शनिवार, 27 जुलाई 2013

बोझेरू

हमारे देश को जब अंग्रेजों की हुकूमत से आजादी मिली तो कुल जनसंख्या ३५-४० करोड़ के आसपास थी. पढ़े लिखे लोगों का प्रतिशत भी बहुत कम था. मिडिल (दर्जा ७) पास करते ही अध्यापकी या पटवारी-पेशकार की नौकरी मिल जाया करती थी. एंट्रेंस (हाई स्कूल) पास लड़के सीधे तहसीलदार भी बन जाते थे. अगर फर्स्ट डिविजन यानि ६०% नम्बर आ जाते तो मेडीकल कॉलेज के दरवाजे भी खुले रहते थे. स्कूल कॉलेजों में फीस भी नगण्य हुआ करती थी.

आजादी के बाद जनसंख्या बेतहाशा बढ़ती रही. नई नई नौकरियों की गुंजाइश होते हुए भी बेरोजगारी थमी नहीं है. उन दिनों पढ़ाई की इतनी विधाएं भी नहीं थी. लड़के सीधे एफ.ए., बी.ए., या एम.ए. किया करते थे. मैकाले की उस शिक्षा नीति का दुष्परिणाम यह हुआ कि पढ़ा लिखा आदमी शारिरिक श्रम वाले कार्यों अथवा खेतीबाड़ी के कामों से परहेज करने लगा. आम धारणा यह भी थी कि शिक्षण संस्थायें दफ़्तरों के बाबू बनाने के कारखाने बन गए थे.

अल्मोड़ा जिले में कौसानी और गरुड़ के बीच पहाड़ी पर बसे हुए भेटा गाँव के पण्डित हरिनंदन लोहानी एक छोटे काश्तकार थे. चूंकि लम्बी धोती वाले ब्राह्मण तब खुद खेतों में हल नहीं चलाते थे इसलिए सब काम उनका हाली धनीराम शिल्पकार किया करता था. हरिनंदन लोहानी कुछ पंडिताई का काम भी करते थे. दूर वज्यूला के आसपास उनकी जजमानी थी.

हरिनन्दन लोहानी ने अपने इकलौते बेटे अम्बादत्त को एंट्रेंस की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा शहर में भेजा था. वे खुद उसका राशन-पानी उसके डेरे में पहुंचा कर आते थे. अपने बच्चों को इस तरह पढ़ाने का कई लोगों में बहुत उत्साह हुआ करता था. बच्चों को भी स्कूलों में ये दोहा सुनाया जाता था:

बच्चों पढ़ना है सुखदाई, मिले इसी से सभी बडाई,
पहले थोड़ा कष्ट उठाना, फिर सब दिन आनन्द मनाना.
मित्र लोगों की सलाह पर अम्बादत्त ने डाक विभाग में  नौकरी के लिए आवेदन किया तो उसका चयन भी हो गया. लखनऊ में तीन महीने की तार बाबू की ट्रेनिंग पाकर अल्मोडा मुख्य डाकघर में नियुक्ति मिल गयी. एक साल बाद ही उसकी घर के निकट बैजनाथ डाकघर में बदली कर दी  गयी जहाँ दो साल के कार्यकाल के बाद ही उसे पदोन्नति देकर पोस्टमास्टर बना दिया गया.

अम्बादत्त लोहानी भेटा गाँव से पोस्टमास्टर बनने वाला पहला भाग्यशाली व्यक्ति था. वह एकाएक ‘बड़ा आदमी’ हो गया. बच्चे जब बड़ा आदमी बन जाते हैं तो माता-पिता भी अपने आप ‘बड़े लोग’ हो जाते हैं. पण्डित हरिनंदन बहुत खुश थे, पर उनको लेशमात्र घमंड नहीं हुआ. वे बेटे की बेबूदी तथा उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए नित्य अपने पूजा-पाठ में लगे रहते थे, पर अम्बादत्त को ये गरिमा ठीक से हजम नहीं हो रही थी. वह स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझते हुए आम लोगों से अंग्रेज हुक्कामों की तरह व्यवहार करने लगा था. क्यों ना हो? पोस्टमास्टर को उन दिनों कई ऐसे अधिकार प्राप्त होते थे जो गजेटेड ऑफिसरों के पास होते थे. गजेटेड ऑफिसर (जिसका नाम सरकारी गजेट में प्रकाशित होता था) का मतलब सर्टिफाइंग ईमानदार अधिकारी होता था.

पण्डित हरिनंदन लोहानी अपने काबिल बेटे के लिए एक सुन्दर खानदानी बहू की तलाश में थे कि छ: महीनों बाद ही अम्बादत्त की बदली गढ़वाल बॉर्डर पर स्थित ग्वालदम पोस्ट आफिस को हो गयी. उन दिनों उनका हाली धनीराम बीमार पड़ा हुआ था इसलिए अम्बादत्त का बिस्तर+ट्रन्क को ग्वालदम पहुँचाने की समस्या उत्पन्न हो गयी. कोई और बोझेरू (बोझा ढोने वाला कुली) उपलब्ध नहीं हो रहा था. बैजनाथ से ग्वालदम तक पहाड़ी ऊँची नीची कच्ची सड़क होती थी. खच्चर वाले से बात की तो उसने पूरे बीस रुपयों के भाड़े की बात की. पण्डित जी ने सोचा, ‘इतना भाड़ा देने के बजाय क्यों ना मैं ही बेटे का बिस्तर+ट्रन्क वहाँ पहुचा आऊँ.’

अम्बादत्त जवान लड़का था पर उस पर ‘पोस्टमास्टरी’ सवार थी. उसको अपने बाप की पीठ पर बोझा सामान्य सी बात लगी क्योंकि वे उसके लिए पहले भी बोझा उठाते रहे थे. निश्चित तिथि पर बेटा आगे आगे और बाप सामान पीठ पर लादे पीछे पीछे ग्वालदम को चल पड़े. हर बाप अपने बच्चों के लिए बोझा उठाना अपना कर्तव्य समझता है. रास्ते में हरिनंदन लोहानी को अपने कुछ जजमान भी मिले लेकिन पण्डित जी ने उनकी सेवा लेना ठीक नहीं समझा. धीरे धीरे वे गंतव्य की ओर बढ़ते रहे. जो करीब १०-१५ मील होता था. पहाड़ों में दुर्गम स्थानों में अपने सामानों का बोझ उठाकर ले जाने की जीवटता आज भी मौजूद है. यहाँ मानसिकता ये भी रही है कि चमड़ी जाये पर दमड़ी नहीं जानी चाहिए. रूपये की कीमत बहुत समझी जाती है. सच तो यह भी है कि इन पहाड़ी इलाकों में लाखों-करोड़ों रुपयों के मनीआर्डर देश के अन्य हिस्सों में नौकरी करने वाले स्थानीय लोग दशकों से हर महीने भेजते रहते हैं, पर ना जाने क्यों यहाँ रूपये में बरकत नहीं है. आज भी अधिकतर लोग गरीबी की रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे हैं.

अम्बादत्त लोहानी चाहता तो कोई ना कोई बोझेरू मजदूर दूर से भी मंगा सकता था, पर जब पिताश्री आगे होकर तैयार हो गए थे तो उसने सोचा ‘उनके शरीर में खूब क्षमता है. असली घी जो खाया है.’(तब इधर वनस्पति घी का चलन नहीं था)

वज्यूला से आगे परकोटी गाँव की सीध में पहुँचते पहुँचते अधेड़ हरिनंदन बहुत थक गए. रास्ते से परे हटकर एक पेड़ की छाँव में बोझा उतार कर सुस्ताते हुए लेट गए. उधर अम्बादत्त बड़ी देर तक उनकी राह देखता रहा,  लेकिन नीचे पगडंडी पर दूर तक वे कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे. वह थोड़ा चिंतित हो गया और ढलान पर उनकी खोज में लौट पड़ा.

जिस मोड़ पर पिताश्री विश्राम कर रहे थे, उसके पास आने पर एक अन्य पैदल यात्री अम्बादत्त को मिला तो उससे पूछ लिया, “तुमने रास्ते में कोई बोझेरू देखा, जिसकी पीठ पर बिस्तर और ट्रन्क लदा है?” बेटे के ये शब्द हरिनंदन को भी स्पष्ट सुनाई दिये. वह उनको बोझेरू बता रहा था. पिता कहने पर संकोच कर रहा था.

वह राहगीर हीरासिंह जलाल एक अध्यापक था, जो पण्डित जी का जजमान भी था. एक घन्टे पहले वज्यूला में उनसे मिल चुका था, और उनकी कहानी जान चुका था. वह बोला “बोझेरू तो नहीं देखा, हाँ तेरा बाप हरिनंदन को जरूर देखा. यहीं कहीं आ रहा होगा. शरम कर, बाप को बोझेरू बना कर खुद खाली हाथ जा रहा है.”

उनकी वार्तालाप सुनकर पण्डित हरिनंदन का स्वाभिमान भी जाग उठा. उन्होंने कहा, “मैं यहाँ हूँ, और अब इतना घायल हो गया हूँ कि आगे नहीं चल सकता. तू अपना सामान खुद उठा मैं लौट रहा हूँ.” यह कहते हुए वे उलटे पाँव लौट पड़े.

अम्बादत्त पोस्टमास्टर की हालत देखने लायक थी. बाद में निश्चय ही अपना सामान खुद उठा कर ले गया होगा.
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