शंकरलाल दीक्षित जी को सब लोग ‘गुरू जी’ के नाम से संबोधित करते थे. वे हमारे हाईस्कूल के फिजिकल इंस्ट्रक्टर थे. स्कूल में उनका एक अनुशासन होता था और सभी लड़के-लड़कियों को अभिभवकों की तरह डांट भी दिया करते थे. राष्ट्रीय दिवसों पर जब हमारी परेड होती थी तो वे नियंत्रक होते थे. उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि स्कूल के मैदान के चारों ओर बैठे हुए दर्शक-श्रोता भी लाउडस्पीकर की आवाज की तरह सुन सकते थे.
उनके व्यक्तिगत जीवन के विषय में तब हम लड़कों को कुछ भी मालूम नहीं था. जब मैं १२ साल बाद बतौर प्राध्यापक उसी स्कूल में आया तो पुराने अध्यापकों में से केवल गुरू जी ही वहाँ मिले और उनको पाकर मुझे बहुत हर्ष हुआ. उनके साथ बैठ कर अनेक पुरानी यादों को दोहराया गया. मुझे आवास चाहिए था तो उन्होंने अपने निजी मकान में मुझे दो कमरे किराए पर भी दे दिये. नजदीक आने पर मुझे मालूम हुआ कि गूरू जी महज तीस वर्ष की उम्र में विधुर हो गए थे, परन्तु उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया. उनका इकलौता पुत्र कार्तिकेय अब आई.आई.टी., रुड़की में पढ़ रहा था और घर में बूढ़ी माता जी, जिनकी उम्र अब लगभग ८० वर्ष हो चुकी थी, बरसों से बेटे-पोते के हितार्थ सर्वस्व न्योछावर करती रही थी.
माता जी बहुत मृदुल स्वभाव की, मेहनती, व धार्मिक प्रवृतियों वाली थी. उनके सानिध्य में अपने परिवार को लाकर मैं भी अपने आप को धन्य समझ रहा था. गुरू जी बहुत हँसमुख एवं खुशमिजाज़ किस्म व्यक्ति थे, उनका ये नया स्वरुप मुझे उनके घर में ही देखने को मिला. माता जी को वे अन्नपूर्णा देवी कहा करते थे. वे बताते थे कि अभी तक माता जी उनको छोटा बच्चा ही समझती थीं. पत्नी के गुजरने के बाद कार्तिकेय भी पूरी तरह दादी जी पर ही आश्रित रहा. उसका लालन-पालन माता जी ने अपनी गरिमामय छत्रछाया में किया.
गुरू जी आश्वस्त थे कि उनकी नानी १००+ आयु में स्वर्ग सिधारी थी इसलिए माता जी भी शतायु रहेंगी. लोग कहा करते थे कि गुरू जी बहुत भाग्यशाली हैं, पर मुझे एक बड़ा खालीपन उनके जीवन में व घर में हमेशा ही खलता था. बिना घरवाली के घर में सारी नियामतें होते हुए भी होटल के सामान हो जाता है. गुरू जी ५८ वर्ष की उम्र में स्कूल से रिटायर हो गए थे और चार वर्षों के बाद मेरा भी स्थानातरण वहा से करीब ६० किलोमीटर दूर हो गया था. यद्यपि पत्रादि माध्यमों से गुरू जी के संपर्क में रहा, लेकिन यह धीरे-घीरे कम होता गया. १५ वर्षों के बाद जब माता जी के स्वर्ग सिधारने का समाचार मिला तो मैं अपनी श्रद्धांजलि देने गया था.
कार्तिकेय विदेश में, दूर अमेरिका के केलीफोर्निया में, एक मल्टीनेशनल कम्पनी में वरिष्ट पद पर काम कर रहा था. उसने वहीँ अपनी एक जर्मन सहकर्मी से विवाह कर लिया था. वह भी दादी के अन्तिम दर्शनों के लिए पहुँच गया था. उसका आना गुरू जी के लिए ज्यादा राहत देने वाला नहीं था क्योंकि उसे जल्दी ही वापस जाना था. चूंकि माता जी अन्तिम समय तक गुरु जी की केयर टेकर की तरह रही, अब उनके जाने के बाद गुरू जी निपट अकेले हो गए. कार्तिकेय उनको अपने साथ ले जाना चाहता था पर गुरू जी इसके लिए बिलकुल राजी नहीं थे. माता जी के जाने के बाद गुरू जी के लिए जैसे सारे काम खतम हो गए थे. मैं कल्पना करता था कि इतना लंबा विधुर जीवन जीने के बाद अब शायद उनको महसूस हो रहा होगा कि दु:ख-सुख बांटने के लिए कोई साथी होना चाहिए था.
जीवन की आपाधापी में किसको फुर्सत है जो दूसरों के बारे में सोचे? हम सभी सांसारिक लोग अपने-अपने गुणा-भाग में व्यस्त हो जाते हैं. ये अच्छा हुआ कि कार्तिकेय के जोर देने पर उन्होंने एक फुल-टाइम नौकर रख लिया और अब वही गुरू जी के घर के व व्यक्तिगत कार्यों की देखरेख कर रहा था, पर नौकर तो नौकर होता है उसमें समर्पण भाव भी हो जरूरी नहीं है. वह कितने दिन टिकेगा इसकी भी गारन्टी नहीं होती है.
पिछले महिने सर्विस से रिटायरमेंट के बाद जब मैं गुरू जी से मिलने व उनका आशीर्वाद लेने उनके घर पहुँचा तो मालूम हुआ कि वे तो नई दिल्ली में एक वृद्धाश्रम में काफी समय पहले चले गए थे. मैं उनको ढूंढते हुए दिल्ली गया. उनसे मिला तो मुझे पाकर वे अपने को भाव विह्वल होने से नहीं रोक पाए. वे बहुत दुबले हो गए थे. उन्होंने बताया कि वृद्धाश्रम में सब तरह से उनकी देखभाल होती है. अनेक लोग उनकी ही तरह जीवन का अन्तिम सोपान यहाँ गुजार रहे हैं, पर ये सब बताते हुए उनकी वाणी में दर्द साफ़ झलक रहा था.
मैंने गुरू जी से जब कहा कि “आप मेरे भी पिता तुल्य हैं और अगर मेरा अनुरोध स्वीकार करें तो मेरे घर चल कर रहें. हम लोग धन्य हो जायेंगे.”
गुरू जी बहुत देर तक सोचते रहे और अंत में राजी हो गए. वे मेरे घर पर पिता तुल्य ही रह रहे हैं. हमारी खूब गपशप व बातें जमती हैं. ऐसा लगने लगा है कि गुरू जी में एक नया जोश व जागृति आ गयी है. हम साथ घूमते भी हैं. मेरे परिवार के सभी लोगों को उनका आना और उनकी सेवा करने में बहुत आनंद महसूस होता है. लगता है उनको भी इस अपनेपन ने अभिभूत कर रखा है.
मैं उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ.
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इंसानी रिश्तों को दर्शाता बहुत ही प्रेरक और भावपूर्ण प्रसंग । शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंआपकी कामना में हम भी आपके साथ शामिल हैं।
जवाब देंहटाएंरजनीश जी और संजय जी आपको हार्दिक धन्यवाद,आपने कहानी के मर्म को गहराई से महसूस किया है.
जवाब देंहटाएंसभी गुरुओं को एसा ही शिष्य मिले जो इंसानियत से सराबोर हो. सुन्दर मिशाल.
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