बुधवार, 14 दिसंबर 2011

भूत विसर्जन


उत्तरांचल को देवभूमि भी कहा गया है. देव भूमि इसलिए कि इस प्रदेश में मंदिरों के रूप में अनेक आस्था के केन्द्र स्थापित हैं. इसी के पूर्वी भाग में कूर्मांचल है और कूर्मांचल में एक खास इलाका है, जिसे नाग देश भी कहा जाता है. अनेक नाग देवताओं के मंदिर भी यहाँ हैं. नाग देवताओं के अलावा अनेक ग्राम देवताओं की भी स्थापना ईष्ट देवों के रूप में स्थान स्थान पर की गयी है. देवताओं में कई यक्ष-गंधर्वों के अलावा नौलिंग देवता, भोलानाथ देवता (शंकर महादेव नहीं,) भोलानाथ के भान्जे गोलू देवता, नेपाल से आये हुए गंगनाथ देव और अनेकानेक कल्याणकारी महापुरुष देवता के रूप में जगह जगह स्थापित हैं, जिन पर स्थानीय लोगों की जबरदस्त आस्था व विश्वास है. दु:ख-सुख में सभी लोग अन्ध भक्त हो कर इन्हीं के प्रति समर्पित भाव से पूजा पाठ करते रहते हैं.

बीमार होने पर या किसी भी विपत्ति के आने पर सबसे पहले देवता के द्वार पर ही हाथ जोड़े जाते हैं, और जोत जलाई जाती है. अशिक्षा व अज्ञानता के कारण पहले के लोग भी देवताओं के डंगरिये, जगरिये व पुछियारों के माध्यम से जागर पूजा अनुष्ठान करते थे. बहुत जगह तो आज भी ये परम्परा जीवित है.

कांडा और चौकोडी के बीच एक ब्राह्मणों का गाँव है, पचार, जहाँ कर्मकांडी वृति वाले पांडे लोगों की बिरादरी ज्यादा थी वे लोग पौराणिक आस्थाओं-व्यवस्थाओं के अधीन अन्ध विश्वासी संस्कारों से त्रस्त भी थे. यद्यपि कांडा नजदीक में था जो कि पिछली सदी के दूसरे दशक से ही शिक्षा का केन्द्र रहा और गाँव के अनेक लोग पढ़ लिख कर देश-विदेश तक में नौकरी करने भी पहुंच गए. बहुत से लोग नए जमाने की हवा के साथ पलायन करके नैनीताल जिले के मैदानी इलाकों में बस गए, लेकिन आस्था व भय का दौर ऐसा है कि वर्तमान पीढ़ी भी साल में एक बार ग्राम देवता की पूजा के लिए पुश्तैनी गाँव आकर देवताओं का आशीर्वाद अवश्य लेती है.

अन्ध विश्वासों के कारण कुछ विकृतिया भी आती गयी जैसे कोई बीमार हो जाये तो पुछ्यार बता दें कि अमुक मृत व्यक्ति या कई पीढ़ी पहले के पितरों की अतृप्त आत्मा इसके पीछे है तो उसके नाम का थान (खड़े पत्थरों का एक छोटा सा मंदिर) स्थापित करके पूजा अर्चना की जाने लगी. एक दौर ऐसा भी आ गया कि गाँव में परेशान करने वाली मृतात्माओं/भूतों के २०-२५ थान बन गए.

पंडित हरिदत्त व शिवदत्त दोनों भाई अपने परिवार पर आई हुई दुरात्माओं की छाया से बहुत दु:खी थे. कभी कोई बीमार तो कभी कोई बीमार रहता था. भैंस ब्याई, पर दूध नहीं दे रही थी. थोरी मर गयी थी. एक बैल जंगल में फिसल कर दम तोड़ चुका था. पुछियार ने बताया कि ये सब दादा-परदादा की अतृप्त आत्माओं की करामात है. अत: जागर लगा कर उनका आह्वान किया गया तदनुसार उनका थान स्थापित किया गया, पूजा की गयी लेकिन पारिवारिक परेशानियां कम नहीं हुई. ग्राम पंचायत में इस मुद्दे पर भी विचार हुआ कि गाँव पर आई विपत्तियों के निराकरण के लिए क्या किया जाये?

ग्राम सेवक गोपालदत्त, जो गरुड़-बैजनाथ के निकट किसी गाँव का रहने वाला था, ने बताया कि भेटा (कौसानी के निकट) गाँव के पंडित गोविन्द बल्लभ लोहनी ऐसे मामलों में स्थाई समाधान करने में माहिर हैं तो दो आदमी भेजकर उनको सादर बुलावाया गया.

लोहनी जी मनोविज्ञान के प्राध्यापक रहे थे. रिटायरमेंट के बाद वे लोगों के इस तरह की समस्याओं का निराकरण करने में लगे थे. पूरे इलाके में उनकी इस प्रतिभा व ज्ञान की चर्चाए होने लगी थी. वे कोई फीस भी नहीं लेते थे इसलिए लोगों में उनके प्रति श्रद्धाभाव भी था.

लोहनी जी ने पचार गाँव आकर सारी दास्तान सुनी, जगह जगह भूत-प्रेतों के थान बने हुए देखे. उनको ये देख कर दु:ख और आश्चर्य हुआ कि इस वैज्ञानिक युग में पढ़े लिखे लोगों में भी इस कदर अन्धविश्वास घर किया हुआ है. उन्होंने उनकी मूल बीमारी को समझ लिया. सारे ग्राम वासियों से एक विशेष पूजा करवाई गयी. जिन जिन भूत/प्रेत्माओं के थान बने थे उन सबके पुतले बनाए गए. सब पुतलों को एक साथ बागेश्वर के सरयू-गोमती के संगम पर लाकर जल में विसर्जित कर दिया गया. थानों के सब पत्थर हटा दिये गए.

पचार के ही एक पंडित जी बताते हैं कि तब से गाँव में कोई भूत-पिचास/प्रेतात्मा पूजन नहीं होता है. लोग भय मुक्त हो गए है.
(ये विवरण सत्य आधारित है,व्यक्तियों के नाम काल्पनिक हैं.)
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5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया !!! हमारे समाज को भयमुक्त करने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठाना अत्यंत आवश्यक है.

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  2. इसी तरह का मनोबैज्ञानिक पूरे उत्तराखंड के लिए तुरंत वांछित है.

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  3. बहुत मुश्किल होता है दिमाग में बसे अंधविश्वास के भूत को निकालना ... मगर ये बेहद आवश्यक भी है .

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  4. लेख की मूल भावना को समझाने के लिए धन्यवाद.

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  5. जहाँ भय है वहाँ भूत भी है। अनिश्चितता है तो जादू, ज्योतिष, नज़र सभी है।

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