मंगलवार, 1 नवंबर 2011

चिट्टी और किट्टी


चिट्टी और किट्टी दो सगी बहिनें हैं. दोनों का जन्म मेरे गौजाजाली के घर के पड़ोस में पपने जी की खाली पडी हुई पुरानी गोशाला में हुआ. भाग्य की विडम्बना देखिये दोनों को बिछुडना पड़ा है. जिस तरह उमराव जान वाली फिल्म में एक सहेली नवाब साहब की बेगम बन गयी, दूसरी नर्तकी, उसी तरह इनका भी इतिहास बन गया है.

हमारे मोहल्ले में दस-पन्द्रह आधुनिक मकान बने हैं, जिनमें लोगों ने टाइट दरवाजों की फिटिंग कराई है. नए डिजायन के इन घरों में न गौरैय्यों के निवास के लिए बाहर की तरफ खोखले कोटर रखे गए हैं और न उनमें बिल्लियों के घुसने के लिए आसान दरवाजे-खिड़कियाँ. कुत्ते अलबत्ता खुद धक्का देकर या पंजे मारकर अन्दर बाहर जाने की कला जानते हैं.

मैं जिन दो बहिनों की सत्यकथा लिख रहा हूँ वे पहले पहले तो अपनी माँ के साथ मोहल्ले में घूमने आने लगी. देखने में चिट्टी बड़ी सुन्दर रुई की गोले की तरह सफ़ेद, पीठ व कानों में काले धब्बे थे, वहीं किट्टी आगे से तो चिट्टी जैसी दिखती थी पर उसका पिछला हिस्सा काली धारियों वाली जंगली बिल्लियों सा था.

प्यार की भाषा तो हर प्राणी समझता है. ये दोनों बच्चे बुलाने पर, पहले पहले तो बहुत डरते थे पर बाद में जब इनको दूध-रोटी की चाट लग गयी तो स्वत: ही म्याऊं-म्याऊं करके पास आने लगे.

मुझसे इनको ज्यादे ही लगाव हो गया था क्योंकि मैं सुबह ६ बजे घर का दरवाजा खोल कर गेट का भी ताला खोला करता हूँ. दरवाजे-गेट के खुलने की आवाज सुनकर ना जाने ये कहाँ से आ टपकते और जब तक प्याली में दूध न दिया जाये ये दोनों पैरों में लिपटकर चिरौरी सी करने लगती थी. दूध चाट कर ये फिर गायब हो जाती थी. ये एक तरह से नित्यक्रम सा हो गया था. मोहल्ले में चर्चा होती थी कि ये कई घरों में यही चरित्र निभाती थी. इनका ठिकाना पास में खड़ी गाड़ियों के नीचे या छत की बाहरी सीढ़ियों के नीचे रहता था.

मेरे साढू भाई गोविन्द भट्ट जी एक बार गाड़ी लेकर जब हल्द्वानी आये तो चर्चा में बिल्ली के बच्चों की बात भी आई. उन्होंने तुरन्त एक बच्चे को ले जाने की इच्छा जताई, पर दिन में तो ये ना जाने कहाँ छुपी रहती थी. मैं सामने भुवन तिवारी जी के घर के पिछवाड़े गन्ने के झुरमुट के पास गया और चुट-चुट आवाज निकल कर बुलाया तो किट्टी झाडियों में से निकल कर आ गई. इस प्रकार भट्ट जी उसे जाली में डाल कर दिल्ली अपने घर ले गए, वहाँ से उन्होंने उसे अपने बेटे महेश भट्ट के पास हरिद्वार पहुँचा दिया. महेश लक्सर-पार्कर पेन की फैक्ट्री में बड़ा मैनेजर/प्रेसीडेंट हैं. अकेले रहते हैं. परिवार कनाडा में व्यवस्थित है. उनके पास फुल टाइम नौकर व गार्ड रहता है. वैसे तो महेश, बाबा नीम करोली के अनन्य भक्त है, पर बिल्ली प्रेमी भी है. किट्टी की खूब खिदमत हुई होगी. खबर मिलती थी कि किट्टी के अंदाज शाही हो गए हैं. मैं उस बीच एक बार दिल्ली गया तो वह भी अपने मालिक के साथ गाड़ी में दिल्ली आई हुई थी. सोफे पर विराजमान थी और बड़े प्यारे अंदाज में मेरे गोद में आ बैठी. कहते है कि बिल्लियाँ अपने मालिक को या खाना देने वालों को जल्दी भूल जाती हैं, पर किट्टी के इस व्यवहार पर मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ कि उसने मुझे पहचाना या वह सभी के गोद में बैठने की आदी हो गयी थी. बहरहाल वह राजसी ठाट में थी. हरिद्वार की पवित्र भूमि में महेश भट्ट के साथ सात्विक भोजन का आनंद ले रही थी.

इधर चिट्टी अपने पुराने अंदाज में बाहरी आवासों के सहारे बड़ी होती जा रही थी. उसने पिछली गर्मियों में अपनी शक्ल के दो फूल जैसे शावकों को जन्म दिया, लेकिन किसी बिल्ले ने जल्दी ही जान से मार दिया. तब वह बहुत उदास होकर मेरे द्वार पर आई थी. मैंने उसे दूध रोटी दी पर उसने कोई रूचि नहीं दिखाई. मैं समझ गया कि उसे अपने बच्चे खोने का गंभीर सदमा लगा था. ये मायाजाल ऐसा ही बनाया गया है. कुछ दिनों बाद मगर सब सामान्य हुआ जैसा लगता था.

गत जुलाई में जब मेरा अमेरिका आने का कार्यक्रम बना तो मैं चिट्टी के बारे में सोचता रहा कि सुबह-सुबह वह मेरे द्वार पर आयेगी और मुझे न पाकर उसे एक और सदमा लगेगा. वैसे अब उसके खाने पीने के बारे में ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वह अपने लिए शिकार खुद करने लगी थी. उससे मेरा एक बंधन सा हो गया था.

समय अपनी गति से भागता ही है. जिस तरह रेल में बैठ कर हमको अगल-बगल दृश्य, पेड़-पौधे, आदि पीछे को भागते हुए दीखते हैं, और सच्चाई यही रहती है कि हम भागते होते हैं, उसी तरह समय तो अपनी जगह ठहरा है और हम ही आगे भागे जा रहे हैं. बहरहाल जो भी भाग रहा हो समय दूर छूटा जा रहा है.

अम्रेरिका में मुझे फेसबुक पर अपने तमाम पुराने परिचित मिल गए. ये ऐसा सोशल नेटवर्क है जो पहले सिर्फ स्टूडेंट्स के मतलब के लिए एक २० वर्षीय छात्र जकरबर्ग ने शुरू किया था पर अब विश्वव्यापी संगठन सा बन गया है. तमाम भूले बिसरे मित्रों को सन्देश, फोटो, व वर्तमान में दिन-प्रतिदिन हो रही घटनाओं-यात्राओं तथा व्यक्तिगत उपलब्धियों की जानकारी दे रहा है. अनेक कवियों की कल्पनाएँ, अद्वितीय स्थानों के चित्र, ये सब नया अनुभव है. इस विधा से अभी वे लोग महरूम है जिनके पास कंप्यूटर+नेटवर्क कनेक्शन नहीं है. खुशी इस बात की है कि लोगों में इस दिशा में जागृति आई है और अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ते जा रहे है.

पिछले महीने के प्रारम्भ में अपने-अपने फेस बुक पर मेरे दो मित्रों ने (जिनमें आपसी संबाद नहीं है) अलग-अलग जगहों से दो बिल्लियों के उनके बच्चों के साथ फोटो चित्र डाले. एक हरिद्वार से महेश भट्ट द्वारा अपनी बिल्ली किट्टी का और दूसरा हल्द्वानी से मेरे भान्जे प्रकाश (जो मेरे मोहल्ले के वासी है) द्वारा किट्टी का. ये विचित्र संयोग था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

मैं खुशी से झूम उठा कि किट्टी व चिट्टी अपने-अपने तीन-तीन पोथीलों के साथ इंटरनेट पर विराजमान हैं.
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5 टिप्‍पणियां:

  1. समय अपनी गति से भागता ही है. जिस तरह रेल में बैठ कर हमको अगल-बगल दृश्य, पेड़-पौधे, आदि पीछे को भागते हुए दीखते हैं, और सच्चाई यही रहती है कि हम भागते होते हैं, उसी तरह समय तो अपनी जगह ठहरा है और हम ही आगे भागे जा रहे हैं. बहरहाल जो भी भाग रहा हो समय दूर छूटा जा रहा है.
    वाह कितनी सरल भाषा में आप कितनी गहरी बात कह गय आपका यह अनुभव पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

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  2. डाक्टर साहब आप शाश्त्री भी है, मयंक भी है और उत्चारित भी है.मेरा भी नमस्कार व धन्यवाद स्वीकार करें.मैं यों ही शौकिया लेखक हूँ, आर्टिकल्स तो आपके बहुत सार गर्भित होते है.

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  3. पढकर अच्छा लगा। दुनिया सचमुच बहुत छोटी हो गयी है।

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  4. अंकल समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपके द्वारा की गई टिप्पणी मुझे बहुत अच्छी लगती है। आगर आप मेरी पोस्ट पर आकर मुझे अपने बहुमूल्य विचारों से अनुग्रहित करेंगे तो मुझे खुशी होगी .....

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