इतिहासकार कहते हैं कि ‘हिंदू’ शब्द ‘सिंधु’ का अपभ्रंश है. हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं है. यह तो सनातन धर्म है जो प्राकृतिक रूप से विकसित हुआ है. इसमें वर्ण व्यवस्था के पक्ष या विपक्ष में अनेक प्रकार के तर्क किये जा सकते हैं, पर निष्पक्ष रूप से देखें तो ऐसा लगता है कि सनातन व्यवस्था में बहुत विकृतिया भी प्रवेश करती रही. चार वर्ण--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, सभी कार्य तथा व्यक्ति के चरित्र पर आधारित होते थे, पर धीरे धीरे ये जातियां बन गई और उनमें भी उपजातियां, उपजातियों के पीछे गोत्र की पूंछ, गोत्र की पहचान में गाँव-प्रदेश का इतिहास, इस प्रकार सब उलझता चला गया. गोत्र से अपने को वैदिककालीन पौराणिक ऋषियों-मुनियों की संतान बताया जाता है. इतिहास यह भी बताता है कि आर्य लोग उत्तर-पश्चिम यानि ईरान-अफगानिस्तान की दिशा से आर्यावर्त में आये थे. उत्तर में मंगोलिया व चीन की तरफ से शक और हूँण भी इस देश में आये. यहाँ के आदिवासी द्रविड जातियों से लड़ते-खपते यहीं के होकर रह गए. बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों/ शासकों के तलवार के जोर पर व दबाव में बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन हुए. अंत में यूरोप से व्यापारियों के साथ ईसाईयत आई जिन्होंने धर्म प्रचार को भी अपने मिशन में रखा था. सेवा-सुश्रुषा और लालच देकर देश के पूर्वी व दक्षिणी इलाकों तथा गरीब आदिवासियों में अपनी जगह बना ली.
सनातन धर्म तो बहुत पहले खतम हो गया होता अगर जगतगुरु आदि शंकराचार्य इसे नवजीवन देने के लिए चारों ओर मर्यादाओं के खूंटे ना बाँधते.
मध्यकाल से बहुत पहले ही सातवीं शताब्दी में बौद्ध व जैन धर्मों का प्रादुर्भाव इसलिए हुआ कि सनातन धर्म में बहुत पाखण्ड घुस आया था. यह दीगर बात है कि मूर्तिपूजा जैसे विश्वासों का विरोध करने वाले ये धर्मावलंबी भी अपने नए देवताओं की मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे. इसी तरह बाद में सिख पंथ को भी गुरुओं ने बहुत पवित्रता में ढालते हुए हिंदुओं के रक्षार्थ खड़ा किया. लेकिन अब वे हिन्दू धर्म से अपना कोई सीधा नाता नहीं मानते है. उनका अलग धर्म हो गया है. आज हमारे सभी धर्मों में कट्टरता आ जाने से आपस में द्वेष भावना और अविश्वास रहता है. कहने को सर्व धर्म समभाव का सिद्धांत है, पर असल में ऐसा है नहीं. रही सही कसर वर्तमान राजनीति ने पूरी कर दी है.
इस्लाम में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत के सारे मुसलमान भी जातियों में बंटे हुए हैं. अपनी पहचान बताने के लिए कोई शेख, पठान, अंसारी, हनीफी, अब्बासी, कुरैशी, फारुखी, या नकवी आदि जातिसूचक सरनेम लगाते हैं.
शिया सुन्नी फिरके हैं, अहमदियों को तो मुसलमान माना ही नहीं जा रहा है, यहाँ तक कि मुसलमान बुद्धिजीवी देवबंदी अथवा बरेलवी के नाम से अलग अलग राग अलापते हैं. कुल मिलाकर ऐसा लगता है जिस प्रकार भारतीय समाज का गठन हुआ है, उसमें मुसलमानों पर हिंदुओं की जाति संरचना का गहरा प्रभाव है. स्वाभाविक भी लगता है क्योंकि अधिकतर मुसलमानों के वंश हिंदुओं से ही परिवर्तित हैं. हमारे एक प्राध्यापक का नाम शफीउल्ला तिवारी था. ऐसे कई उदाहरण और भी हैं. इस प्रकार देश, काल या समाज की छाया जा नहीं सकती है.
सनातन धर्म तो बहुत पहले खतम हो गया होता अगर जगतगुरु आदि शंकराचार्य इसे नवजीवन देने के लिए चारों ओर मर्यादाओं के खूंटे ना बाँधते.
मध्यकाल से बहुत पहले ही सातवीं शताब्दी में बौद्ध व जैन धर्मों का प्रादुर्भाव इसलिए हुआ कि सनातन धर्म में बहुत पाखण्ड घुस आया था. यह दीगर बात है कि मूर्तिपूजा जैसे विश्वासों का विरोध करने वाले ये धर्मावलंबी भी अपने नए देवताओं की मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे. इसी तरह बाद में सिख पंथ को भी गुरुओं ने बहुत पवित्रता में ढालते हुए हिंदुओं के रक्षार्थ खड़ा किया. लेकिन अब वे हिन्दू धर्म से अपना कोई सीधा नाता नहीं मानते है. उनका अलग धर्म हो गया है. आज हमारे सभी धर्मों में कट्टरता आ जाने से आपस में द्वेष भावना और अविश्वास रहता है. कहने को सर्व धर्म समभाव का सिद्धांत है, पर असल में ऐसा है नहीं. रही सही कसर वर्तमान राजनीति ने पूरी कर दी है.
इस्लाम में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत के सारे मुसलमान भी जातियों में बंटे हुए हैं. अपनी पहचान बताने के लिए कोई शेख, पठान, अंसारी, हनीफी, अब्बासी, कुरैशी, फारुखी, या नकवी आदि जातिसूचक सरनेम लगाते हैं.
शिया सुन्नी फिरके हैं, अहमदियों को तो मुसलमान माना ही नहीं जा रहा है, यहाँ तक कि मुसलमान बुद्धिजीवी देवबंदी अथवा बरेलवी के नाम से अलग अलग राग अलापते हैं. कुल मिलाकर ऐसा लगता है जिस प्रकार भारतीय समाज का गठन हुआ है, उसमें मुसलमानों पर हिंदुओं की जाति संरचना का गहरा प्रभाव है. स्वाभाविक भी लगता है क्योंकि अधिकतर मुसलमानों के वंश हिंदुओं से ही परिवर्तित हैं. हमारे एक प्राध्यापक का नाम शफीउल्ला तिवारी था. ऐसे कई उदाहरण और भी हैं. इस प्रकार देश, काल या समाज की छाया जा नहीं सकती है.
यहाँ किसी धर्म को अच्छा या बुरा बताने के लिए समालोचना नहीं हो रही है, पर यह जरूरी है कि सामाजिक सुधार लाने के उद्देश्य से सभी को अपनी खिड़की खुली रखनी चाहिए, अन्यथा जो प्रतिगामी व कट्टरपंथी बने रहेंगे वे हर क्षेत्र में पिछड़ते चले जायेंगे.
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सटीक विश्लेषण !!
जवाब देंहटाएंमानव का मन बर पल प्रकृति को विभाजित करता रहता है, भोग्य वस्तु सा उसे छील छील कर खाने में। मानव सभ्यता को भी छील कर खा जायेंगे सब।
जवाब देंहटाएंस्वाभाविक भी लगता है क्योंकि अधिकतर मुसलमानों के वंश हिंदुओं से ही परिवर्तित हैं.........विचारणीय आलेख।
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