बुधवार, 31 जुलाई 2013

अल्लामा इकबाल

अल्लामा का शाब्दिक अर्थ है विद्वान. बीसवीं सदी के उर्दू-फारसी के महान शायर इकबाल मुहम्मद ने अपने एक शेर में खुद लिखा है:

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा.

वास्तव में अल्लामा इकबाल (१८७७-१९३८) एक दीदावर ही थे.

उनके पूर्वज कश्मीरी पण्डित (सप्रू) होते थे. उनके दादा सियालकोट जा बसे थे और इस्लाम धर्म अपना लिया था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सियालकोट के एक मिशन स्कूल से प्राप्त की. बाद में उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज, म्यूनिख और हेडेलबर्ग में पाई. हिन्दुस्तान लौट कर कुछ समय ओरियेन्टल कॉलेज में अध्यापन व लाहौर में वकालत भी की. उर्दू, फारसी भाषा, व इस्लामिक दर्शन पर उन्हें महारत हासिल थी. उनके लिखे ‘जावेद नामा’ में प्राचीन भारतीय दर्शन अर्थात वेद और उपनिषदों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘असर-ए-बेबुदी’, ‘बंग-ए-दारा’ है. देशभक्ति से ओतप्रोत तराना ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ बंग-ए-दारा’ में ही संगृहित है. उनकी फारसी रचनाओं को ईरान व अफगानिस्तान में भी बहुत प्रसिद्धि मिली हुई है. वहाँ उनको ‘इकबाल-ए-लाहौर’ के नाम से जाना जाता है. डॉ. इकबाल ने बच्चों के लिए भी बहुत प्यारे प्यारे नगमे भी लिखे हैं.

उनकी लेखनी में साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रोश था. उनके विचार घर्म व दर्शन के अलावा राजनैतिक सन्दर्भ में बहुत प्रखर थे. बहुत से बुद्धिजीवी आज आश्चर्य करते हैं कि उनके दिमाग में मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र यानि पाकिस्तान की परिकल्पना कैसे और क्योंकर पैदा हुई होगी? वे इन्डियन मुस्लिम लीग से जुड़े और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर पृथक मुस्लिम राष्ट्र की जद्दोजिहद में शामिल हो गए. १९३० में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए पाकिस्तान की माँग को प्रमुखता दी.

१९३२ में इंगलैंड में बुलाये गए तीसरे गोल मेज सम्मलेन में वे मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए लन्दन गए जहाँ ब्रिटिश सरकार ने उनकी प्रतिभा को सराहते हुए ‘सर’ की उपाधि से नवाजा था.

अल्लामा इकबाल के अनेक मुँह बोलते शेर हैं, जो हर महफ़िल में आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं जैसे:
       
           खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
           खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है.
       
           दिल की बस्ती अजीब बस्ती है, लूटने वाले को तरसती है.
         
           सितारों के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तहाँ और भी हैं.

बीसवीं सदी के इस महान बुद्धिजीवी+शायर+राजनीतिज्ञ को मरणोपरांत पाकिस्तान का राष्ट्रकवि घोषित किया गया, लेकिन यह एक सत्य है कि वे देश की सीमाओं से बहुत ऊपर थे. राजनैतिक परिस्थितिवश वे भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के लिए जिम्मेदार लोगों में से एक माने जाते हैं. अफसोस ये है  कि वे अपने जीवन काल में आजाद पाकिस्तान को नहीं देख पाए.

आज अगर वे मौजूद होते तो पाकिस्तान की सियासत व कट्टरपंथियों के चरित्र को देख कर जार जार रोते.
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सोमवार, 29 जुलाई 2013

चुहुल - ५५


(१)
गुरूजी ने पंचतंत्र की कहानियां पढ़ी थी, जिनमें पण्डित विष्णु शर्मा अक्ल से ठस राजकुमारों को जानवरों के प्रतिमानों के माध्यम से पढ़ाते हैं.
वे अपनी प्राइमरी की कक्षा के बच्चों को गणित के जोड़ सिखा रहे थे, पर रामू के खोपड़े में बात बैठ नहीं रही थी. गुरूजी ने पंचतंत्री बनकर उसको सिखाने के लिए कहा, “अगर मैं तुमको बिल्ली के दो बच्चे दूं और बाद में फिर से दो बच्चे दे दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने बिल्ली के बच्चे हो जायेंगे?”
रामू ने अपनी अँगुलियों में हिसाब लगा कर उत्तर दिया, “पाँच”.
गुरू जी को उसके गलत उत्तर पर गुस्सा आ गया और रामू को पास बुला कर पूछा, “पाँच कैसे हुए बता?”
रामू बोला, “आपने दो बिल्ली के बच्चे एक बार दिये, फिर दूसरी बार भी दो बच्चे दिये, मेरे घर पर एक बिल्ली का बच्चा पहले से है, सब मिलाकर पाँच हुए कि नहीं.”

(२)
नर्स डॉक्टर से: सर, कैसे उदास बैठे हैं?
डॉक्टर: अरे, अभी दोपहर को जिस मरीज का आपरेशन किया था, वह मर गया है.
नर्स: सर, दोपहर वाला तो पोस्टमार्टम था.
डॉक्टर: तो सुबह मैंने किसका पोस्टमार्टम किया था?

(३)
एक युवती गोवा घूमने गयी. एक सुन्दर निर्जन तट पर उसने अपने कपड़े उतारे और पानी में उतरने जा रही थी तो एक पुलिस वाले ने सीटी बजा कर उसे रोक दिया कहा, “यहाँ पर नहाना मना है.”
महिला को इस पर गुस्सा आ गया बोली, “तुमने ये बात तब क्यों नहीं बताई जब मैं कपड़े उतार रही थी?”
पुलिस वाले ने कहा, “मैडम, यहाँ पर कपड़े उतारने की मनाही नहीं है. आप इस नोटिस बोर्ड को देख लीजिए, इस पर सिर्फ नहाने के लिए मना लिखा है.”

(४)
एक सस्ती सी पुरानी खटारा घड़ी का मालिक उसे मरम्मत करने के लिहाज से घड़ीसाज के पास ले गया. कैफियत देते हुए बोला, “गलती मेरी थी. मेरे हाथ से ये फर्श पर गिर पड़ी थी.”
घड़ीसाज घड़ी की हालत देखकर बोला, “आपने दूसरी गलती ये की है कि इसे फिर से उठा लिया.”

(५)
एक पत्नी ने लाड़ जताते हुए पति से पूछा, “यदि मैं मर गयी तो तुम दूसरी शादी कर लोगे?”
पति ने कहा, “इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत कठिन है.”
पत्नी बोली, “वो क्यों?”
पति ने बताया, “यदि मैंने ‘हाँ’ कह दिया तो तुम नाराज हो जाओगी और यदि मैंने ‘नहीं’ कह दिया तो माधुरी नाराज हो जायेगी.
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शनिवार, 27 जुलाई 2013

बोझेरू

हमारे देश को जब अंग्रेजों की हुकूमत से आजादी मिली तो कुल जनसंख्या ३५-४० करोड़ के आसपास थी. पढ़े लिखे लोगों का प्रतिशत भी बहुत कम था. मिडिल (दर्जा ७) पास करते ही अध्यापकी या पटवारी-पेशकार की नौकरी मिल जाया करती थी. एंट्रेंस (हाई स्कूल) पास लड़के सीधे तहसीलदार भी बन जाते थे. अगर फर्स्ट डिविजन यानि ६०% नम्बर आ जाते तो मेडीकल कॉलेज के दरवाजे भी खुले रहते थे. स्कूल कॉलेजों में फीस भी नगण्य हुआ करती थी.

आजादी के बाद जनसंख्या बेतहाशा बढ़ती रही. नई नई नौकरियों की गुंजाइश होते हुए भी बेरोजगारी थमी नहीं है. उन दिनों पढ़ाई की इतनी विधाएं भी नहीं थी. लड़के सीधे एफ.ए., बी.ए., या एम.ए. किया करते थे. मैकाले की उस शिक्षा नीति का दुष्परिणाम यह हुआ कि पढ़ा लिखा आदमी शारिरिक श्रम वाले कार्यों अथवा खेतीबाड़ी के कामों से परहेज करने लगा. आम धारणा यह भी थी कि शिक्षण संस्थायें दफ़्तरों के बाबू बनाने के कारखाने बन गए थे.

अल्मोड़ा जिले में कौसानी और गरुड़ के बीच पहाड़ी पर बसे हुए भेटा गाँव के पण्डित हरिनंदन लोहानी एक छोटे काश्तकार थे. चूंकि लम्बी धोती वाले ब्राह्मण तब खुद खेतों में हल नहीं चलाते थे इसलिए सब काम उनका हाली धनीराम शिल्पकार किया करता था. हरिनंदन लोहानी कुछ पंडिताई का काम भी करते थे. दूर वज्यूला के आसपास उनकी जजमानी थी.

हरिनन्दन लोहानी ने अपने इकलौते बेटे अम्बादत्त को एंट्रेंस की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा शहर में भेजा था. वे खुद उसका राशन-पानी उसके डेरे में पहुंचा कर आते थे. अपने बच्चों को इस तरह पढ़ाने का कई लोगों में बहुत उत्साह हुआ करता था. बच्चों को भी स्कूलों में ये दोहा सुनाया जाता था:

बच्चों पढ़ना है सुखदाई, मिले इसी से सभी बडाई,
पहले थोड़ा कष्ट उठाना, फिर सब दिन आनन्द मनाना.
मित्र लोगों की सलाह पर अम्बादत्त ने डाक विभाग में  नौकरी के लिए आवेदन किया तो उसका चयन भी हो गया. लखनऊ में तीन महीने की तार बाबू की ट्रेनिंग पाकर अल्मोडा मुख्य डाकघर में नियुक्ति मिल गयी. एक साल बाद ही उसकी घर के निकट बैजनाथ डाकघर में बदली कर दी  गयी जहाँ दो साल के कार्यकाल के बाद ही उसे पदोन्नति देकर पोस्टमास्टर बना दिया गया.

अम्बादत्त लोहानी भेटा गाँव से पोस्टमास्टर बनने वाला पहला भाग्यशाली व्यक्ति था. वह एकाएक ‘बड़ा आदमी’ हो गया. बच्चे जब बड़ा आदमी बन जाते हैं तो माता-पिता भी अपने आप ‘बड़े लोग’ हो जाते हैं. पण्डित हरिनंदन बहुत खुश थे, पर उनको लेशमात्र घमंड नहीं हुआ. वे बेटे की बेबूदी तथा उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए नित्य अपने पूजा-पाठ में लगे रहते थे, पर अम्बादत्त को ये गरिमा ठीक से हजम नहीं हो रही थी. वह स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझते हुए आम लोगों से अंग्रेज हुक्कामों की तरह व्यवहार करने लगा था. क्यों ना हो? पोस्टमास्टर को उन दिनों कई ऐसे अधिकार प्राप्त होते थे जो गजेटेड ऑफिसरों के पास होते थे. गजेटेड ऑफिसर (जिसका नाम सरकारी गजेट में प्रकाशित होता था) का मतलब सर्टिफाइंग ईमानदार अधिकारी होता था.

पण्डित हरिनंदन लोहानी अपने काबिल बेटे के लिए एक सुन्दर खानदानी बहू की तलाश में थे कि छ: महीनों बाद ही अम्बादत्त की बदली गढ़वाल बॉर्डर पर स्थित ग्वालदम पोस्ट आफिस को हो गयी. उन दिनों उनका हाली धनीराम बीमार पड़ा हुआ था इसलिए अम्बादत्त का बिस्तर+ट्रन्क को ग्वालदम पहुँचाने की समस्या उत्पन्न हो गयी. कोई और बोझेरू (बोझा ढोने वाला कुली) उपलब्ध नहीं हो रहा था. बैजनाथ से ग्वालदम तक पहाड़ी ऊँची नीची कच्ची सड़क होती थी. खच्चर वाले से बात की तो उसने पूरे बीस रुपयों के भाड़े की बात की. पण्डित जी ने सोचा, ‘इतना भाड़ा देने के बजाय क्यों ना मैं ही बेटे का बिस्तर+ट्रन्क वहाँ पहुचा आऊँ.’

अम्बादत्त जवान लड़का था पर उस पर ‘पोस्टमास्टरी’ सवार थी. उसको अपने बाप की पीठ पर बोझा सामान्य सी बात लगी क्योंकि वे उसके लिए पहले भी बोझा उठाते रहे थे. निश्चित तिथि पर बेटा आगे आगे और बाप सामान पीठ पर लादे पीछे पीछे ग्वालदम को चल पड़े. हर बाप अपने बच्चों के लिए बोझा उठाना अपना कर्तव्य समझता है. रास्ते में हरिनंदन लोहानी को अपने कुछ जजमान भी मिले लेकिन पण्डित जी ने उनकी सेवा लेना ठीक नहीं समझा. धीरे धीरे वे गंतव्य की ओर बढ़ते रहे. जो करीब १०-१५ मील होता था. पहाड़ों में दुर्गम स्थानों में अपने सामानों का बोझ उठाकर ले जाने की जीवटता आज भी मौजूद है. यहाँ मानसिकता ये भी रही है कि चमड़ी जाये पर दमड़ी नहीं जानी चाहिए. रूपये की कीमत बहुत समझी जाती है. सच तो यह भी है कि इन पहाड़ी इलाकों में लाखों-करोड़ों रुपयों के मनीआर्डर देश के अन्य हिस्सों में नौकरी करने वाले स्थानीय लोग दशकों से हर महीने भेजते रहते हैं, पर ना जाने क्यों यहाँ रूपये में बरकत नहीं है. आज भी अधिकतर लोग गरीबी की रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे हैं.

अम्बादत्त लोहानी चाहता तो कोई ना कोई बोझेरू मजदूर दूर से भी मंगा सकता था, पर जब पिताश्री आगे होकर तैयार हो गए थे तो उसने सोचा ‘उनके शरीर में खूब क्षमता है. असली घी जो खाया है.’(तब इधर वनस्पति घी का चलन नहीं था)

वज्यूला से आगे परकोटी गाँव की सीध में पहुँचते पहुँचते अधेड़ हरिनंदन बहुत थक गए. रास्ते से परे हटकर एक पेड़ की छाँव में बोझा उतार कर सुस्ताते हुए लेट गए. उधर अम्बादत्त बड़ी देर तक उनकी राह देखता रहा,  लेकिन नीचे पगडंडी पर दूर तक वे कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे. वह थोड़ा चिंतित हो गया और ढलान पर उनकी खोज में लौट पड़ा.

जिस मोड़ पर पिताश्री विश्राम कर रहे थे, उसके पास आने पर एक अन्य पैदल यात्री अम्बादत्त को मिला तो उससे पूछ लिया, “तुमने रास्ते में कोई बोझेरू देखा, जिसकी पीठ पर बिस्तर और ट्रन्क लदा है?” बेटे के ये शब्द हरिनंदन को भी स्पष्ट सुनाई दिये. वह उनको बोझेरू बता रहा था. पिता कहने पर संकोच कर रहा था.

वह राहगीर हीरासिंह जलाल एक अध्यापक था, जो पण्डित जी का जजमान भी था. एक घन्टे पहले वज्यूला में उनसे मिल चुका था, और उनकी कहानी जान चुका था. वह बोला “बोझेरू तो नहीं देखा, हाँ तेरा बाप हरिनंदन को जरूर देखा. यहीं कहीं आ रहा होगा. शरम कर, बाप को बोझेरू बना कर खुद खाली हाथ जा रहा है.”

उनकी वार्तालाप सुनकर पण्डित हरिनंदन का स्वाभिमान भी जाग उठा. उन्होंने कहा, “मैं यहाँ हूँ, और अब इतना घायल हो गया हूँ कि आगे नहीं चल सकता. तू अपना सामान खुद उठा मैं लौट रहा हूँ.” यह कहते हुए वे उलटे पाँव लौट पड़े.

अम्बादत्त पोस्टमास्टर की हालत देखने लायक थी. बाद में निश्चय ही अपना सामान खुद उठा कर ले गया होगा.
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

ईजा का पुनर्जन्म

बहुत से लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं. वे कई ऐसे उदाहरण और साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जिनसे पुनर्जन्म का सिद्धांत सही प्रतीत होता है. भगवदगीता में महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण के वचन यों लिखे हैं:

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोपराणी .
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानी देही.

आप्त वचनों में भी कहा गया है कि मनुष्य अपने सद्कर्मों के बल पर स्वर्ग की प्राप्ति करता है, जहाँ उसकी आत्मा परम सुखों को भोग कर पुण्य क्षीण (खर्च) होने पर पुन: इस धरती पर जीवनचक्र में घूमने आ जाती है. ये भी कहा जाता है कि शुद्ध आत्माओं की यदि कुछ इच्छायें अतृप्त रह जाती हैं तो वे पुन: शरीर धारण करती हैं. आदि शंकराचार्य ने अपने द्वादस मंजरिका स्तोत्र में कहा है, "पुनरपि जननंम, पुनरपि मरणंम, पुनरपि जननी जठरे शयनंम". ये दर्शन शास्त्र व आध्यात्म की गहरी बातें हैं, यहाँ इसके विवेचन पर न जाकर प्रत्यक्ष रूप से स्वर्गीय रामेश्वरी देवी की कहानी पर आते हैं.

श्रीमती बेला पाण्डेय की सास रामेश्वरी देवी आज से ठीक एक साल पहले ८८ वर्ष की उम्र में अपना शरीर छोड़ गयी थी. उनके पौत्र चारुचंद्र ने विधिवत उनका क्रियाकर्म करके अपना संतान-धर्म निभाया था. आज जब उनका वार्षिक श्राद्ध किया गया तो दोपहर बाद ही चारुचंद्र की पत्नी चित्रा ने एक बालिका को जन्म दिया है. चारु की माँ बेला नवजात पौत्री को देखकर भावविह्वल हो गयी. वह उस नन्ही गुड़िया को ईजा (माँ) कहकर पुकारने लगी. बेला पाण्डेय अपनी सास को ईजा ही संबोधित किया करती थी. बेला के अनुसार ईजा ने इसी घर में पुनर्जन्म लिया है. प्रमाणस्वरुप वे बताती हैं कि बच्ची के बांई हथेली पर ईजा की ही तरह छ: अंगुलिया हैं, और ठीक उनकी तरह ही ठोड़ी के नीचे तिल भी है.

बेला इस वक्त खुद भी ६५ वर्ष की उम्रदराज महिला है. अपनी सास के साथ उनका जो आत्मिक सम्बन्ध रहा उसे दो शरीर और एक आत्मा का नाम दिया जा सकता है.

स्व. रामेश्वरी देवी के पति ब्रिटिशकाल में अंगरेजी फ़ौज में सेकेंड लेफ्टीनेन्ट थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मध्य एशिया में तैनात थे, जहाँ उनकी बेटैलियन पर दुश्मन ने आकाशीय हमला किया और वे शहीद हो गए थे. इस प्रकार रामेश्वरी देवी का वैवाहिक जीवन केवल दो वर्षों का रहा. उस वक्त उनकी गोद में उनका ६ माह का बेटा विक्रमादित्य था. विक्रम को उन्होंने बड़ी हिफाजत और कष्टों के साथ बड़ा किया. वह नहीं चाहती थी कि विक्रम बड़ा होकर फ़ौज में भर्ती हो क्योंकि उन्होंने तब की जमीनी लड़ाइयां देखी सुनी थी, जिनमें हमेशा जान का खतरा होता था. पर फ़ौजी परिवार वालों की मानसिकता आम सिविलियनों से अलग हुआ करती है. अनुशासन और देशभक्ति उनके संस्कारों में स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं. विक्रम हमेशा अपने पिता की तस्वीरों को एकटक देखा करता था और उसे फ़ौज में जाने का जूनून हो गया था. माँ को अंत में उसकी जिद मंजूर करनी ही पड़ी.

२४ वर्ष की उम्र में विक्रम की शादी धार्मिक परम्पराओं के अनुसार बेला जोशी से कर दी. रामेश्वरी देवी अपने वैधव्य के दु:ख भुला कर उन चालीस वर्षों में परिवार को पटरी पर ले आई. विक्रम बहुत जिम्मेदार अफसर था, परन्तु दुर्भाग्य ने इस परिवार को एक बार फिर पटखनी दे दी. सीमा क्षेत्र में कहीं एक सड़क दुर्घटना में उसकी जीप गहरी खाई में गिर गयी. वह भी अकाल ही इस दुनिया सी विदा हो गया. उसके दो बेटियाँ और एक बेटा है, जो अब सभी विवाहित हैं. बच्चे आर्थिक विपिन्नता में तो नहीं रहे, पर पिता के ना रहने का संताप वे लोग समझ सकते हैं जो कम उम्र में उन्हें खो देते हैं.

बेला और रामेश्वारी देवी एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह समझती थी. एक दूसरे का दु:ख बांटती रही. बेला उनको ईजा (माँ) कहती थी. उनमें अपनापन माँ शब्द के अर्थ से भी कहीं ज्यादा था. वे एक दूसरे के पूरक हो गए थे. रामेश्वरी देवी ने बहुत दु;ख देखे थे. अब वह बहू के दर्दों को खुद महसूस किया करती थी. ढाढस बंधवाती थी, उपदेश करती थी. अपनी चौथी उम्र में भी बेला के प्रति वह वैसा ही भाव रखती थी जिस तरह एक नौजवान माँ किशोर बेटी की चिंता करती है.

रामेश्वरी देवी के जीवन का एक शुक्ल पृष्ठ यह भी था कि वह हमेशा खुद को धार्मिक साहित्य में डुबोए रखती थी. किताब-समाचार पत्र पढ़ती थी. उन पर बेला से चर्चाएं किया करती थी. यों करीब सत्तर साल का वैधव्य जीवन काट कर अपनी जिम्मेदारियां निभाती हुई वृद्धावस्था के कारण शरीर छोड़ गयी. बेला को यद्यपि ये बात मालूम थी कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, हर देहधारी को इसे एक ना एक दिन छोड़ कर जाना ही होता है, फिर भी उसके लिए ईजा का चले जाना सबसे बड़ी त्रासदी रही. वह नित्यप्रति ईजा को अपने सपनों में देखा करती थी. उनके चित्रों को पुष्पांजलि देती और स्मरण करके आंसू बहाया करती थी. उसे ईजा के देहावसान पर पति के वियोग से भी ज्यादा विषाद हुआ. समय किसी के कहने से रुकता नहीं है. ज्यों हर बरसात के बाद नई घास-वनस्पतियां उग आती हैं, इस सँसार में भी नई उत्पत्ति होती जाती है. आज ठीक वार्षिक श्राद्ध के दिन चारु की पत्नी ने किलकारी मारती हुई एक कन्या को घर में नए सदस्य के रूप में ला दिया तो परिथितिजन्य आनन्द यह हुआ है कि बकौल बेला पाण्डेय, ईजा पुनर्जन्म लेकर आ गयी है.
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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

बद्दुआएँ

“तेरा सत्यानाश हो, तेरे कीड़े पड़ें, तू पैदा होने से पहले ही मर जाता तो अच्छा होता! अरे दुष्ट, तुझे पाला-पोसा पढ़ाया-लिखाया, शादी कर दी, और अब तू अपने बाप पर हाथ उठा रहा है? मुझे लात मार कर धक्का दिया? जा तुझे मेरी बददुआ लगेगी, तेरा कभी भी भला नहीं होगा!” ये धाराप्रवाह गालियाँ आक्रोशित सरोजिनी देवी अपने बड़े बेटे चिंतामणि पाठक को दे रही थी. चिंतामणि साइकॉलाजी में एम.ए. करने के बाद यू.पी. पुलिस में थानेदार हो गया था और बदायूं जिले में कार्यरत था. आज ही सुबह सितारगंज में अपने माँ-बाप के पास लौट कर आया था.

सरोजिनी देवी के पति लोकमणि पाठक २५ साल पहले फ़ौज से सूबेदार के पद से रिटायर हुए थे. उसके बाद सरकार ने उनको ऑनरेरी कैप्टन का तमगा भी दिया था. वे मूल रूप से चम्फावत के एक छोटे से गाँव के रहने वाले हैं. उनके दो बेटे और एक बेटी हैं, जिनको पढ़ाने के उद्देश्य से उनकी पत्नी बच्चों के साथ सितारगंज रहती थी. जहाँ कई वर्षों तक किराए के मकान में रहने के बाद उन्होंने मेन रोड पर ७५,००० रुपयों में एक रिहायशी प्लाट खरीद कर बढ़िया सा घर बनवा लिया था. तब चिंतामणि नौकरी पर लग चुका था, पर उसने खर्चे में बिलकुल भी हाथ नहीं बटाया. घर की सभी व्यवस्थाओं में सरोजनी देवी का रोल हमेशा अध्यवसायी रहा. समय पर दोनों बेटों की शादियां भी कर दी.

चूंकि चिंतामणि जल्दी ही पुलिस की नौकरी में आ गया था, माता-पिता उसकी तरफ से बेफिक्र हो गए. बेटी सयानी होते ही उसकी शादी एक फ़ौजी लड़के से कर दी. छोटा बेटा चंद्रमणि लिखने पढ़ने में फिसड्डी रहता था इसलिए कोई डिग्री-डिप्लोमा हासिल नहीं कर पाया. वह फ़ौज के लायक भी नहीं था क्योंकि शरीर से कमजोर था. इसलिए माता-पिता उसकी ज्यादा फ़िक्र किया करते थे. रिटायर होने के बाद, कैप्टन लोकमणि पाठक को सितारगंज में ही एक कैमिकल फैक्ट्री में सेक्यूरिटी ऑफिसर की नौकरी मिल गयी. यों सारी गृहस्थी व्यवस्थित चल रही थी. चंद्रमणि के भविष्य को आर्थिक दृष्टि से सुनिश्चित करने के लिए उसके लिए एक लोहे की ग्रिल, चेनल, गेट, व जालियां आदि बनाने वाला छोटा वर्कशॉप खोल दिया. दो कारीगर भी रख लिए. बाद में पूरी दूकान का मालिकाना हक भी चंद्रमणि को दिलवा दिया. इस प्रकार कैप्टन साहब ने अपनी सारी बचत छोटे बेटे पर खर्च कर दी. उनका सोचना था कि बड़े बेटे चिंतामणि की तो वेतन के अलावा भी खूब कमाई है और वह उसे निवेश करने में भी समर्थ है.

चिंतामणि का परिवार बढ़ गया था. वह पद में भी प्रमोशन पाकर सी.ओ. हो गया. उसकी पत्नी बहुत लालची किस्म की महिला थी. नित्यप्रति उससे कहा करती थी कि “बाबू जी ने सारी जायदाद देवर जी के नाम कर दी है और तुम्हें ठनठन गोपाल बना कर रखा है.” जब एक ही बात बार बार चुभोई जाये तो कभी तो असर दिखाती है. इस बार बाबू जी से साफ़ साफ़ जायदाद के बटवारे की बात करने के इरादे से ही वह सितारगंज आया था. कैप्टन साहब फैक्ट्री की अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. उनको अपनी पेन्शन का बड़ा सहारा था. जब से सरकार ने पेन्शन को महंगाई भत्ते के साथ जोड़ा तथा एक-रैंक-एक-पेन्शन का फार्मूला लागू किया, रकम में अच्छी बढ़ोत्तरी हो गयी है.

चिंतामणि ने अभी तक की अपनी बारह वर्षीय नौकरी में कभी दो पैसा बाप के हाथ में नहीं रखा. वह समझता था कि उनके पास रुपयों की कोई कमी नहीं है. यद्यपि माँ ने कई बार उससे कहा भी था कि “तू रूपये कमाता है, थोड़ा बहुत अपने पिता की भी मदद किया कर, उनके खर्चे बहुत हैं.” वह ये बताने की कोशिश भी करती रही है कि पिता को आर्थिक रूप से मदद करने से आपस में भरोसा बढ़ता है, पर चिंतामणि ने इन बातों पर कभी गौर नहीं किया और अपनी बचत के रुपयों से अपनी पत्नी के नाम जमीन-जायदाद खरीदता रहा. पिता को खबर भी नहीं होने देता था. जब आदमी नियानब्बे के फेर में पड़ जाता है तो लालच बढ़ता जाता है.

आज ऐसा ही हुआ. उसने कैप्टन साहब से कह डाला “अब आप जायदाद का बटवारा कर दीजिए. मेरा हिस्सा मुझे चाहिए.” ये बात सुन कर कैप्टन साहब ने हैरानी भरे स्वर में कहा, “किस जायदाद की बात कर रहा है? क्या तूने कभी एक रुपया भी यहाँ जमा किया है? मेरी जायदाद में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं है. ये मेरी अकेले की कमाई है.”

“अच्छा तो ये सब छोटे को ही देने का इरादा है?” उसने गुस्से में आँखें दिखाते हुए कहा.

उसके तेवर और तल्ख़ आवाज पर कैप्टन साहब का फ़ौजी गुस्सा फूट पड़ा, “ये पुलिसिया धौंस यहाँ मत दिखा. बेहतर है तुम अपने परिवार सहित अभी इस घर से दफा हो जाओ.”

इस पर चिंतामणि आपे से बाहर हो गया और अपने बाप को मारने के लिए हाथ उठा लिया. तब उसकी माँ बीच में आई. चिंतामणि ने माँ को जोर से लात मार कर धक्का दे दिया, जिससे वह बुरी तरह गिर पड़ी. चंद्रमणि, उसकी पत्नी तथा घर पर काम करने वाला उनका नौकर चिंतामणि पर पिल पड़े और उसे एक तरफ कर दिया.

इस स्थिति में सरोजनी देवी के मुँह से अपनी ही औलाद के लिए हजारों बद्दुआएँ फूट पडी.
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रविवार, 21 जुलाई 2013

बैठे ठाले - ५

दुनिया के बड़े भू-भाग में केवल सर्दी और गर्मी दो ही मौसम होते हैं, बारिश तो बीच बीच में होती रहती है, पर हमारे देश में छ:ऋतुएँ और तीन मौसम, सर्दी, गर्मी और बरसात हर साल घूम फिर कर आते रहते हैं. प्रकृति के इन नियमों के अनेक लाभ हैं, लेकिन कभी कभी अति होने पर हानियाँ भी भयंकर होती हैं. हमने हाल में प्रकृति का ये तांडव प्रत्यक्ष रूप से केदारनाथ धाम व अन्य हिमालयी क्षेत्रों में देखा है.

अब इन दिनों बरसात का मौसम है. तपती गर्मी से निजात मिल गयी है. पेड़-पौधे, बेल-लता, अनाज-घास, सब में नवजीवन व हरियाली आ गयी है. कीट पतंगों से लेकर जलचर, नभचर, व थलचर जीव-जंतुओं में तरुणाई व उमंग का संचार हो गया है. कुल मिलाकर ये प्रकृति की अल्हड़ अंगड़ाई सी है.

बारिश के पानी में नाइट्रोजन घुला रहता है, जो बड़े पेड़ों को भी गहरे तक जाकर पोषण देता है. पहाड़ों की नयनाभिराम छटा इसी बरसात की वजह से बनी होती है. वातावरण में नमी तथा उमस होने से कीट-पतंगों और सभी पशु-पक्षियों के प्रजनन का वेग होता है और उनके नवजातों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध रहता है. दृष्टिगोचर नहीं रहने वाले वायरस व बैक्टीरिया भी इस मौसम में बदहवास बढ़ जाते हैं, जो नाना प्रकार के रोग हम मनुष्यों में भी पैदा कर जाते हैं. चर्म रोग, उदर रोग तथा नेत्र रोग आम तौर पर संक्रमित होते हैं. इसलिए इनसे बचाव के प्रति सावधानियां बरतनी चाहिए.

बाग बगीचों में तितलियां व उड़ने वाली अनेक तरह की जंगली मक्खियाँ हरी पत्तियों या फल-सब्जियों पर अपने असंख्य अण्डे छोड़ जाती हैं. ये जंगली मक्खियाँ फल-सब्जियों पर इंजेक्शन की तरह अपने अण्डे डाल देती हैं. अण्डों से निकलकर उनके बच्चे अन्दर ही अन्दर पोषित होते रहते हैं. देर से पकने वाले इस मौसम के आम, अमरुद, सेव-नाशपाती और आड़ू के फल तथा सब्जियों में टमाटर, बैगन आदि इनके आसान आश्रय होते हैं. हरी पत्तियों की सब्जियों को इसीलिए इस मौसम में वर्जित कहा गया है. आलकल इन कीटों से बचने के लिए काश्तकार कीटनाशक रसायन का स्प्रे करते हैं. इस विषय में विचारणीय बात यह भी है कि इन पेस्टिसाइड्स का अंधाधुंध प्रयोग बहुत खतरनाक होता है. फल-सब्जियों को खाने से पहले स्वच्छ जल से खूब धो लेना जरूरी होता है.

स्वच्छ पीने के पानी के बारे में आजकल शहरी लोगों में बहुत जागरूकता है, पर हमारे गाँव-देहात में बहुत बुरा हाल होता है. नदियों का पानी इन दिनों बुरी तरह प्रदूषित रहता है. अन्य जलस्रोतों का पानी भी पीने के लिए सुरक्षित नहीं होता है. यह एक व्यापक विषय है, जिस पर समाज व प्रशासन दोनों को बहुत काम करना है.

सब मिलाकर मौसम का आनन्द लेने के साथ साथ इसकी बुरे पक्ष से बचाव करते रहना चाहिए.
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शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

यारखां की यारी

पश्चिम रेलवे के सवाईमाधोपुर व कोटा रेलवे स्टेशनों के बीच एक लम्बे नाम वाला, पर छोटा रेलवे स्टेशन आता है, नाम है, "इन्दरगढ़ सुमेरगंजमंडी". एक समय था इन्दरगढ़ एक अलग रियासत होती थी.

रेलवे स्टेशन से करीब ४ किलोमीटर पश्चिम की ओर खड़ी पहाड़ी पर लाल पत्थरों से बना एक भव्य किला है, जो अब खाली पड़ा है. राजवंश की वर्तमान पीढ़ी किले के बाहर अपना महल बना कर रहने लगे हैं. अपने समय में यह किला अन्य रजवाड़ों की तरह ही गुलजार रहा होगा. यहाँ के एक राजा की यह कहानी है:

राजा जी अपने घोड़े पर सवार होकर शाम की सैर पर निकले. साथ में कुछ खास दरबारी व अंगरक्षक भी थे. जब वे किले के बाहर तालाब के किनारे पहुंचे तो देखा एक आदमी बन्दर पकड़ रहा था. उसके कब्जे में एक बन्दर आ चुका था, जिसे देख राजा जी को बहुत गुस्सा आया. वे न्यायप्रिय प्रजापालक तो थे ही, धार्मिक आस्थाओं वाले भी थे. उन्होंने घोड़े से उतर कर मदारी को अपने पास बुलाया और उसका नाम पूछा तो मदारी ने सलाम करते हुए कहा, “हुजूर, मेरा नाम यारखां है.’

राजा जी के तेवर देख कर यारखां की घिघ्घी बंध गयी. राजा जी ने कड़कती आवाज में फिर से पूछा, “तू किसका यार है?”

मदारी घबराहट में बोला, “मालिक, मैं इस बन्दर का यार हूँ.”

राजा जी ने कहा, “तू इसका यार है तो इसे इस तरह बांधकर क्यों पकड़ रखा है?”

यारखां राजा जी से आजिजी करते हुए बोला, “हुजूर, मैं इसको सलाम करना सिखाऊँगा.”

राजा जी उसकी चालाकी भरी बात समझ गए और चेतावनी भरे अंदाज में बोले, “हम अभी सैर करके आते हैं. तब तक तू इसे सलाम करना सिखा, अन्यथा तुझे सजा मिलेगी.” उन्होंने दो सिपाहियों को वहीं पर उसकी निगरानी करने के लिए छोड़ दिया.

यारखां जानता था कि राजा जी के कोप का मतलब क्या होता है. उन दिनों अपराधियों को ‘काठ’ पर खड़ा होने की सजा मिलती थी. दोनों पैरों को फटी हुई मोटी लकड़ी में फँसा कर घंटों खड़ा रखा जाता था. यह सजा बहुत कष्टकर हुआ करती थी.

जब राजदण्ड का भय होता है तो अपराध कम होते हैं. राजाओं के जमाने में सजा के मामलों में तुरंतदान होता था इसलिए अपराधी आज की तरह बेख़ौफ़ नहीं थे.

यारखां सिपाहियों की निगरानी में बन्दर पकड़ कर बैठा रहा. अब उसे छोड़ भी नहीं सकता था. वह सजा से बचने की तरकीब सोचने लगा. एक सूझ उसके दिमाग में आई. राजा जी के सैर से लौटने के ठीक पहले उसने अपनी चिलम सुलगा ली. जब चिलम खूब गरम हो गयी तो उसने गरम गरम चिलम को बन्दर के माथे पर टेक दिया. जलन होने पर बन्दर अपना हाथ तुरंत माथे पर ले गया. मदारी उसका हाथ माथे से हटाता था और वह फिर से अपना हाथ माथे पर ले जाता था.

राजा जी आये. उन्होंने सोचा कि ‘मदारी इतनी जल्दी बन्दर को सिखा नहीं सकता, झूठ बोलता है’. वे बोले, “क्या यारखां, सलाम करना सिखाया या नहीं?”

मदारी बोला, “हाँ, हुजूर देखिये आपको सलाम कर रहा है.” मदारी उसका हाथ माथे पर से हटाये और बन्दर फिर माथे पर हथेली ले जाये. यह देखकर राजा जी मुस्कुराए बिना नहीं रहे. यारखां के चतुराई पर उन्होंने उसे इनाम से भी नवाजा.
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बुधवार, 17 जुलाई 2013

होतव्यता

कृष्ण बिहारी दास एक अंतरप्रांतीय सीमेंट बनाने वाली कम्पनी की फैक्ट्री में सुपरवाइजर थे. उनको गुजरात की फैक्ट्री से प्रमोशन देकर राजस्थान की फैक्ट्री में भेजा गया. उनकी प्रामाणिक योग्यता तो खास नहीं थी, पर उनका काम के प्रति ईमानदारी के साथ साथ जिम्मेदारी महसूस करना बड़ी योग्यता थी. यहाँ आकर महज पाँच वर्षों के अन्दर ही उन्होंने अपने आपको एक अपरिहार्य व्यक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. फैक्ट्री के अन्दर ही नहीं, बाहर कॉलोनी में सामाजिक कार्यों में, क्लब तथा अन्य समारोहों में उनकी उपस्थिति आवश्यक सी लगती थी. छोटे कर्मचारियों से लेकर उच्च मैनेजमेंट तक के लोगों को लगता था कि वे जिम्मेदार व्यक्ति हैं.

दास जी की अर्धांगिनी श्रीमती नयना बेन भी बहुत हँसमुख और मिलनसार महिला थी. उन्होंने भी खुद अपने लिए महिलाओं में आदरणीय स्थान बना लिया था.

दास दम्पति को जीवन में एक ही कमी खलती थी कि उनकी इकलौती संतान गौतम दास कुछ मंदबुद्धि सा था और एक पैर से लंगडाकर चलता था. लगातार ट्यूटर रख कर, पीछे पड़ पड़ कर बड़ी मुश्किल से उसे हाईस्कूल पास कराया और मौक़ा पाते ही मैनेजमेंट से उसके लिए कोई स्थाई नौकरी का निवेदन भी कर दिया.

दास जी के रसूकात काम कर गए, और गौतम को कारखाने में डाक छाँटने-भेजने के काम में रख लिया गया. उसके लिए कारखाने में इससे हल्का काम था भी नहीं. दास दम्पति मानो सारी मुरादें पा गए थे, बहुत खुश हुए, और मिलने वालो को दावत भी दी.

इसी बीच कारखाने के चीफ इंजीनियर प्रमोशन लेकर जब गुजरात की फैक्ट्री में स्थानान्तरित हुए तो उन्होंने वहाँ अपनी नई टीम बनाई जिसमें कृष्ण बिहारी दास को भी बुला लिया. इधर गौतम जब अकेला हो गया तो कुछ छड़े-छाँटे कर्मचारी उसके दोस्त बन गए. उसके घर को खाने-पीने का अड्डा बना लिया.

उधर दास दम्पति ने सोचा कि गौतम की शादी कर दी जाये तो ठीक रहेगा. एक अति सुन्दर स्नातकोत्तर पढ़ी लड़की रोशनी से रिश्ता तय करके गुजरात में धूमधाम से उसका विवाहोत्सव कर दिया. यहाँ तक सब बढ़िया चल रहा था. रोशनी को शायद राजस्थान आकर ही मालूम हुआ होगा कि गौतम मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ नहीं है. और शायद यह भी कि वह बहुत मामूली नौकरी में है. देखने वाले तो यही समझ रहे थे कि गौतम की बहू फ़िल्मी हीरोइनों की तरह अति सुन्दर है. बधाई देते हुए सबको खुशी हो रही थी. मजाक करने वाले पीठ पीछे यों भी कह रहे थे कि “बाजुए हूर में लंगूर, खुदा की कुदरत. कौवे की चोंच में अंगूर खुदा की कुदरत.”

गौतम की यार-दोस्तों की चौकड़ी पूर्ववत उसे घेर कर चल रही थी. वहाँ कोई सयाना तो था नहीं, जो रोक टोक करता. 'नए जमाने के बच्चे हैं’, यह सोच कर कृष्ण बिहारी दास के शुभचिंतक भी अपने काम से काम रखते थे. दुर्भाग्य शायद अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था. गौतम ने एक रात आत्मह्त्या कर ली. कोहराम मच गया. पुलिस आई, जाँच पड़ताल हुई, कोई सुसाइड नोट नहीं मिला. रोशनी गुमसुम थी. कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी. आत्महत्या के कारणों के कई कयास लगाए गए, लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं मिल सका. कृष्ण बिहारी दास सपत्नी आये. उनकी की तो जैसे सारी दुनिया ही उजड़ गयी. घटनाक्रम पर यही कहा जा सकता है, "जैसी हो होतव्यता, तैसी आवै बुद्धि."

छ:माह बाद लोगों को यह समाचार सुनने को मिला कि रोशनी ने गौतम के मित्र सुजीत मोहंती से शादी कर ली है. सुजीत मोहंती गौतम के घर आने वालों में एक था. वह कारखाने में कैमिस्ट के बतौर कार्यरत था. शादी के बाद ये नवविवाहित जोड़ा राजस्थान लौट कर नहीं आया. कहीं अन्यत्र चला गया. इस शादी पर दास दम्पति की प्रतिक्रिया क्या थी, इसका भी पता नहीं चल पाया.
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सोमवार, 15 जुलाई 2013

चुहुल - ५४

(१)
पति – सुना है, आदमी जितना ज्यादा बेवकूफ होता है, उसको उतनी ही ज्यादा खूबसूरत बीवी मिलती है.
पत्नी – बस बस अब रहने दो. मेरी तारीफ़ के अलावा भी कुछ काम कर लिया करो.

(२)
सलमान खान की पचासवीं वर्षगाँठ पर उसकी अम्मी ने बहुत जोर दिया कि अब उसकी शादी हो जानी चाहिए. जिंदगी की हाफ सेंचुरी बहुत होती है. सलमान ने आखिर हाँ कर दी, पर शर्त यह रखी कि लड़की शहरी या फ़िल्मी नहीं होनी चाहिए.
अम्मी ने तलाश की तो दूर के रिश्ते में एक लड़की मिल गयी, उनकी खालू की सास की तहेरी बहन की नातिनी थी, जो कानपुर देहात में कहीं रहती थी.
लड़की देखने जब सलमान पहुंचे तो उनको देखकर लड़की की माँ चौंक कर बोली, “ये हजरत तो २५ साल पहले मुझे भी देखने आये थे.” और रिश्ता नहीं बन सका.

(३)
एक गोल-मटोल आदमी रेल के जनरल डिब्बे में चढ़ा. उसने देखा कोई सीट खाली नहीं थी. पर एक बोरे में कुछ सामान भरा पड़ा था, जिसके ऊपर वह बैठ सकता था. उसने पूछा, “भाई, ये बोरा किसका है?”
एक मोहन नाम का यात्री बोला, "मेरा है."
वह बोला, “क्या मैं इसके ऊपर बैठ सकता हूँ?”
मोहन ने कहा, “नहीं, इस पर मत बैठना. तरबूज फट जायेंगे.”
उसने पूछा, “क्या इसमें तरबूज हैं?”
मोहन ने मुस्कुराते हुए कहा, "नहीं, इसमें लोहे की कीलें है."

(४)
एक कॉलेज में सेमेस्टर सिस्टम लागू था. प्रोफ़ेसर ने एक सीनियर लड़के से पूछा, "सेमेस्टर सिस्टम के फायदे के बारे में बताओ?”
लड़का बोला, “फायदे की बात तो मैं नहीं बता सकता. हां, नुकसान ये होने लगा है कि मुझे साल में दो बार बेइज्जत होना पड़ रहा है.

(५)
मास्टर जी ने बच्चों से पूछा, “अच्छा बताओ, वह कौन सी चीज है जो जहाँ पर उगती है उसी जगह के नाम पर उनका नाम पड़ जाता है?”
एक लड़का बोला, "मास्टर जी मैं बताऊँ?”
“हाँ, हाँ, बताओ,” मास्टर जी ने कहा.
लड़का बोला, “बाल,” फिर सर के ऊपर हाथ लाकर बोला, “चोटी”, माथे के ऊपर अंगुली लाकर बोला, ‘भौंह”, आँख पर अंगुली लाकर बोला, “पलक”, नाक के नीचे बताया, “मूंछ”, ठुड्डी पर हाथ लाकर बोला, “दाढ़ी”. ज्योंही उसने छाती पर हाथ रखना चाहा मास्टर जी ने उसको रोकते हुए कहा, “अब बस कर. तू बहुत जानकार मालूम होता है.”
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शनिवार, 13 जुलाई 2013

बकरी माई

हम दोनों पति-पत्नी का प्रारंभिक जीवन उत्तराखंड में अपने अपने गाँवों में बीता, जहां घरों में गाय या भैंस दुधारू जानवर जरूर रहते थे. हमें याद है कि शुद्ध दूध का स्वाद व गन्ध कितना मनभावन होता था. उसमें चीनी मिलाने की कभी जरूरत ही नहीं होती थी.

विवाहोपरांत जब हम राजस्थान के जिला बूंदी के लाखेरी टाउनशिप में रहने लगे तो यहाँ आसपास ग्रामीण आँचल में रहने वाले गूजर/गूजरियाँ दूध बेचने आया करते थे. सन १९६४-६५ में दूध का भाव एक रुपये में दो सेर हुआ करता था, पर उसमें आधा पानी मिलाया हुआ रहता था. कभी कभी बकरी के दूध की गन्ध भी आती थी.

ग्वार गाँव की तरफ से आने वाले कुछ दूधिये तो रास्ते में पड़ने वाले जंगली संडाल नाले का पानी भी डाल कर लाते थे. लोग कहते थे कि कई बार छोटे छोटे मेंढक के बच्चे भी उछलते हुए दूध में मिलते थे.

हमारा एक दूधिया कान्हा गूजर था, जिसने बरसों तक हमको दूध पिलाया. उसे जब भी भाव बढ़ाना हो तो दूध मे ज्यादा पानी डाल कर लाने लगता था.

जब हमारे परिवार की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी तो बच्चों के लिए शुद्ध दूध की उपलब्धता न होने पर चिंता भी किया करते थे. एक बार गाँधी जयन्ती पर बापू के बारे में अनेक संस्मरण-लेख छपे थे, जिनमें उनकी बकरी के दूध का गुणों सहित वर्णन था. हमने तय किया कि एक बकरी हमें भी पाल लेनी चाहिए. चारा पास में सब्जीमंडी में खूब उपलब्ध रहता था. बस्ती के अधिकतर मुसलमान परिवारों ने बकरा-बकरी पाल रखे थे. उनका बकराप्रेम ईद पर कुर्बानी देने के निमित्त भी होता था.

उन दिनों वहाँ दो तरह की बकरियां हुआ करती थी--एक देसी लम्बे लटके हुए कानो व  लम्बी टांगों वाली जो जंगल में चरने भी जाती थी (चरवाहे मासिक शुल्क लेकर चरा कर लाते थे), और दूसरी बरबरी बकरी, जिसे स्थानीय लोग अंग्रेजी बकरी भी कहते थे. ये चरने जंगल में नहीं जाती थी. कहते थे कि बरबरी बकरी खूब दूध देती है और उसके दूध से गन्ध भी नहीं आती है. बरबरी बकरी साल में दो जुडवां बच्चे भी दिया करती थी. मालूम हुआ कि जिसके पास भी बरबरी बकरी होती थी, वह उसे बेचने के लिए कतई तैयार नहीं होता था. उसके ‘पाठ’ (बच्चे) जरूर मिलते थे, जिनकी कीमत भी बहुत होती थी. पाठ के जवान होने और ब्याने-दूध देने तक का इन्तजार करना पड़ता था, लेकिन हमको सब्र नहीं था.

इसी बीच एक दिन कांकरा गाँव के जागीरदार ठा.धनुर्धारीसिंह हाड़ा अपनी बीमारी के सिलसिले में सलाह लेने मेरे पास आये. उनकी आँत में ट्यूमर था. (जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण भी बना) बातों बातों में मैंने उनको अपनी बकरी-चाहना बता दी तो उन्होंने कहा, “मेरे बाड़े में एक दर्जन बकरियां ब्याई हुई हैं, जिसे पसन्द करो ले आइये.”

“कीमत?” मैंने पूछ लिया.

उन्होंने कहा, "एक बकरी कल ही मैंने १५० रुपयों में बेची है. आप १३५ रूपये दे देना.”

इस प्रकार सौदा होने पर उन्होंने अपने एक कारिंदे के साथ बड़ी सी काले रंग की बकरी व उसके छोटे बोकड़ पाठ को मेरे आवास पर उसी दिन भिजवा दिया.

पत्नी खुश, बच्चे खुश, और अड़ोस-पड़ोस वाले भी बकरी की बुलंद मिमियाहट से आकर्षित हुए बिना नहीं रहे. घर में उत्सव का सा माहौल था. मायूसी तब हुए जब शाम को बकरी ने एक पाव भी दूध पूरा नहीं दिया. एक मित्र से चर्चा की तो उसने बताया, “ये जंगल चरने वाली बकरी है, ये इतना ही दूध दिया करेगी. आप इसे अनाज खिलाओगे तो थोड़ा दूध बढ़ सकता है.”

छौना भूखा ना रह जाये इस बात की भी चिंता थी.

गेहूं और चना बकरी को नाश्ते के रूप में परोसा गया, जिसे उसने मिनटों मे चट कर डाला. इसलिए और अनाज दो तीन बार खिला दिया. नई जगह पर बिजली की रोशनी में आ जाने से (कांकरा गाँव में तब बिजली नहीं होती थी) बकरी रात भर चिल्लाती रही, न खुद सोई और न हमको सोने दिया.

अगली सुबह हमें उम्मीद थी कि दूध जरूर बढ़ कर मिलेगा पर उसने पिछली शाम से भी कम दूध दिया, और उसे भी लात मार कर गिरा दिया. एक नई समस्या ये हो गयी कि अनाज खाने से उसका पेट खराब हो गया, बरामदे में जहाँ हमने उसको बांध रखा था, पूरी जगह उसके पतले मल से आच्छादित हो गया.

शाम तक घर का माहौल ग़मगीन सा हो गया. बच्चे जरूर पाठ से खेलना चाह रहे थे, पर बकरी नहीं चाहती थी कि उसके बच्चे को कोई छेड़े. वह मारने के लिए अपना सर घुमाने लगी.

मेरी श्रीमती ने दर्द भरे स्वर में कहा, ‘बकरी पालना हमारे बस की बात नहीं है. हम तो कान्हा गूजर का लाया हुआ पतला दूध ही ले लेंगे. आप इसे वापस ठाकुर साहब के पास पहुँचा आओ.”

इस प्रकार पाठ को गोद में उठा कर बकरी की रस्सी खींचता हुआ मैं पैदल पैदल कांकरा गाँव तक गया. राह में बहुत से परिचित लोग भी मिले. मुझे एक बकरीपालक के रूप में देखकर विस्मय कर रहे थे. मेरी हालत पर हँस भी रहे होंगे.

अंत में जब मैं ठाकुर साहब से मिला और उनको सारी बात बताई तो वे बोले, “जा को काम, ताहि को साजे, और करे तो डंका बाजे." उधर बकरी का मिमियाना भी बन्द हो गया. वह खुशी खुशी अपने बाड़े में चली गयी. मैंने राहत की सांस ली और घर लौट आया.
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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

शहद घुला रिश्ता

मानू अब बड़ा हो गया है. वह मानू से मनोहर हो गया है. उसे याद है कि बचपन से लगभग हर साल गर्मियों की छुट्टियाँ होते ही वह मम्मी के साथ ननिहाल चला आता था. इन छुट्टियों का उसे बहुत बेसब्री सी इन्तजार रहता था. पापा बताते थे कि सभी बच्चे इसी तरह ‘नानी-हॉलीडेज’ का इन्तजार करते होंगे. सचमुच नानी तो नानी ही होती है, उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है.

नानी का गाँव नैनीताल के भवाली–रामगढ़ मोटर मार्ग पर है. यहाँ आकर जयपुर की तपती लू भरी गर्मी से निजात तो मिलती ही है. गर्मियों में इस सदाबहार गाँव में फलों की भी बहार रहती है, आड़ू, खुबानी, प्लम, आलूबुखारा और चुस्की नाशपाती बहुतायत में यहाँ मिलते हैं. इसके चारों तरफ फल-पट्टियाँ विकसित की गयी है. पर ये जून का महीना इतनी जल्दी क्यों भाग जाता है? पता ही नहीं चलता.

इस गाँव के सब लोग मानू को अपने पास बुलाने को लालायित रहते हैं, मानो वह एक बच्चा ना होकर चलता फिरता खिलौना हो. मानू शहर की लोगों की तुलना में यहाँ के लोगो के अपनेपन और प्यार से इतना अभिभूत रहता है कि हमेशा यहीं रहने को मन करता है.

मानू को कई वर्षों के बाद मालूम पड़ा कि उसकी नानी की केवल एक आँख सही सलामत है. दूसरी आँख तो पत्थर की बनी है. मम्मी ने ही उसे बताया कि नानी के बचपन में उनकी आँख में चोट लगने से जख्मी हो गयी थी और ठीक से ईलाज न मिलने से सूख गयी थी. मानू इस बारे में कई दिनों तक सोचता रहा कि भगवान ने सबको दो दो आँखें इसीलिए दी हैं कि अगर एक खराब हो जाये तो दूसरी से काम चलाया जाये. उसने एक दिन सहमते हुए नानी स कहा, “नानी आपकी एक ही आँख है. इसकी आप बहुत हिफाजत करना क्योंकि आँख नहीं होगी तो सब तरफ अन्धेरा हो जाएगा.”

नानी ने इत्मीतान से मुस्कुराते हुए मानू को बताया, "मैं इसकी पूरी हिफाजत करती हूँ क्योंकि अपने मरने के बाद भी मैं इसे किसी नेत्रहीन को दान करना चाहती हूँ.” नानी ने आगे बताया कि “पिछले साल नैनीताल जिला अस्पताल में आँखों की जाँच के लिए एक कैम्प लगा था जिसमें बहुत से लोगों ने नेत्रदान का संकल्प लेकर फ़ार्म भरे, उनमें तुम्हारे नाना और मैं भी थी. मानू को नानी की ये परोपकारी भावना बहुत अच्छी लगी.

इस बार मनोहर दो सालों के बाद ननिहाल आया है. वह बारहवीं की फाइनल परीक्षा और उसके बाद प्रीमेडिकल टेस्ट के में बैठने के लिए दिन रात पढ़ाई में व्यस्त रहा. वह जानता है कि सफलता के लिए बहुत मेहनत की जरूरत होती है. उसका सपना है कि वह आँखों का डॉक्टर बने और नानी के परोपकार के मिशन को आगे बढ़ाये.

नानी अब काफी बूढ़ी हों गयी हैं, पर मानू के प्रति उनके रिश्ते की मिठास में कोई कमी नहीं आई है.
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मंगलवार, 9 जुलाई 2013

रक्तदान महादान

किसी व्यक्ति के शरीर में खून की कमी को पूरा करने के लिए अब से लगभग ४०० वर्ष पहले यूरोप में तत्कालीन चिकित्सकों के दिमाग में आया कि यदि जानवरों का ताजा खून मुँह द्वारा पिला दिया जाये तो वह सीधे मरीज के शरीर के रक्त में जा मिलेगा. एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति तब आज की तरह समृद्ध व वैज्ञानिक नहीं थी. रक्त ट्रांस्फ्यूजन या रक्तदान का प्रारंभिक इतिहास बताता है कि ये भ्रांतिपूर्ण तरीका बहुत प्रचलित था. बाद में एक कदम आगे बढ़ते हुए एक चिकित्सक ने भेड़ का ताजा खून एक मरीज की रुधिर सिरा में चढ़ा दिया तो मरीज की तुरन्त मौत हो गयी. फ्रांस के इस दुस्साहसी चिकित्सक को मरीज को मारने के जुर्म में मृत्युदंड दिया गया.

परन्तु यह विचार कि एक मनुष्य का रक्त दूसरे को चढ़ाया जा सकता है, ज़िंदा रहा. इस प्रकार के प्रयोग होते रहे. तब अलग अलग खून में ‘अग्लूटिनेसन’ (आपस में मेल) की क्रिया से अनजान रहने के कारण मरीज मरते भी रहे.सन १६७९ में पोप X1 ने रक्त ट्रांस्फ्यूजन पर प्रतिबन्ध लगा दिया.

आस्ट्रियाई जीव विज्ञानी व भौतिकविद कार्ल लेंडस्लाइडर (१४ जून १८६८ – २६ जून १९४३) ने रक्त में ‘अग्लूटिनेसन’ के आधार पर रक्त समूहों को A, B, AB और O ग्रुप्स में वर्गीकृत करके इस चिकित्सा विधा में क्रान्ति ला दी. क्रॉसमैचिंग करके ग्राह्य रक्त को खून की कमी के शिकार मरीज को दिया जाना सामान्य बात हो गयी. सन १९३० में कार्ल लेंडस्लाइडर को इस महान खोज के लिए नोबेल पुरुस्कार से नवाजा गया. अब हर साल १४ जून उनके जन्मदिन को विश्व रक्तदान दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है.

मनुष्य के शरीर में बहने वाले खून में श्वेत व लाल रक्त कोशिकाएं अरबों की संख्या में अपने अपने अनुपात में रहते हैं. लाल कणों में हीमोग्लोबिन रहता है, जो शरीर के तमाम उतकों का पोषण करता है. श्वेत कण एक तरह की अन्दुरुनी फ़ौज है, जो प्रतिरोधात्मक शक्ति बनाए रखती है. इनका सामंजस्य प्लेटलेट्स बनाए रखते हैं. ये ऐसा जटिल विधिविधान है, जिसे आसानी से नहीं समझा जा सकता है. रक्त के उपरोक्त ग्रुप्स के उपसमूह भी हैं. आज चिकित्सा विज्ञान बहुआयामी और विस्तृत हो चुका है. अनेक विधाओं में इसका अध्ययन किया जाने लगा है. रक्त देना और रक्त लेना पूर्ण सुरक्षित हो गया है.

एक बार के रक्तदान में ३५० ग्राम रक्त दिया जाता है, जो मात्र २१ दिनों में दुबारा शरीर में बन जाता है. वैसे भी हर तीन महीनों बाद पुराने रक्तकण मर जाते है और पित्त की थैली में चले जाते हैं, उनकी जगह यकृत (लीवर) द्वारा नए पैदा करने की प्रक्रिया जारी रहती है.

रक्तदान करने के लिए १६ से ६० वर्ष की उम्र के सभी स्त्री-पुरुष, जिनके शरीर का वजन कम से कम ४५ किलो भी हो तथा HIV या हेपेटाइटिस B या C से ग्रस्त ना हो; योग्य है.

रक्तदान के बारे में तरह तरह की गलत धारणाएं होती है कि ‘रक्तदान करने वाला कमजोर हो जाता है’, ‘उसकी रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम  हो जाती है’, आदि आदि. लेकिन ये सब भ्रांतियां हैं.

रक्तदान से मौत से जूझ रहे मरीज, दुर्घटना से ब्लडलॉस वाले लोग, आपरेशन करवाने वाले बीमार, अथवा ‘थैलीसीमिया’ ग्रस्त बच्चों की जान बचाई जाती है. अनुभव किया गया है कि बहुत प्रचार-प्रसार के बावजूद कम लोग इस पुण्य कार्य में अपना योगदान करने के लिए सहर्ष आगे आते हैं. कई सामाजिक सस्थानों के सदस्य व उद्योग समूहों में कार्यरत समझदार लोग इस विषय की गंभीरता को समझते हुए रक्तदान करने/कराने लगे हैं.

कुछ प्रोफेशनल खून बेचने वाले शराबी/नशेड़ी लोग जरूरतमंदों को खून उपलब्ध कराते हैं. इसमें दलालों का भी हिस्सा होता है किन्तु ये बहुत खतरनाक बीमारियों को निमंत्रण देने जैसा है क्योंकि इन पेशेवरों के खून में हीमोग्लोबिन का स्तर बहुत कम रहता है तथा बीमारियों की जड़ निहित रहती है. अधिकृत ब्लड बैंक रक्त का परीक्षण और भंडारण करते हैं, जिसमें स्टरलाईजेशन का विशेष ध्यान रखना होता है. जिन थैलियों में रक्त लिया जाता है, उनमें उचित मात्रा में ऐंटीकोआग्युलेन्ट होना चाहिए. ये महत्वपूर्ण है कि संरक्षित रक्त भी ज्यादा लम्बे समय तक नहीं रखा जा सकता है.

कुछ अनधिकृत नकली खून के कारोबारी दलालों के मार्फ़त मौत की सौदागिरी करते हैं. इनसे सावधान रहना चाहिए.

चूँकि अस्पतालों में आवश्यकतानुसार खून की पूर्ति नहीं हो पाती है इसलिए इसके विकल्प के रूप में cells free heamoglobin solution का उपयोग कुछ देशों में होने लगा है. सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका ने इसको मान्यता दी है.

रेडक्रॉस सोसाइटीज तथा बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित ‘ब्लड बैंक’ इस क्षेत्र में प्रसंशनीय कार्य कर रही हैं. रक्तदान करने वाले बहुत से लोगों ने नियमित रक्तदान करने के अपने व्यक्तिगत रिकॉर्ड बनाए हैं. हमें अपने स्वजनों, मित्रों व साथियों को समय समय पर रक्तदान करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. ये मानवता की सेवा में बड़ा कदम होगा.
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रविवार, 7 जुलाई 2013

चंडूखाने से

डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने मधुशाला पर एक पूरी किताब लिख डाली. वैसे शराबखाने तो हजारों सालों से इस धरती पर रहे होंगे, बच्चन जी जैसे दीदावर ने उसे एक खास मुकाम दे डाला. लेकिन उनके दिमाग में कभी हमारे देसी चंडूखाने के बारे में कभी कोई नज्म पैदा नहीं हुई.

अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी और फारसी के महान कवियों ने ‘वारुणी’ पर रूबाइयां/मुक्तक तहे दिल से रच कर अपने पाठकों का दिल खुश किया होगा, पर सिर्फ हमारे दोस्त चायनीज अफीमखोरों के अलावा चंडूखाने के आनन्द के बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा.

कहते हैं कि भाँग-गांजा-चरस जोगियों और बाबाओं को ईश्वरीय अनुभूति कराते हैं. वे इसे शंकर भगवान के प्रिय नशे के रूप में वर्णित करते हैं. मैं समझता हूँ कि शंकर भगवान को एक खुराक चंडू का स्वाद चखाया जाता तो वे फिर अन्य बूटी का ख्याल ही नहीं करते.

अहा ! हमारे देहात में हर गाँव में एक ओखलसार हुआ करती थी जहाँ बहू-बेटियाँ, नई नवेली से लेकर बूढ़ी दादी माई तक चूड़ियाँ खनकाते हुए, सदाबहार गीत गाती हुई धान कूटा करती थी और ओखलसार के बगल में आसपास मर्दजात का चंडूखाना होता था. चटाइयां बिछी रहती थी और नशेड़ी लोग आते ही लंबा लेट कर चंडू पिया करते थे. इसका स्वाद कड़ुआ जरूर लगता था, पर नशा बहुत मीठा होता था. घंटों यों ही शिथिल होकर आनद लेते रहते थे. बहुत दूर दूर की बातें सूझने लगती थी. चाँद-तारों की सैर तक कर आते थे. ऐसी ऐसी फेंकू खबरे सुनी-सुनाई आती थी, जिन पर अविश्वास करने की कोई गुंजाइश नहीं होती थी. हाय, ये सब अब कहाँ? हमारी सारी सामाजिक विधाएं बदल गयी हैं. अब तो फेसबुक पर ‘फेकिंग न्यूज’ में कभी कभी चंडूखाने की सी ख़बरें दिखाई देती हैं, अथवा कभी कभी अपने न्यूज चैनलों को ज्यादा लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से कुछ संपादक/संवाददाता ऐसी-वैसी चंडूखाने की सी खबरें उछालते रहते हैं.

चलते चलते चंडूखाने की ताजा (ब्रेकिंग न्यूज) खबर यह है कि अडवानी जी ने नरेन्द्र मोदी जी को भारतीय जनता पार्टी का प्राइम मिनिस्टर केंडिडेट घोषित कर दिया है. हमारे सूत्रों ने बताया कि मोदी जी ने अडवानी जी को प्रेसीडेंट बनाने का आश्वासन दिया है. दूसरी खबर के अनुसार राहुल बाबा की गर्ल फ्रेंड भी राजनीति में सक्रिय होना चाहती है. बताया जाता है कि वह सोनिया जी जैसी प्रभावशाली बनने की महत्वाकांक्षा रखती है. कहो कैसी रही?
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शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

बुद्धिनाश

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस एक पूर्ण उपदेशात्मक महाकाव्य भी है, जिसमें जगह जगह पर मनुष्यों के लिए मर्यादाओं की लकीरें खींची गयी हैं. किष्किन्धा काण्ड में जब श्रीराम ने वानरराज बाली को बाण से मारा तो मोक्ष से पूर्व उसने रामजी से पूछा, “आपने छिप कर व्याध की तरह मुझे मारा है. मेरा क्या अपराध है?” तब राम जी उसको उसके छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी छीन लेने के अपराध को याद दिलाते हुए कहते हैं :

“अनुज वधू, भगनी, सुतनारी; सुब सठ कन्या सम ये चारी.”

पण्डित देवनारायण शर्मा रामकथा मर्मज्ञ थे और अपनी इस प्रतिभा से अपने सगे-साथियों एवँ स्वजनों को हर मौके पर दोहा-चौपाइयां सुनाते रहते थे. लेकिन ६० वर्ष की उम्र में मानसिक रूप से इतने विचलित हो गए कि सीधे रेलवे लाइन पर जाकर ट्रेन से कट गए. उनके बदन के चीथड़े चीथड़े हो गए जिनको समेटना भी बहुत मुश्किल हो गया था.

लोगों को इस दुर्धटना पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ क्योंकि देवनारायण खुद कहा करते थे कि “आत्महत्या से बड़ा पाप कुछ नहीं होता है. आत्महत्या एक क्षणिक आवेग होता है जो लोक परलोक दोनों में अधोगति प्रदान करता है. आत्महंता व्यक्ति पीछे परिवार के लिए बहुत दारुण दु:ख व अपमान भरे दिन छोड़ जाता है, जिन्हें कई पीढ़ियों तक इसका दंश झेलना पड़ता है.” ये सब जानते हुए भी एक धर्मज्ञ मन-मष्तिष्क वाले प्रौढ़ व्यक्ति को इस तरह विदा होना आश्चर्य व दुःख की बात थी.

उनके पारिवारिक जीवन का विवरण यह है कि उनकी दो पत्नियाँ थी. पहली शादी के कई वर्षों तक कोई औलाद नहीं हुई तो अपनी पत्नी की सलाह पर उसकी ही भतीजी को छोटी पत्नी का दर्जा देकर वंशबेल आगे बढ़ाने के लिए विवाह कर लिया. सँयोग ऐसा हुआ कि विवाह के एक साल बाद पहले बड़ी पत्नी को जुडवां--एक बेटा एक बेटी, तथा कुछ दिनों बाद छोटी को भी एक बेटा पैदा हो गया. इस प्रकार घर में दोगुनी-तिगुनी किलकारियां एक साथ गूँज उठी.

दोनों पत्नियां चूँकि बुआ-भतीजी थी, आपस में बहुत सौहार्द व प्रेम था. घर में धन-वैभव की कमी भी नहीं थी. उनके पास तीस एकड़ जमीन थी. बटाईदार कमाकर देते थे. शर्मा जी अपने पंचायती कामों में इधर उधर डोलते रहते थे. वे समाज के मान्यवरों में एक थे. समय का पहिया किसी के बिना घुमाए अपने आप घूमता रहता है. बड़ी का बेटा ललित नारायण शरीर से बहुत कमजोर व दुबला पतला था. उसे तगड़ा करने के लिए सब तरह के इन्तजाम किये गए, पर उसका इकहरा बदन जैसा था वैसा ही रहा. किसी ने मजाक में कह दिया कि ‘पण्डित जी इसकी शादी कर दो, अपने आप मोटा हो जाएगा.” उनके मन में बात ऐसी जमी कि उन्नीसवें वर्ष में उसके लिए एक देखने में सुन्दर, लम्बी-चौड़ी दुल्हन ले आये.

विवाह, जो कि दो व्यक्तियों के बीच प्यार का बंधन होना चाहिए, हमारे समाज ने उसे पारिवारिक व सामाजिक बंधन बना दिया है. 

देखने में ही ललित नारायण और उसकी पत्नी पुनीता का जोड़ा बेमेल सा लगता था, पर इसमें कोई नई बात नहीं थी. गाँव में आज भी ‘छोटा दूल्हा बड़ा सुहाग’ कहा जाता है.

थोड़े दिनों तक तो घर में खूब गहमा गहमी रही, पर धीरे धीरे घर में अशांति पैदा होने लगी.

एक तो ललित मोहन पूरी तरह अपने पिता पर आश्रित था. वह अपनी पत्नी की खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकता था और अठारह वर्षीय सुनीता भी बंधन में रहने की आदी नहीं थी.  
सुनीता को उसके ससुराल वालों ने मुंहफट और बदतमीज करार दिया. उसके बाहर वाले लोगों से बात करने पर उसके चरित्र पर संदेह किया जाने लगा. गाँव के लड़के भाभी-भाभी कहते हुए उसके आस पास घूमा करते थे. 

घर की महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति मानने वाले पण्डित जी को यह सब असहनीय था. उन्हें लगने लगा कि वे अपने कमजोर तन-मन वाले बेटे के लिए गलत किस्म की बहू ले आये थे. 

बहुत दिनों तक तो वे उसकी कारगुजारियों को सहते रहे, पर एक दिन देवनारायण शर्मा ने ठान ली कि उसका कुछ ईलाज किया जाना जरूरी है. संयोग कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने बहू को गाँव के एक लड़के से अकेले में बातें करते हुए देख लिया. उन्होंने आव देखा ना ताव बहू के केश पकड़ कर दो-चार थप्पड़ जड़ दिये.

पुनीता इस अपमान से और भी ज्यादा विद्रोही हो गयी. वह अन्याय सहन करने वाली लड़की नहीं थी. उसने शोर मचा कर लोगों को इकठ्ठा कर लिया और अपने ससुर पर बदगुमानी का इल्जाम लगा दिया. किसी को उसकी बात पर विश्वास तो नहीं हुआ होगा, पर लोग ऐसी बातों को बढ़ा चढ़ा कर फैलाते हैं. इस आक्षेप से देवनारायण शर्मा इतने आहत हुए कि उनकी सारी विद्वता नष्ट हो गयी और अपनी जान दे बैठे. भगवदगीता में भी लिखा है :

क्रोधाध्दवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतभ्रन्शाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति !! (अध्या २-६३)
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बुधवार, 3 जुलाई 2013

हाय पैसा !

अल्मोड़ा जिले के सतराली गाँव के डॉ. चंद्रमणि भट्ट का बचपन गाँव में ही बीता. पिता लोकमणि शास्त्री संस्कृत विद्यायय चलाते थे. गणनाथ हाई स्कूल से मैट्रिक पास होने के बाद चंद्रमणि आगे की पढ़ाई के लिए अपने मामा देवकीनंदन जोशी के पास लखनऊ आ गए. मामाजी यू.पी. के सचिवालय में बतौर क्लर्क नौकरी पर थे.

चंद्रमणि कुशाग्रबुद्धि थे. एम.ए. (इतिहास) करने के बाद बी.टी.(तब बी.एड. व एम.एड. नहीं होता था) करके एक सेंट्रल स्कूल में अध्यापक हो गए. तब देश भर में सेंट्रल स्कूल नए नए खोले जा रहे थे. अध्यापक रहते हुए उन्होंने "कुमायूं के चंद राजाओं के राज-काज" विषय पर शोध करके पी.एचडी. की डिग्री हासिल की.

आपने अपने बचपन में सांप-सीढ़ी का खेल अवश्य खेला होगा. खेला ना सही, अन्य बच्चों को खेलते हुए तो देखा ही होगा. कभी कभी ऐसा संयोग बैठता है कि गोटी छक्का लगाते हुए लम्बी सीढ़ी से चढ़ते हुए सबको पछाड़ देती है और मुकाम पर सबसे पहले पहुँच जाती है. डॉ. भट्ट के जीवन में भी ऐसे ही संजोग आये कि वे जल्दी प्रिंसिपल बने और कुछ वर्षों बाद असिस्टेंट कमिश्नर फिर कमिश्नर बन गए. सेंट्रल स्कूल का कमिश्नर होना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. लालबत्ती वाली गाड़ी के आगे मोटर-बाइक पर वर्दीधारी दो पायलट चलते थे. बड़े ठाठ थे. उनका अध्यवसाय भी था और भाग्य भी प्रबल था. ये भी था कि शादी के बाद उनको लम्बी सीढियां दिलाने में उनके ससुर जी का भी अदृश्य हाथ था. वे तब यू.पी. से राज्य सभा के सदस्य हुआ करते थे.

डॉ. भट्ट की पत्नी कपिला भट्ट एक कॉलेज में प्राध्यापिका थी. बाद में वे प्रिंसिपल भी बनी. उनके एक बेटी और दो बेटे हुए जो कुशाग्रता में माता-पिता से आगे निकले. उनको वातावरण भी मिला और पढ़ने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्कूल-कॉलेज भी. बेटी एक एलोपैथी चिकित्सक है, जो अपने पति-परिवार के साथ लन्दन में बस गयी है. एक बेटा भारत सरकार की विदेश सेवा में है, जो कि कई वर्षों से न्यूयोर्क स्थित राष्ट्रसंघ कार्यालय में किसी जिम्मेदार पद पर है. दूसरा बेटा आइ आई टी से पढ़ कर जापान में सेटलाईट सम्बन्धी उपकरण बनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी में सीनियर इंजीनियर है. दोनों बेटों ने अपनी पसन्द की विदेशी लड़कियों से विवाह किया है.

सब सुखी और संपन्न हैं. दोनों पति-पत्नी कई बार बच्चों के पास घूम कर आते रहे  हैं. डॉ. भट्ट हर बार कहते थे, जो सुख अपने घर पर है वह कहीं भी भी नहीं है.”

डॉ. भट्ट रिटायरमेंट तक सरकारी आवासों में रहे, पर उसी बीच उन्होंने दिल्ली के लक्ष्मी नगर में एक आलीशान दुमंजिली कोठी बनवा ली थी. रिटायर होने के तुरन्त बाद वे उसमें रहने लगे.

डॉ. भट्ट रूपये-पैसों का मैनेजमेंट भी खूब जानते थे. धन-लिप्सा तो उनको शुरू से ही थी इसलिए अनुत्पादक खर्चा बिलकुल नहीं करते थे. दूसरे शब्दों में, वे बेहद कंजूसी बरतते थे. उन्होंने कोई खुला व्यापारिक व्यवसाय तो किया नहीं, नौकरीपेशा आदमी की वैतनिक आमदनी व खर्चों के संतुलन में कितनी बचत हो पाती होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता है, पर उन्होंने धीरे धीरे बहुत रुपए व जायदाद जमा कर ली थी. वे दक्षिणी दिल्ली में दो बहुमंजिली इमारतों के मालिक थे जिनमें बीस दो कमरे वाले फ़्लैट हैं. वे किराए पर चलते हैं. गुडगाँव में कई वर्गगज जमीन उनके नाम है. इधर हल्द्वानी के बिठोरिया तथा कुसुम खेड़ा इलाकों में कम से कम आठ जगह प्लाट उनके नाम रजिस्टर्ड हैं. ये सब कैसे कमाया इसकी कैफियत सिर्फ वे ही जानते थे. सतराली की पहाड़ी ऊसर जमीन पर उनके भाई-बिरादरों का कब्जा है जो कि अब उनके किसी उपयोग की नहीं है.

डॉ. भट्ट ने कई नामी कंपनियों में करोड़ों रुपये निवेश किये हुए हैं, पर इतनी दौलत होने के बावजूद वे अपने बैंक में अपना धन बढ़ाने के नए नए उपाय सोचते रहते थे. .

कमिश्नर के ओहदे से रिटायर होते ही उनको महर्षि विद्यालय समूह के डाइरेक्टर पद की जिम्मेदारी मिल गयी. इसी बीच दुर्भाग्य से उनकी पत्नी एक सड़क दुर्घटना की शिकार हो गयी. जिंदगी की एक्सप्रेस रेल एक बार पटरी पर खड़ी हो गयी. बीमार होती तो ईलाज होता, सब साधन उपलब्द्ध थे. क्या नहीं था उनके पास? बहरहाल तीनों बच्चों के परिवार शोक मनाने इकट्ठे हुए. बेटों ने बहुत जिद की कि अब अकेले रहना ठीक नहीं होगा अत: उनके साथ चलें, पर वे नहीं माने क्योंकि उनके धन और जायदाद का साम्राज्य उघड़ा पड़ा था. पत्नी के सारे ड्यूज लेने थे. उन्होंने महर्षि विद्यालय के डाइरेक्टर पद से इस्तीफा दे दिया. विद्यालय से मिलने वाली नौकर और गाड़ी की सुविधा बन्द हो गयी. बेटा-बेटी सब चले गए, उनके लिए एक नेपाली नौकर की व्यवस्था कर गए, पर वह नौकर ज्यादा दिन टिका नहीं इसलिए भोजन के लिए एक होटल से ‘टिफिन डब्बा’ मंगवाया जाने लगा.
दिनचर्या ये थी कि लगभग रोज ही अपने बच्चों से फोन पर बात कर लिया करते थे. शेष समय फ्लैटों के केयर टेकर से वहाँ की व्यवस्था और किराया वसूली के बारे में झकझक तथा अपने कम्प्यूटर पर आमदनी का ब्यौरा डालने और जोड़-घटाने में व्यतीत हो रहा था. एक बार उन्होंने अपनी चल एवँ अचल सम्पति की कुल कीमत जोड़ी तो बीस करोड़ के पार पाया. फिर भी उनको सन्तोष नहीं हो रहा था. सोचते थे, ‘काश मैं अरबपति होता!’

उनकी अपनी प्रकृति कहिये या परिस्थितियाँ, किसी को अपना घनिष्ट मित्र बनाया नहीं. अपने सगे-रिश्तेदारों से भी हमेशा दूरी बनाए रखी और अब ७०+ में वे अकेलापन भोगने को मजबूर थे. जैसा कि बहुत से लोग बुढ़ापे को धार्मिक आस्थाओं व क्रियाकलापों में गुजारते हैं, वे ऐसा भी नहीं करते थे. उनके पड़ोस में रहने वाले मथुरादत्त लोहानी के घर एक दिन पूजा-पाठ आयोजित था. डॉ भट्ट को भी फोन से निमंत्रण मिला. वे गए, थोड़ी देर वहाँ उपस्थित रहे फिर प्रसाद लेकर घर लौट आये. उसके बाद अगले तीन दिनों तक बच्चे लोग हमेशा की तरह फोन करते रहे जो ‘नो रिप्लाई’ जा रहा था. बड़े लड़के ने अपने एक दोस्त को फोन करके तलाशने को कहा और जब वह उनके लक्ष्मी नगर स्थित आवास पर आया तो घर अन्दर से बन्द मिला. शंका होने पर पुलिस बुलाई गयी. दरवाजा तोड़ कर देखा तो डॉ. भट्ट का शव सोफे पर निढाल पड़ा हुआ था. प्रसाद की पुड़िया हाथ में ही थी.

बच्चों को खबर की गयी. उनके पहुँचने तक लाश को बर्फ में रखा गया. इस प्रकार उनका जीवन पैसों के ही भेंट चढ़ गया.
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सोमवार, 1 जुलाई 2013

चुहुल - ५३

(१)
एक दार्शनिक व्यक्ति घूमते हुये सड़क पर चला जा रहा था. इतने में ऊपर उड़ती हुई एक छोटी चिड़िया उसके ऊपर बीट करते हुए निकल गयी. दार्शनिक ने बीट साफ़ किया और बड़बड़ाते हुए बोला, “अच्छा हुआ भगवान ने गाय, भैंस और हाथियों को उड़ने लायक नहीं बनाया वरना मुश्किल हो जाती.”

(२)
एक लड़के की प्रेमिका ने कुत्ता पाला हुआ था. जब भी वह मिलने जाता था, कुत्ता उस पर गुर्राता था और पीछे पड़ जाता था. इससे वह परेशान होता था.
लड़के ने प्रेयसी से कहा, “आखिर तुम्हें कुत्ते से इतना लगाव क्यों है?”
वह बोली, “युधिष्ठिर जब सदेह स्वर्ग गए तो कुत्ता भी साथ गया. भगवान शंकर के नंदी के साथ हमेशा उनका गण कुत्ता रहता है. अंतरिक्ष की खोज में सबसे पहले रूस ने कुतिया ही भेजी थी इसलिए मैं सभी कुत्तों से प्यार करती हूँ, और तुम से भी.

(३)
मोटापे से परेशान एक औरत अपनी सेहत सम्बन्धी समस्याओं को लेकर डॉक्टर के पास गयी. डॉक्टर ने तफसील से उसकी जाँच-पड़ताल की और कहा, “अगर आप तमाम तकलीफों से छुटकारा पाना चाहती हैं तो आपको खान-पान में बहुत परहेज करना होगा. आपको खाने में टमाटर का सूप, उबली हुई हरी सब्जी, सन्तरे का रस और साथ में एक सेव जरूर लेना चाहिये.”
महिला ने व्यग्रता से पूछा, “ये सब चीजें खाने से पहले लूँ या खाने के बाद?”

(४)
एक महिला किसी चाइनीज रेस्टोरेंट में खाना खाने गयी. वहाँ जो मीनू कार्ड था, उस पर एक सुन्दर सी डिजाइन बनी हुई थी. उस महिला ने झट से उसे कागज़ पर उतार लिया. और जब अपना स्वेटर बुना तो उस पर आगे व पीछे वही डिजायन रंगीन धागों से बुन लिया.
जब वह उस स्वेटर को पहन कर किसी समारोह में गयी तो लोगों ने उसका खूब मजाक बनाया क्योंकि उस डिजाइन में चायनीज भाषा में लिखा था, ‘स्वादिष्ट और सस्ती’.

(५)
एक सर्जन एक मरीज के पेट का आपरेशन करने के लिए, बेहोश करने वाले इंजेक्शन लगाने की तैयारी कर रहा था. मरीज आपरेशन टेबल से झट उठ कर अपने बटुए में रखे नोट गिनने लगा.
सर्जन ने कहा, “फीस देने की इतनी जल्दी मत करो बाद में दे देना.”
मरीज बोला, “डॉक्टर साहब, मैं तो इनको गिन रहा हूँ ताकि बेहोशी में कोई निकाल ना ले.”
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