जिस तरह श्राद्ध पक्ष में श्राद्धकर्मी पंडितों तथा काले कौवों की मांग व क़द्र एकाएक बढ़ जाती है, उसी तरह स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर नेताओं की भी बहुत पूछ होती है क्योंकि गली-गली, गाँव-गाँव में अब स्कूल हो गए हैं. सभी स्कूल वाले राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत होकर अपने स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया करते हैं. समारोह को चार चाँद लगाने के लिए एक मुख्य अतिथि यानि चीफ गेस्ट की तलाश भी की जाती है.
ये सन १९९२ या ९३ की बात है. मैं तब लाखेरी सीमेंट उद्योग के कर्मचारियों की युनियन का अध्यक्ष हुआ करता था. स्थानीय अखबारों में कभी कभी मेरा नाम भी छप जाया करता था, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र अपनी सीमेंट कम्पनी के कर्मचारियों व मैनेजमेंट से सम्बन्धों तक ही सीमित होता था. मैं कोशिश करता था कि राजनैतिक दलों के कार्यकलापों से दूरी बना कर रखी जाये. फिर भी विशिष्ट मौकों के लिए एक जोड़ी खादी का लंबा कुर्ता-पायजामा सिलवा रखा था (जो अभी तक अच्छी अवस्था में सुरक्षित है.)
१५ अगस्त से कुछ दिन पूर्व एक सुहानी सुबह मेरे घर पर एक जीप रुकी, जिसमें से एक संभ्रांत सज्जन राजस्थानी वेशभूषा में उतरे. उनके साथ आये व्यक्ति ने उनका परिचय दिया के वे ‘बड़ा खेड़ा’ के जागीरदार- ‘बड़े बना’ हैं (राजपुत्रों को ‘बना’ कहा जाता है). नाम मुझे अब याद नहीं आ रहा है क्योंकि मेरी स्मरणशक्ति अब जवाब देने लगी है. मैं कम्पनी के कैम्पस में निवास करता था उनका चाय-पानी से स्वागत किया. बातों बातों में उन्होंने अपने गाँव के मिडिल स्कूल के स्वतन्त्रता दिवस समारोह के लिए मुझसे इस ढंग से ‘चीफ गेस्ट’ बनने का अनुरोध किया कि मैं मना नहीं कर सका. वे अपनी सफल वार्ता करके चले गए, पर मैं चिंता में पड़ गया क्योंकि बड़ा खेडा १०-१२ किलोमीटर दूर था और ऊंचा नीचा धूल-भरा रास्ता था. उस बार बहुत दिनों से बारिश भी नहीं हुयी थी. मैं अपनी साइकिल या स्कूटर से वहाँ नहीं पहुँच सकता था (तब मेरे पास चौपहिया वाहन नहीं हुआ करता था) क्योंकि रास्ता बैलगाड़ी वाला था.
मैंने अपनी समस्या फैक्ट्री के तत्कालीन जनरल मैनेजर स्वनामधन्य श्री प्रेम कुमार काकू जी को बताई और कहा, “जिंदगी में पहली बार ‘चीफ गेस्ट’ बनने का मौक़ा मिल रहा है,” तो उन्होंने सहर्ष उस दिन कम्पनी की जीप ले जाने की स्वीकृति दे दी. मेरी बाछें खिल गयी और मैं इस राष्ट्रीय दिवस पर अपने भाषण की तैयारी में लग गया.
जब पूरी जीप ही मिल गई तो मैंने अपनी श्रीमती से कहा, “तुम भी चलो, राजस्थान के गाँव भी देख आओगी और चीफ गेस्ट के सत्कार का भी अनुभव करोगी.” वह उत्सुकता पूर्वक तैयार हो गयी. अवसर के अनुकूल सफ़ेद सूती साड़ी पहन कर मेरे साथ जीप में बैठ गयी. मैं समझता हूँ कि चीफ गेस्ट बनने का जितना रोमांच मुझे था उससे ज्यादा ‘चीफ गेस्ट की पत्नी’ होने का रोमांच मेरी श्रीमती को हो रहा था. रास्ते में इतनी धूल उड़ती चली कि बड़ा खेड़ा पहुँचने तक हम और हमारे कपड़ों का हुलिया बिगड़ गया.
बड़ा खेड़ा, बूंदी रियासत के हाड़ा राजा-राजपूतों के वंशजों/रिश्तेदारों का बहुत पुराना ठिकाना है. पहले समय में इस इलाके में पानी की बड़ी किल्लत थी. बड़ा खेड़ा के पास एक गाँव है, ‘लबान’ जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ लोग पानी नहीं पिलाते थे इसलिए धरती शापित हो गयी थी. किवदंती है कि पौराणिक काल में जब श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ करवाने इस रास्ते से गुजर रहा था तो उसने उनसे बोझ उठाने का पारिश्रमिक माँगा था, पर यह सब पुरानी बातें हैं अब तो चम्बल नदी का पानी यहाँ नहरों से आता है. काली मिट्टी में खूब गेहूं, धान, सरसों व अन्य फसलें उगती हैं किसान समृद्ध और खुशहाल हैं.
बड़ा खेड़ा बड़ा गाँव है. यहाँ मेरे परम मित्र भूतपूर्व कांग्रेसी एम.एल.ए. स्वर्गीय नंदलाल बैरवा का ससुराल भी है तथा उनके बाद हुए भाजपा के वर्तमान एम.एल.ए. श्री बाबूलाल वर्मा का ननिहाल भी है. बाबूलाल वर्मा के पिता स्व. मांगीलाल भी फैक्ट्री के कर्मचारी थे और ये दोनों परिवार मेरे नजदीकी रहे हैं. बाबूलाल वर्मा आज भी मुझे ‘चाचा जी’ कह कर संबोधित करते हैं. बड़ा खेड़ा से हमारे कारखाने में बहुत से कामगार भी आते थे इसलिए मैं बहुत खुशी अनुभव कर रहा था.
जब हमारी जीप बड़ा खेड़ा स्कूल पर पहुँची तो देखा, लगभग ३०० बच्चे व दो सौ के करीब ग्रामीण नर-नारियों की भीड़ खुले खेल के मैदान में उपस्थित थे. बच्चे धूल भरे मैदान में लाइन से बैठे थे. हमारे जाते ही उठ खड़े हुए और एक मास्टर जी माइक पर से ‘भारत माता की जय, महात्मा गाँधी की जय और चीफ गेस्ट-जिंदाबाद’ के नारे लगवा रहे थे.
कार्यक्रम के संयोजक ‘छोटे बना’ (नाम उनका भी याद नहीं रहा, वे पंचायत के सरपंच भी थे) तथा अन्य विशिष्ट जन पूरी राजपूती आन-बान और शान से शोभा बढ़ा रहे थे. स्कूल के प्रधानाध्यापक, बड़े बना, छोटे बना और कुछ अन्य बुजुर्गों व बालक बालिकाओं ने मुझे और मेरी श्रीमती को मालाएं पहनाई, दिल गदगद हो गया.
चिलचिलाती धूप में खुले मैदान में कार्यक्रम, ध्वजारोहण व राष्ट्रीय गान से शुरू हुए, और बच्चों द्वारा कविता गीत और नाटक प्रस्तुत किये जाने लगे. उपस्थित जन समूह खूब आनंद लेते हुए तालियाँ बजा रहे थे. पर गर्मी के मारे मैं और मेरी पत्नी बेहाल हुए जा रहे थे. मैंने एक अध्यापक जी को पास बुला कर कहा, “मेरी श्रीमती को कहीं छाया में बिठा कर आइये,” मैदान के एक कोने में एक छोटा सा नीम का घना छायादार पेड़ था. वह अध्यापक एक कुर्सी उठाकर ले गया और उसे वहाँ बिठा आया. मैं भी छाया को तरस रहा था क्योंकि मेरे सर की खिड़की बाल न होने से ऊपर से खुली हुई थी. मैंने रुमाल से ढकने का प्रयास जरूर किया, लेकिन बहुत बेचैनी होती रही, पानी पीते रहा.
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ भाषणों का दौर, पहले छोटे बना, फिर बड़े बना और प्रधानाध्यापक बारी बारी से बोलते रहे. बड़ी मुश्किल से माइक छोड़ पा रहे थे. उन सबके भाषणों में एक बात बार बार दोहराई जा रही थी कि बच्चों के लिए स्कूल में कमरे कम पड़ते हैं. अंत में बड़े बना ने कहा, “अब चीफ गेस्ट पाण्डेय जी स्कूल को अपनी फैक्ट्री की तरफ से आर्थिक अनुदान की घोषणा करेंगे. हमें आशा है कि इतनी राशि जरूर स्वीकृत करके जायेंगे जिससे स्कूल में कम से कम एक कमरा अवश्य बन सके.”
ये सन १९९२ या ९३ की बात है. मैं तब लाखेरी सीमेंट उद्योग के कर्मचारियों की युनियन का अध्यक्ष हुआ करता था. स्थानीय अखबारों में कभी कभी मेरा नाम भी छप जाया करता था, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र अपनी सीमेंट कम्पनी के कर्मचारियों व मैनेजमेंट से सम्बन्धों तक ही सीमित होता था. मैं कोशिश करता था कि राजनैतिक दलों के कार्यकलापों से दूरी बना कर रखी जाये. फिर भी विशिष्ट मौकों के लिए एक जोड़ी खादी का लंबा कुर्ता-पायजामा सिलवा रखा था (जो अभी तक अच्छी अवस्था में सुरक्षित है.)
१५ अगस्त से कुछ दिन पूर्व एक सुहानी सुबह मेरे घर पर एक जीप रुकी, जिसमें से एक संभ्रांत सज्जन राजस्थानी वेशभूषा में उतरे. उनके साथ आये व्यक्ति ने उनका परिचय दिया के वे ‘बड़ा खेड़ा’ के जागीरदार- ‘बड़े बना’ हैं (राजपुत्रों को ‘बना’ कहा जाता है). नाम मुझे अब याद नहीं आ रहा है क्योंकि मेरी स्मरणशक्ति अब जवाब देने लगी है. मैं कम्पनी के कैम्पस में निवास करता था उनका चाय-पानी से स्वागत किया. बातों बातों में उन्होंने अपने गाँव के मिडिल स्कूल के स्वतन्त्रता दिवस समारोह के लिए मुझसे इस ढंग से ‘चीफ गेस्ट’ बनने का अनुरोध किया कि मैं मना नहीं कर सका. वे अपनी सफल वार्ता करके चले गए, पर मैं चिंता में पड़ गया क्योंकि बड़ा खेडा १०-१२ किलोमीटर दूर था और ऊंचा नीचा धूल-भरा रास्ता था. उस बार बहुत दिनों से बारिश भी नहीं हुयी थी. मैं अपनी साइकिल या स्कूटर से वहाँ नहीं पहुँच सकता था (तब मेरे पास चौपहिया वाहन नहीं हुआ करता था) क्योंकि रास्ता बैलगाड़ी वाला था.
मैंने अपनी समस्या फैक्ट्री के तत्कालीन जनरल मैनेजर स्वनामधन्य श्री प्रेम कुमार काकू जी को बताई और कहा, “जिंदगी में पहली बार ‘चीफ गेस्ट’ बनने का मौक़ा मिल रहा है,” तो उन्होंने सहर्ष उस दिन कम्पनी की जीप ले जाने की स्वीकृति दे दी. मेरी बाछें खिल गयी और मैं इस राष्ट्रीय दिवस पर अपने भाषण की तैयारी में लग गया.
जब पूरी जीप ही मिल गई तो मैंने अपनी श्रीमती से कहा, “तुम भी चलो, राजस्थान के गाँव भी देख आओगी और चीफ गेस्ट के सत्कार का भी अनुभव करोगी.” वह उत्सुकता पूर्वक तैयार हो गयी. अवसर के अनुकूल सफ़ेद सूती साड़ी पहन कर मेरे साथ जीप में बैठ गयी. मैं समझता हूँ कि चीफ गेस्ट बनने का जितना रोमांच मुझे था उससे ज्यादा ‘चीफ गेस्ट की पत्नी’ होने का रोमांच मेरी श्रीमती को हो रहा था. रास्ते में इतनी धूल उड़ती चली कि बड़ा खेड़ा पहुँचने तक हम और हमारे कपड़ों का हुलिया बिगड़ गया.
बड़ा खेड़ा, बूंदी रियासत के हाड़ा राजा-राजपूतों के वंशजों/रिश्तेदारों का बहुत पुराना ठिकाना है. पहले समय में इस इलाके में पानी की बड़ी किल्लत थी. बड़ा खेड़ा के पास एक गाँव है, ‘लबान’ जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ लोग पानी नहीं पिलाते थे इसलिए धरती शापित हो गयी थी. किवदंती है कि पौराणिक काल में जब श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ करवाने इस रास्ते से गुजर रहा था तो उसने उनसे बोझ उठाने का पारिश्रमिक माँगा था, पर यह सब पुरानी बातें हैं अब तो चम्बल नदी का पानी यहाँ नहरों से आता है. काली मिट्टी में खूब गेहूं, धान, सरसों व अन्य फसलें उगती हैं किसान समृद्ध और खुशहाल हैं.
बड़ा खेड़ा बड़ा गाँव है. यहाँ मेरे परम मित्र भूतपूर्व कांग्रेसी एम.एल.ए. स्वर्गीय नंदलाल बैरवा का ससुराल भी है तथा उनके बाद हुए भाजपा के वर्तमान एम.एल.ए. श्री बाबूलाल वर्मा का ननिहाल भी है. बाबूलाल वर्मा के पिता स्व. मांगीलाल भी फैक्ट्री के कर्मचारी थे और ये दोनों परिवार मेरे नजदीकी रहे हैं. बाबूलाल वर्मा आज भी मुझे ‘चाचा जी’ कह कर संबोधित करते हैं. बड़ा खेड़ा से हमारे कारखाने में बहुत से कामगार भी आते थे इसलिए मैं बहुत खुशी अनुभव कर रहा था.
जब हमारी जीप बड़ा खेड़ा स्कूल पर पहुँची तो देखा, लगभग ३०० बच्चे व दो सौ के करीब ग्रामीण नर-नारियों की भीड़ खुले खेल के मैदान में उपस्थित थे. बच्चे धूल भरे मैदान में लाइन से बैठे थे. हमारे जाते ही उठ खड़े हुए और एक मास्टर जी माइक पर से ‘भारत माता की जय, महात्मा गाँधी की जय और चीफ गेस्ट-जिंदाबाद’ के नारे लगवा रहे थे.
कार्यक्रम के संयोजक ‘छोटे बना’ (नाम उनका भी याद नहीं रहा, वे पंचायत के सरपंच भी थे) तथा अन्य विशिष्ट जन पूरी राजपूती आन-बान और शान से शोभा बढ़ा रहे थे. स्कूल के प्रधानाध्यापक, बड़े बना, छोटे बना और कुछ अन्य बुजुर्गों व बालक बालिकाओं ने मुझे और मेरी श्रीमती को मालाएं पहनाई, दिल गदगद हो गया.
चिलचिलाती धूप में खुले मैदान में कार्यक्रम, ध्वजारोहण व राष्ट्रीय गान से शुरू हुए, और बच्चों द्वारा कविता गीत और नाटक प्रस्तुत किये जाने लगे. उपस्थित जन समूह खूब आनंद लेते हुए तालियाँ बजा रहे थे. पर गर्मी के मारे मैं और मेरी पत्नी बेहाल हुए जा रहे थे. मैंने एक अध्यापक जी को पास बुला कर कहा, “मेरी श्रीमती को कहीं छाया में बिठा कर आइये,” मैदान के एक कोने में एक छोटा सा नीम का घना छायादार पेड़ था. वह अध्यापक एक कुर्सी उठाकर ले गया और उसे वहाँ बिठा आया. मैं भी छाया को तरस रहा था क्योंकि मेरे सर की खिड़की बाल न होने से ऊपर से खुली हुई थी. मैंने रुमाल से ढकने का प्रयास जरूर किया, लेकिन बहुत बेचैनी होती रही, पानी पीते रहा.
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ भाषणों का दौर, पहले छोटे बना, फिर बड़े बना और प्रधानाध्यापक बारी बारी से बोलते रहे. बड़ी मुश्किल से माइक छोड़ पा रहे थे. उन सबके भाषणों में एक बात बार बार दोहराई जा रही थी कि बच्चों के लिए स्कूल में कमरे कम पड़ते हैं. अंत में बड़े बना ने कहा, “अब चीफ गेस्ट पाण्डेय जी स्कूल को अपनी फैक्ट्री की तरफ से आर्थिक अनुदान की घोषणा करेंगे. हमें आशा है कि इतनी राशि जरूर स्वीकृत करके जायेंगे जिससे स्कूल में कम से कम एक कमरा अवश्य बन सके.”
यह सुन कर मैं सकते में आ गया, पर स्थिति को सँभालते हुए मैंने बिना ज्यादा लागलपेट के सभी को स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा, “बड़े बना जी ने पहले इशारा किया होता तो मैं अपनी चेक बुक साथ लेकर आता. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के सभी विद्यार्थियों को एक एक अलग कमरा मिले, इसके लिए जो भी अंशदान की जरूरत होगी स्वीकृत कर दी जायेगी.” बच्चों ने जोर से ताली बजाई , देखा देखी बात का अर्थ न समझते हुए भी उपस्थित जन समूह की हथेलियाँ भी बजने लगी. मैंने सभी को धन्यवाद देते हुए समारोह समापन की घोषणा भी कर दी. कार्यक्रम समाप्ति के बाद हमें ऊंचे टीले पर बनाजी की हवेली पर ले जाकर नमकीन सेवड़े, जलेबी और चाय का अल्पाहार कराया गया.
उनसे विदा लेकर करीब तीन बजे लाखेरी वापस आ सके. सपने संजोकर गए थे कि ठाकुर साहब के यहाँ दावत उड़ायेंगे, पर घर आकर खिचड़ी बनाई गयी, ठन्डे पानी से नहाकर शीतोपचार किया और पस्त होकर पड़ गए.
इसलिए उसके बाद से मैं कहीं भी ‘चीफ गेस्ट’ बनने से सीधे सीधे इनकार करता रहा हूँ..
उनसे विदा लेकर करीब तीन बजे लाखेरी वापस आ सके. सपने संजोकर गए थे कि ठाकुर साहब के यहाँ दावत उड़ायेंगे, पर घर आकर खिचड़ी बनाई गयी, ठन्डे पानी से नहाकर शीतोपचार किया और पस्त होकर पड़ गए.
इसलिए उसके बाद से मैं कहीं भी ‘चीफ गेस्ट’ बनने से सीधे सीधे इनकार करता रहा हूँ..
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जवाब देंहटाएंइतना सजीव संस्मरण आँखों देखा और देह कमल से भोगा अनुभव आपने शेयर किया मन गद गद हुआ पढ़के आपकी लेखनी की सहज ताकत और अंदाज़े बयाँ .
मुख्यातिथि का ऐसा सत्कार
जवाब देंहटाएंदिया कुछ नहीं मांगा बारंबार...........सुन्दर संस्मरण।
आपकी इस प्रविष्टि क़ी चर्चा सोमवार [22.4.2013] के 'एक ही गुज़ारिश':चर्चामंच 1222 पर लिंक क़ी गई है,अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए पधारे आपका स्वागत है |
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ..
sundar sansmaran......
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगा संस्मरण
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