गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

बैठे ठाले


द्विज का शाब्दिक अर्थ होता है दो बार जन्म लेने वाला. सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों को द्विज कहा गया है. सोलह संस्कारों में उपनयन संस्कार किये जाने के उपरान्त व्यक्ति का दूसरा जन्म होना माना गया है. मैं इन पंक्तियों की व्याख्या के औचित्य पर नहीं जाना चाहता हूँ, किन्तु सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को भगवान के बाद दूसरे नम्बर का दर्जा दिया गया है. पौराणिक कथाओं में सर्वत्र ही ब्राह्मणों को पूजनीय बताया गया है.

वैसे नभचरों में सभी पक्षी, उभयचरों में सांप व मेंढक, तथा जलचरों में मछली, जो भी अंडज हैं, सच में द्विज हैं क्योंकि उनका दो बार जन्म होता है. अनेक कीड़े-मकोड़े भी द्विज की परिभाषा में आते हैं पहले के लोगों ने अपनी सहूलियत के अनुसार उनको उचित नाम दिये हैं.

ब्राह्मण शब्द की एक सर्वग्राह्य परिभाषा यह भी है कि ब्रह्मम जानोति स:ब्राह्मण: यानि जो ब्रह्मज्ञानी है वही ब्राह्मण है. चाहे वह किसी भी वर्ण या कुल में पैदा हुआ हो. सनातन धर्म में जो आदि वर्ण व्यवस्था थी उसका एक बड़ा सामाजिक व वैज्ञानिक आधार था और यह कर्म के अनुसार नियत होता था कि व्यक्ति किस वर्ण का है. एक ही पिता की सन्तानें अलग अलग वर्ण की होती थी. बाद में इसमें विकृति व कट्टरता आती गयी. कुकर्मी, दुष्ट, व नीच भी अगर ब्राह्मण कुल में जन्मा हो तो वह ब्राह्मण ही रहता था. इसी तरह क्षत्रिय व अन्य वर्णों का हाल रहा.

पौराणिक काल में जब अनेक मर्यादाएं नियत नहीं थी तो भिन्न वर्णों में विवाह होने के भी उदाहरण मिलते हैं. क्षत्रिय राजा जनक की पुत्री सीता के स्वयम्बर में ब्राह्मण लंकेश रावण भी था. मध्य काल में इतिहास बताता है कि राजा लोग ब्राह्मणों के आश्रयदाता थे और ब्राह्मण उनके पुरोहित’ यानि पूरे हितों के लिए नियुक्त रहते थे. सनातनी लोग धर्मभीरू भी थे, इसलिए जन्म से मृत्यु तक ब्राह्मणों द्वारा ही शुभाशुभ कार्य हुआ करते थे. ये विषय बहुत लंबा है, विस्तृत है, परन्तु भारत देश के हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में धर्म की ये एकरूपता बनी रही है.

सामाजिक मान्यताओं के अनुसार ब्राह्मण ज्ञानी, सदाचारी व सात्विक होना चाहिए पर अब ये अपवाद बन गए है. कर्मकांड करना भी एक धन्धा बन गया है, विचारों की शुद्धता व परमार्थ भावना गौण हो गयी है. ईर्षा, द्वेष, व अहंकार जैसे दुर्गुण सर्वत्र समाज में भी आम बात हो गयी है. देश काल व परिस्थितियों के अनुसार सभी लोग कलयुगी हो गए हैं. गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तर कांड में कलयुगी चरित्र को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया है. कि कलिकाल में सभी लोग अपने धर्म व कर्म से च्युत हो जायेंगे और ईर्षा-द्वेष से ग्रस्त रहेंगे. इसी सदर्भ में हवलदार किसनसिंह ने एक आपबीती घटना हमें सुनाई थी कि दो प्रबुद्ध ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण किस तरह से व्यवहार करते हैं. उनकी कहानी निम्न है.

धुरफाट, बिनसर की पर्वत माला पर दुर्गम स्थान पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव है, जहाँ गरीब लोगों के १५-२० घर हैं. पिछले पंचायत के चुनाव में गांव वालों ने हवलदार किसनसिंह को निर्वोरोध सभापति बना दिया था. किसनसिंह एक सुलझा हुआ व्यक्ति है. उसका घर व रहन-सहन अन्य ग्रामीणों से बेहतर है. पेंशन पाता है. सब तरह से सुखी है. एक दिन शाम के वक्त आँन गाँव से पंडित दुर्गादत्त शास्त्री उसके घर आ गए और उन्होंने रात्रि विश्राम वहीं करने की अपनी इच्छा जताई तो किसनसिंह खुश हो गया और अपनी पत्नी से पंडित जी के लिए खीर, पूड़ी और हलवा के पकवान बनाने को कह दिया. वह अपना अहोभाग्य समझ रहा था कि पंडित जी के आने से उसका गरीबखाना पवित्र हो गया है. संयोगवश थोड़ी देर में पंडित जीवानंद जी भी कहीं से घुमते-घामते वहीं आ गए. अब दो विद्वान ब्राह्मण उसके घर मेहमान हो गए. दूध में आटा मल कर पूडियां बनी, घर के शुद्ध घी में हलवा बना औए मलाईदार खीर बनी. किसनसिंह को ये मालूम नहीं था कि दोनों पंडितों के बीच कोई मन मुटाव व द्वेषभाव भी है. वह तो एक श्रद्धालु यजमान की तरह उनकी सेवा में तत्पर था.

भोजन तैयार हुआ तो किसनसिंह पानी की बाल्टी-लोटा लेकर आँगन के भीडे पर पंडित दुर्गादत्त को हाथ-पैर धुलवाने के लिए ले गया तो दुर्गादत्त जी ने अनायास ही कह डाला, इस बैल (पंडित जीवानंद) को भी आज के ही दिन तुम्हारे घर आना था?

किसनसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पंडित दुर्गादत्त अपने बराबर के दूसरे पंडित को बैल बता रहे हैं. किसनसिंह ने कहा मैंने तो किसी को बुलाया नहीं है, जैसे आप पधारे वैसे ही वे भी आ गये.

इसके बाद जब वह पंडित जीवानंद के हाथ-पैर धुलवाने लगा तो उसको एक शरारत सूझी उसने जीवानंद जी को बताया कि दुर्गादत्त जी आपको बैल बता रहे हैं. इस पर जीवानंद जी आक्रोषित स्वर में बोले, अगर मैं बैल हूँ तो वह भी भैंसा है.

मामला गंभीर हो गया, जब दोनों ब्राह्मण भोजन के लिए चौकी पर बैठे तो किसन सिंह ने खीर- पूड़ी के बजाय थाली में हरी-हरी घास परोस कर सामने रख दी. और कहा आप दोनों ही विद्वान पुरुष हैं एक दूसरे को खूब पहचानते हैं. बैल और भैंसे का भोजन आपको पेश है. इस प्रकरण के बाद दोनों ही ब्राह्मण बिना भोजन पाए उठ कर चले गए.

इस प्रकार की ईर्षा-द्वेष की भावना निर्मल मन में नहीं होनी चाहिये. पर ये तो चाहिए वाली बात है. यहाँ ये बात प्रासंगिक लगती है कि सतयुग में भी देवर्षि वशिष्ठ के यश व प्रतिष्ठा को देख कर राजर्षि विश्वामित्र को बहुत ईर्षा हुई थी, पर वह तो पौराणिक बातें हैं.
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