहा था, जो कि उनके गेरुए वस्त्रों पर धारा बनकर नीचे को बह रहे थे.
परमानंद समझ गए कि इस हालत पर आगंतुक लोग अवश्य प्रश्न करेंगे. इसलिए पहले ही बोल पड़े, “ये देखिये मेरा गीता ज्ञान का नाला अब इस तरह से बहने लगा है:
सभी लोग हैरान होकर सुनते रहे. तर्क से कोई लाभ होने वाला नहीं था क्योंकि तर्क का कोई अंत नहीं होता है. यह भी है कि इस माया रूपी सँसार की रीति है कि आप्त वचन तो बहुत हैं, लेकिन लोग अपनी सुविधानुसार उनका अर्थ निकाल लेते हैं.
जब श्रोताओं को संत की भोजन-व्यवस्था के बारे में यह मालूम हुआ कि एक दिन की भिक्षा से सातों दिनों का काम चलाना पड़ता है तो वे भेंटस्वरुप नित्यप्रति कुछ न कुछ अनाज-आटा व खाद्य सामग्री लेकर आने लगे. नतीजा यह हुआ कि बाबा जी की कुटिया में आटा, दाल चावल की पोटलियों का ढेर लग गया. अनाज की उपलब्धि की खुशबू चूहों तक पहुंच गयी. देखते ही देखते दर्जनों चूहे पोटलियों को कुतरने पर आमदा हो गए.
भक्तजनों में इस विपदा की चर्चा हुई तो एक भक्त भण्डार की रक्षार्थ एक बिल्ली ले आया. बिल्ली ने हर्ष पूर्वक एक एक करके चूहों को खाना शुरू कर दिया. इस प्रकार एक महीने में सारे चूहों का अंत हो गया. अब बिल्ली के लिए वैकल्पिक भोजन की व्यवस्था करने के लिए सोचना पड़ा, यानि, अब दूध चाहिए था तो एक आत्मीय भक्त अपनी दुधारू गाय और उसकी बछिया को आश्रम में बाँध गया. गाय तो आ गयी पर चारे का इन्तजाम ज्यादा भारी पड़ने लगा. कुछ दिनों तक तो प्रवचन सुनने वाले गोमाता के लिए भी अपने घरों से चारा लाते रहे, लेकिन इसकी स्थाई व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. आन गाँव की गीतावली नाम की एक विधवा स्त्री को घास की व्यवस्था व गो-सेवा के लिए स्थाई रूप से रखना पड़ा.
मनुष्य का मन है, कई ऋषि-मुनि, देवी-देवता यहाँ तक कि देवताओं के गुरू बृहस्पति भी अपनी वासनाओं पर कमजोर सिद्ध हो गए थे, तो स्वामी परमानंद भी अपनी वैराग्य से फिसल गए. गीतावली ने अगले ही वर्ष एक पुत्र को जन्म दिया. इस प्रेमासक्ति पर लोगों ने बातें तो बनाई पर लोगों का क्या है, कहते ही रहते हैं. सँसार की इस माया में फंसे लोगों को देख कर कभी खी-खी करते हुए, कभी मुस्कुराते हुए या चटखारे लेते हुए धीरे धीरे शांत हो जाते हैं.
एक दिन परमानंद अपने इस छोटे बच्चे को कंधे पर लेकर टहला रहे थे. उनके कुछ श्रद्धालुजन कहीं दूर से आकर सामने टकरा गए. उन्होंने देखा कि गीताध्यायी वैरागी परमानंद जी के कंधे पर जो बालक था वह उनके ऊपर ही मल-मूत्र विसर्जन कर रहा था, जो कि उनके गेरुए वस्त्रों पर धारा बनकर नीचे को बह रहे थे.
परमानंद समझ गए कि इस हालत पर आगंतुक लोग अवश्य प्रश्न करेंगे. इसलिए पहले ही बोल पड़े, “ये देखिये मेरा गीता ज्ञान का नाला अब इस तरह से बहने लगा है:
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि !
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति !! (अध्याय ३-श्लोक ३३)
अर्थात:
प्राणी सभी प्रकृति के वश में
ज्ञानी भी उसके वश में.
सभी प्रकृति के वशीभूत हैं
निग्रह है किसके वश में.
सभी लोग हैरान होकर सुनते रहे. तर्क से कोई लाभ होने वाला नहीं था क्योंकि तर्क का कोई अंत नहीं होता है. यह भी है कि इस माया रूपी सँसार की रीति है कि आप्त वचन तो बहुत हैं, लेकिन लोग अपनी सुविधानुसार उनका अर्थ निकाल लेते हैं.
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बहुत बढ़िया कथा। वाकई तर्क अन्तहीन है। इसमें पड़ना उचित नहीं है।
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय कथा, बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंबाँधे हमको नित्य प्रकृति रे।
जवाब देंहटाएंprkrti se badakr nhee manaw.
जवाब देंहटाएंBahut sunder aur gyan vardhak
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