(मेरी ये कहानी ‘राष्ट्रीय सद्भावना’ के विषय की लेखन प्रतिस्पर्धा में पुरस्कृत हुई थी, और नवंबर १९७१ के ‘ए.सी.सी. परिवार’ नामक गृह पत्रिका में प्रकाशित हुई थी.)
मैं बहुत दु:खी था. मुझसे भी ज्यादा दु:खी मेरी पत्नी थी क्योंकि औरतें स्वभावत: अधिक भावुक होती हैं. दु:ख रुपयों के खोने का इतना नहीं था, जितना कि उन रुपयों का ‘भेंट’ के रूप में होने का था. शर्ट, उसके अन्दर गंजी, और उसमें अन्दर की ओर लम्बी-टेढ़ी जेब, जिसमें दो सौ रुपये एक लिफ़ाफ़े में रखे थे. लिफ़ाफ़े पर “दो सौ रूपये - लाखेरी कारखाने के लोगों की तरफ से स्थानान्तरण के अवसर पर सप्रेम भेंट" लिखा था. मुझसे पूछा गया था कि मेरी इच्छित वस्तु क्या है. पर लम्बी यात्रा को देखते हुए शाहाबाद जाकर, नकद से कोई इच्छित वस्तु खरीदने की मेरी इच्छा का स्वागत किया गया, और ये वही दो सौ रूपये खो गए थे गलती मेरी थी कि जेब पर पिन नहीं लगाई थी.
निर्धारित तिथि को लाखेरी से चलने से पूर्व ही मुझे कुछ मित्रों ने दृढ़ शब्दों में एक सप्ताह बाद चलने को कहा था क्योंकि अहमदाबाद के दंगों के बाद रास्ते के दो तीन शहरों में साम्प्रदायिक सौहार्द्य बिगड़ा हुआ था किन्तु रेल का रिजर्वेशन हो चुका था और दो दिन पूर्व शुभाकांक्षियों द्वारा विदाई दी जा चुकी थी अत: मैं सपरिवार पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार चल पड़ा.
लाखेरी स्टेशन पर भावभीनी विदाई, बार-बार विह्वल कर रही थी और उसके बाद एक-एक करके परिचित स्टेशन पीछे छूटते गए. श्यामगढ़ के बाद सब कुछ नया था. मैं, पत्नी, और बच्चे अपने तक ही सीमित हो गए. डिब्बे में कम ही लोग थे, किसी से विशेष बात भी नहीं हुई. हम आपस में ही बातें करते, बाहर देखते, कभी कुछ चबैना करते रहे. शाम ढले रतलाम आया. अनायास मेरा हाथ गुप्त जेब पर गया, किन्तु लिफाफा न था. मैंने जल्दी-जल्दी अन्दर-बाहर सब टटोला लिफाफा गायब था. पत्नी को बताया, पुन: जेबें भी अच्छी तरह देखी गयी, कोई कटी नहीं थी. लिफाफा ऊपर से ही निकल कर गिरा होगा. फिर भी आस-पास सब टटोला, पर भेंट का लिफाफा नहीं मिला. यद्यपि पत्नी ने मुझे धैर्य दिया, फिर भी मैंने महसूस किया कि उन्हें मुझसे अधिक वेदना थी.
नियति का खेल समझ कर हम चुप रह गए. सहयात्रियों से कहना उचित नहीं समझा. किसी को मिला भी हो तो कौन कहेगा? सामने वाली बर्थ खाली थी, हमारे बच्चे खेल रहे थे. बर्थ के नीचे हमारा सामान व हमारी लकड़ी की पेटियां थी, जिन पर पता लिखा था. अब मुझे इनकी चिंता रहने लगी. रतलाम के बाद के स्टेशन से एक सज्जन चढ़े और सामने की बर्थ पर उन्होंने अपना बिस्तर खोला ऊपर-नीचे ताक-झाँक कर हमारी पेटीयों के साथ ही अपना ट्रंक बर्थ के नीचे डाल दिया. व्यक्तित्व से लगा कि वे भी मध्यम वर्ग के हैं. इस बीच वे एक दो बार बाथरूम तक भी गए और अपने आपको व्यवस्थित करते रहे. एकाएक उन्होंने बातचीत शुरू की, "भाई साहब, क्या आप ए.सी.सी. में सर्विस करते हैं?”
“जी हाँ,” मैंने कहा.
“सुना है कि आपका मैनेजमेंट कर्मचारियों के लिए बहुत अच्छा है. फिलहाल कुल कितने कारखाने हैं?”
“१८ कारखाने, दो कोलिअरियाँ, एक फायरब्रिक्स एण्ड पाटरी वर्क्स, एक हैवी इंजीनियरिंग वर्क्स, दो सफ़ेद सीमेंट प्लांट्स है और कुछ कारखानों के साथ ग्राम कल्याण के लिए फ़ार्म तथा सुव्यवस्थित योजना है, जिनसे सैकड़ों गाँव फ़ायदा उठाते हैं.”
“आप शाहाबाद जा रहे हैं?”
“जी हाँ.”
“बहुत दूर ट्रांसफर हुआ ?”
“जी हाँ, ए.सी.सी. के नौकरी इन्डियन सिविल सर्विस की तरह ही है. कार्यक्षेत्र पूरा भारत है और सभी जगहें देखने को मिलती हैं.”
“आप आ तो लाखेरी से रहे हैं?”
“जी हाँ, मगर आपको यह सब कैसे मालूम ?”
“आपकी पेटियों पर लिखा है.” वे थोड़ा सा मुस्कुराए फिर बोले, “आपकी कम्पनी का मालिक कौन हैं?”
“हमारी कम्पनी शेयर होल्डर्स की है. अमीर-गरीब सभी तरह के लोगों के शेयर इसमें हैं. चुने हुए संचालक संचालन करते हैं. हम कर्मचारी लोग भी ऐसा महसूस करते हैं कि हम ही मालिक हैं,” मैंने कहा और फिर पूछा, “आपको कहाँ तक जाना है ?”
“आपका पूरा साथ दूंगा, गुलबर्गा तक जाना है.”
मुझे आनंदानुभूति सी हुई और मैंने झट पूछा, “आपका शुभ नाम?” कुछ क्षण के लिए वे अटके फिर बोले, “मुझे जमील कहते हैं.”
मेरी नजर उनके बिस्तर पर गयी और देखा उनके बिस्तर और मैंने देखा उनके बिस्तर के सिराहने एक लम्बा चाकू छिपा रखा है. फ़ौरन मुझे याद आया कि यह वही इलाका था जहाँ पिछले दिनों दंगे हुए थे, फिर तो मैं अपेक्षाकृत अधिक सावधान हो गया. दो तीन दिन पहले इसी ट्रेन में कुछ वारदातें हुई थी, कहीं ऐसा न हो कि ... सोचते-सोचते मैं कुछ अधिक परेशान हो गया अचानक मुझे अपनी भूल भी याद आई कि मेरे पास आत्मरक्षार्थ एक साधारण हथियार भी नहीं था. मैं अजीब पशोपेश में पड़ गया और यह भी महसूस करने लगा कि वे मुझको ‘स्टडी’ कर रहे हैं.
वे कुछ कहना चाहते थे पर मैं मौक़ा नहीं देना चाहता था, फिर भी उन्होंने एकाएक मुझसे पूछा, “आप कुछ परेशान मालूम पड़ते हैं. क्या रास्ते में कोई चीज खो गयी है?” वे कुछ मुस्कुरा से रहे थे.
मैं सपकपा गया. कुछ कहता इससे पहले हमारे वार्ता सुनती हुई मेरी पत्नी बोल उठी, “हाँ भाई साहब, एक लिफाफा जिसमें दो सौ रुपये थे कहीं गिर गया है.”
“अगर वह आपको मिल जाये तो?”
“सत्यनारायण भगवान की कथा कराऊंगी,” पत्नी ने उत्तर दिया.
सचमुच जमील साहब ने लिफाफा, बिलकुल वही लिफाफा निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिया और बोले, “बाथरूम के दरवाजे पर यह पड़ा था.”
मैं ठगा सा रह गया. मन कृतज्ञता से भर गया. इसके बाद मैंने उनसे अनेक प्रश्न किये. उन्होंने जो बताया वह अत्यंत हृदयविदारक था. उन्होंने बताया कि वे यहाँ एक मिल में काम करते थे. नौकरी छोड़ कर जा रहे थे क्योंकि हाल के दंगों में गुंडों ने उनकी बहिन और भाई की ह्त्या कर दी थी. बातें करते हुए अनेक बार उनकी आँखें भर आई. हमारे दिलों में भी बेहद दर्द और सहानुभूति उपज आई.
वास्तव में समाज में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो धर्म एवं जाति के नाम पर विद्वेष फैलाते हैं, अत्याचार करते हैं, निरीह व भोले लोग हमेशा शिकार बनते हैं. मैं सोचने लगा, ‘आखिर ईश्वर या अल्लाह एक ही तो है, इन्सानों में फर्क कहाँ है? फर्क तो कराया जाता है. कुछ लोगों के राजनैतिक स्वार्थों ने ही हमें बांटा है. हमारे देश में व्याप्त ये विष-बीज न जाने कब तक अंकुरित होते रहेंगे?’
बच्चे नींद में थे, मै और मेरी पत्नी जमील साहब की दु:ख-गाथा से इतने द्रवित हो गए कि मन की स्थिति को शब्दों में वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ. हमें लगा कि किसी ने जंजीर खींची और गाड़ी जंगल में खड़ी हो गयी. सोये हुए कुछ यात्री जाग पड़े. पीछे के डिब्बे से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी. जमील साहब दरवाजे की तरफ चले गए. हम दोनों ने विशेष चिंता नहीं की और इस बीच बच्चों को आराम से अलग-अलग सुलाने का इन्तजाम करते रहे. जमील साहब कुछ मिनटों बाद घबराए से वापस आये और झपट कर अपना ट्रंक खोल कर, एक काला सा कपड़ा निकाल कर मेरी पत्नी की तरफ फैंक कर बोले, “बहिन जी आप ये बुर्का पहन लो" यह कहते हुए जमील साहब कांपने लगे.
मेरी पत्नी ने मेरी तरफ देखा और वास्तव में हम दोनों बेहद परेशान हो गए. मैं पसीना-पसीना हो गया और कुछ ढिठाई से बोला, “क्यों?”
मेरी पत्नी ने बुर्का केवल दूर से देखा था, यहाँ तक कि कभी छुआ भी न था. वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी. डिब्बे के दूसरे छोर पर हल्ला होते ही मेरी पत्नी ने अन्यमनस्क भाव से बुर्का ओढ़ लिया और सहमी सी कोने में बैठ गयी. देखते ही देखते कई लोग डिब्बे में आ गए. उनकी आखों की तलाशी मैं स्पष्ट देख रहा था मैंने अनुभव किया कि जमील भाई की बात सही थी. दस-बारह गुंडे हमारे पास से होकर गुजर गए. बुर्के का ऐसा असर हुआ कि उनकी सहानुभूति पूर्ण दृष्टि हमारी तरफ घूमी और वे निकल गए.
बाद में मालूम हुआ कि वे हमारे डिब्बे से दो-तीन महिला यात्रियों के जेवर लूट कर ले गए. छुरों के नोक पर कई लोगों को भी उन्होंने लूटा. लोगों ने हल्ला-प्रतिवाद भी किया किन्तु सबको जान प्यारी थी, अत: हिंसा से जवाब नहीं दिया जा सका. पुलिस आई, पर गुंडे अँधेरे का फ़ायदा उठाकर जंगल की तरफ भाग गए. सब हक्के-बक्के रह गए.
यह सब इतनी जल्दी हो गया कि एक सपना सा लगा. गाड़ी आगे बढ़ी. मैं सोचता रहा कि आदमी-आदमी में कितना अंतर होता है. जब जमील साहब ने बताया कि वह बुर्का उनकी मरहूम बहिन का था तो मेरी पत्नी का ह्रदय इतना द्रवित हो गया कि वह अपने आंसूं नहीं रोक सकी. जमील भाई से उसने कहा कि वे उसके लिए भाई से भी बढ़ कर हैं और बातों-बातों में उनसे अनुरोध किया कि वे यह बुर्का देकर जाएँ ताकि हमेशा भाई की याद ताजी रहे. इसे जमील भाई ने मान लिया.
यात्रा पूरी हो गयी. उस घटना और इस लेखन के बीच दो राखियां जमील साहब की बहिन उन्हें भेज चुकी है. बुर्का स्नेह और श्रद्धा के साथ रखा हुआ है.
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