रविवार, 4 दिसंबर 2011

विडम्बना


हाथों से ताम्बे के गागर बनाने वाले टम्टा बिरादरी के लोग कई पीढ़ियों से अल्मोडा के खरही गाँव में रहते आये हैं. यह एक शिल्प है, जिसमें बहुत शारीरिक श्रम करना पड़ता है. पहाड़ में शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहाँ पानी लाने अथवा रखने के लिए गागर ना हो. बेटी के कन्यादान में दहेज के बर्तनों के साथ गागर भी देना एक आम परम्परा है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ताम्बे के बर्तन में रखा गया जल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है. ऐसा कहा जाता है कि ये पानी में जीवाणु संक्रमण को समाप्त करता है.

पिछली शताब्दी में जब सामाजिक व राजनैतिक चेतना जागृत हुई, विशेष रूप से स्वतंन्त्रता प्राप्ति के बाद, नई पीढ़ी को इस पुस्तैनी धन्धे में रूचि कम हो गयी और नौजवान लोग नौकरियों के पीछे लालायित होकर मैदान की तरफ पलायन करने लगे. जो पढ़-लिख गए वे आरक्षण का लाभ लेते हुए सरकारी नौकरियों में फिट हो गये और जो कम पढ़े-लिखे थे वे आम पहाड़ी लड़कों की तरह दिल्ली-लखनऊ में छोटे-मोटे रोजगार तलाश कर जीविका अर्जित करते रहे हैं. आज उस गाँव में स्वर्गीय बहादुर राम टम्टा जी सभी के आदर्श पुरुष हैं, जो अपनी बुद्धि व अध्यवसाय से प्रशासन तथा राजनीति के ऊंचे मुकाम तक पहुंचे थे. उन्होंने अनेक नौजवानों की कई तरह से मदद की और मार्गदर्शन भी किया.

इस कहानी का नायक गोविन्द राम टम्टा, जो अपना उपनाम ताम्रकार लिखने लगा था, आठवीं पास करके फिटर ट्रेड में अल्मोड़ा औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र से ट्रेनिंग लेकर मुरादाबाद आ गया, जहाँ शहाबुद्दीन ठेकेदार ने उसे अपने पास काम पर रख लिया. शहाबुद्दीन पुल बनाने के ठेके लिया करता था. जब अफ़्रीकी देश लीबिया में कर्नल गद्दाफी का सूरज चमक रहा था तो शहाबुद्दीन ने वहाँ पुल बनाने का बड़ा काम ले लिया. अपने दो सौ कर्मचारियों (इंजीनियरों, कारीगरों, व मजदूरों) को लेकर वहाँ निर्माण कार्य करने लगा. गोविन्द राम भी उसकी टीम का एक विश्वसनीय सदस्य बना रहा.

शहाबुद्दीन ने तो सात साल में करोड़ों रूपये कमाए और गोविन्द राम ने भी लाखों कमा कर अपनी पत्नी बिशनुली को भेजे. पहाड़ की ये तासीर है कि यहाँ रूपये में बरकत बहुत कम है. हर महीने करोड़ों के मनीआर्डर अल्मोड़ा मुख्य डाकघर से होकर वितरित होते रहे हैं, पर ग्रामीण अंचलों में लोगों के रहन सहन के स्तर में जैसा सुधार होना चाहिए था नहीं हुआ है.

जब गोविन्दराम लीबिया से लौट कर घर आया तो पहाड़ में उसका मन बिलकुल नहीं लगा. वह हल्द्वानी आकर एक ऑटो खरीद कर चलाने लगा. तब जमीन सस्ती थी, तल्ली हल्द्वानी में तीन बीघा खरीद कर एक छोटा सा घर बनाया तथा बीवी बच्चों को भी हल्द्वानी ले आया. बिशनुली बड़े तेज स्वभाव की थी, थोड़ा कर्कश भी थी लेकिन थी बड़ी मेहनती. उससे निठल्ले बैठा नहीं गया इसलिए एक दुधारू भैंस खरीद कर व्यस्त रहने लगी. बची जमीन पर चारा बोकर भैंस के राशन का भी इन्तजाम कर लिया. दूध ऐसी चीज है कि अड़ोसी-पड़ोसी सभी लाइन लगा कर खरीदने को तैयार रहते हैं. कमाई का एक और जरिया हो गया.

इस बीच बच्चे तो पढाई की धुन में लग गए, गोविन्द राम को नकद कमाई मिल रही थी सो एक पव्वा शराब का रोज ही गटकने लग गया. शराब चीज ही ऐसी है कि मुँह लगने के बाद छूटती ही नहीं. बीवी की डांट तो पड़ती ही थी अत: हर सुबह तौबा करता था और शाम को फिर टुन्न होकर घर लौटता था. ये आम दिनचर्या थी. उसी की नहीं, उसके जैसे तमाम लोग ऐसे ही दिन काट रहे थे.

पिछली सर्दियों मे कुछ ज्यादा ही ठण्ड पड़ी और असावधानी के चलते गोविन्द राम को न्युमोनिया हो गया, मरते-मरते बच पाया. डाक्टर ने ऑटो न चलाने की ताकीद कर दी तो बिशनुली ने गोविन्द राम के न चाहते हुए भी ऑटो बेच दिया. अब गोविन्द राम पैदल हो गया, कोई काम नहीं था और जेब खाली रहने लगी. वह पव्वे के लिए बिशनुली का मोहताज हो गया. बिशनुली दस खरी खोटी सुनाकर बीस रूपये देती थी. अब नतीजा ये हुआ कि इंग्लिश ब्रांड के बजाय देशी ठर्रे से शौक पूरा करने लगा.

गोविन्द राम को कुढ़न तो बहुत होती थी क्योंकि बिशनुली का साम्राज्य उसी की मेहनत व कमाई के बदौलत फल-फूल रहा था. घर में राज बीवी का है तो वो कर भी क्या सकता था? इस तरह कब तक दोस्तों से उधार लेता रहता. एक दिन उसने ठान ली कि अगर बिशानुली रूपये देने में कुन्नट करेगी तो उसकी खैर नहीं होगी.

वह घर आया, उसने बिशनुली से बीस रुपयों की मांग की. बिशनुली भैस का चारा बना रही थी, झिड़क कर बोली, रूपये पेड़ पर थोड़े ही उग रहे हैं? दारू में बर्बाद करने को नहीं हैं मेरे पास रूपये. ये सुन कर गोविन्द राम का स्वाभिमान नकारात्मक रूप से जाग उठा. वह सीधे घर में घुसा, अनाज के ड्रम में डालने के लिए जो सल्फास की गोलियां रखी हुई थी उनमें से ६ गोलियां पानी के साथ निगल ली. वह तो जहर था, थोड़ी देर में असर होने लगा तो बच्चों को बुलाकर कहा  मैंने सल्फास की गोलियाँ खा ली हैं, अब मैं मरने जा रहा हूँ. बच्चों ने माँ को बताया पर उसने इस बात को बहुत हल्के से लिया क्योंकि ऐसे नाटक वह अक्सर देखती रहती थी. पर इस बार गोविन्द राम ने सीमा पार कर दी थी. बड़ी देर में बिशनुली की समझ में आया कि गजब हो गया. गोविन्द राम को जल्दी से जल्दी अस्पताल ले जाया गया पर तब तक पंछी उड़ चुका था.

अब बिशनुली विलाप करती रहती है कि मात्र बीस रुपयों की खातिर उसने अपने प्यारे सुहाग को खो दिया. याद कर कर के उसके आंसू थमने का नाम नहीं लेते है.

ये मुई शराब चीज है ही ऐसी, खेलते-खाते घरों में अन्धेरा कर जाती है.
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