अल्लामा का शाब्दिक अर्थ है विद्वान. बीसवीं सदी के उर्दू-फारसी के महान शायर इकबाल मुहम्मद ने अपने एक शेर में खुद लिखा है:
वास्तव में अल्लामा इकबाल (१८७७-१९३८) एक दीदावर ही थे.
उनके पूर्वज कश्मीरी पण्डित (सप्रू) होते थे. उनके दादा सियालकोट जा बसे थे और इस्लाम धर्म अपना लिया था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सियालकोट के एक मिशन स्कूल से प्राप्त की. बाद में उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज, म्यूनिख और हेडेलबर्ग में पाई. हिन्दुस्तान लौट कर कुछ समय ओरियेन्टल कॉलेज में अध्यापन व लाहौर में वकालत भी की. उर्दू, फारसी भाषा, व इस्लामिक दर्शन पर उन्हें महारत हासिल थी. उनके लिखे ‘जावेद नामा’ में प्राचीन भारतीय दर्शन अर्थात वेद और उपनिषदों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘असर-ए-बेबुदी’, ‘बंग-ए-दारा’ है. देशभक्ति से ओतप्रोत तराना ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ बंग-ए-दारा’ में ही संगृहित है. उनकी फारसी रचनाओं को ईरान व अफगानिस्तान में भी बहुत प्रसिद्धि मिली हुई है. वहाँ उनको ‘इकबाल-ए-लाहौर’ के नाम से जाना जाता है. डॉ. इकबाल ने बच्चों के लिए भी बहुत प्यारे प्यारे नगमे भी लिखे हैं.
उनकी लेखनी में साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रोश था. उनके विचार घर्म व दर्शन के अलावा राजनैतिक सन्दर्भ में बहुत प्रखर थे. बहुत से बुद्धिजीवी आज आश्चर्य करते हैं कि उनके दिमाग में मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र यानि पाकिस्तान की परिकल्पना कैसे और क्योंकर पैदा हुई होगी? वे इन्डियन मुस्लिम लीग से जुड़े और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर पृथक मुस्लिम राष्ट्र की जद्दोजिहद में शामिल हो गए. १९३० में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए पाकिस्तान की माँग को प्रमुखता दी.
१९३२ में इंगलैंड में बुलाये गए तीसरे गोल मेज सम्मलेन में वे मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए लन्दन गए जहाँ ब्रिटिश सरकार ने उनकी प्रतिभा को सराहते हुए ‘सर’ की उपाधि से नवाजा था.
अल्लामा इकबाल के अनेक मुँह बोलते शेर हैं, जो हर महफ़िल में आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं जैसे:
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा.
वास्तव में अल्लामा इकबाल (१८७७-१९३८) एक दीदावर ही थे.
उनके पूर्वज कश्मीरी पण्डित (सप्रू) होते थे. उनके दादा सियालकोट जा बसे थे और इस्लाम धर्म अपना लिया था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सियालकोट के एक मिशन स्कूल से प्राप्त की. बाद में उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज, म्यूनिख और हेडेलबर्ग में पाई. हिन्दुस्तान लौट कर कुछ समय ओरियेन्टल कॉलेज में अध्यापन व लाहौर में वकालत भी की. उर्दू, फारसी भाषा, व इस्लामिक दर्शन पर उन्हें महारत हासिल थी. उनके लिखे ‘जावेद नामा’ में प्राचीन भारतीय दर्शन अर्थात वेद और उपनिषदों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘असर-ए-बेबुदी’, ‘बंग-ए-दारा’ है. देशभक्ति से ओतप्रोत तराना ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ बंग-ए-दारा’ में ही संगृहित है. उनकी फारसी रचनाओं को ईरान व अफगानिस्तान में भी बहुत प्रसिद्धि मिली हुई है. वहाँ उनको ‘इकबाल-ए-लाहौर’ के नाम से जाना जाता है. डॉ. इकबाल ने बच्चों के लिए भी बहुत प्यारे प्यारे नगमे भी लिखे हैं.
उनकी लेखनी में साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रोश था. उनके विचार घर्म व दर्शन के अलावा राजनैतिक सन्दर्भ में बहुत प्रखर थे. बहुत से बुद्धिजीवी आज आश्चर्य करते हैं कि उनके दिमाग में मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र यानि पाकिस्तान की परिकल्पना कैसे और क्योंकर पैदा हुई होगी? वे इन्डियन मुस्लिम लीग से जुड़े और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर पृथक मुस्लिम राष्ट्र की जद्दोजिहद में शामिल हो गए. १९३० में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए पाकिस्तान की माँग को प्रमुखता दी.
१९३२ में इंगलैंड में बुलाये गए तीसरे गोल मेज सम्मलेन में वे मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए लन्दन गए जहाँ ब्रिटिश सरकार ने उनकी प्रतिभा को सराहते हुए ‘सर’ की उपाधि से नवाजा था.
अल्लामा इकबाल के अनेक मुँह बोलते शेर हैं, जो हर महफ़िल में आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं जैसे:
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है.
दिल की बस्ती अजीब बस्ती है, लूटने वाले को तरसती है.
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तहाँ और भी हैं.
बीसवीं सदी के इस महान बुद्धिजीवी+शायर+राजनीतिज्ञ को मरणोपरांत पाकिस्तान का राष्ट्रकवि घोषित किया गया, लेकिन यह एक सत्य है कि वे देश की सीमाओं से बहुत ऊपर थे. राजनैतिक परिस्थितिवश वे भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के लिए जिम्मेदार लोगों में से एक माने जाते हैं. अफसोस ये है कि वे अपने जीवन काल में आजाद पाकिस्तान को नहीं देख पाए.
आज अगर वे मौजूद होते तो पाकिस्तान की सियासत व कट्टरपंथियों के चरित्र को देख कर जार जार रोते.
दिल की बस्ती अजीब बस्ती है, लूटने वाले को तरसती है.
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तहाँ और भी हैं.
बीसवीं सदी के इस महान बुद्धिजीवी+शायर+राजनीतिज्ञ को मरणोपरांत पाकिस्तान का राष्ट्रकवि घोषित किया गया, लेकिन यह एक सत्य है कि वे देश की सीमाओं से बहुत ऊपर थे. राजनैतिक परिस्थितिवश वे भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के लिए जिम्मेदार लोगों में से एक माने जाते हैं. अफसोस ये है कि वे अपने जीवन काल में आजाद पाकिस्तान को नहीं देख पाए.
आज अगर वे मौजूद होते तो पाकिस्तान की सियासत व कट्टरपंथियों के चरित्र को देख कर जार जार रोते.
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